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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त

    अ॒हमे॒व वात॑इव॒ प्र वा॑म्या॒रभ॑माणा॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प॒रो दि॒वा प॒र ए॒ना पृ॑थि॒व्यैताव॑ती महि॒म्ना सं ब॑भूव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । ए॒व । वात॑:ऽइव । प्र । वा॒मि॒ । आ॒ऽरभ॑माणा । भुव॑नानि । विश्वा॑ । प॒र: । दि॒वा । प॒र: । ए॒ना । पृ॒थि॒व्या । ए॒ताव॑ती । म॒हि॒म्ना । सम् । ब॒भू॒व॒ ॥३०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमेव वातइव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा। परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिम्ना सं बभूव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । एव । वात:ऽइव । प्र । वामि । आऽरभमाणा । भुवनानि । विश्वा । पर: । दिवा । पर: । एना । पृथिव्या । एतावती । महिम्ना । सम् । बभूव ॥३०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (अहम् एव) मैं ही (विश्वा) सब (भुवनानि) प्राणियों को (आरभमाणा=आलभमाना) छूती हुई शक्ति (वातः) पवन के समान (प्र वामि) चलती रहती हैं। (दिवा) सूर्यलोक से (परः) परे और (एना पृथिव्या) इस पृथिवी से (परः) परे [वर्तमान होकर] (एतावती) इतनी बड़ी शक्ति (महिम्ना) अपनी महिमा से (संबभूव) हो गई हूँ ॥८॥

    भावार्थ - जैसे वायु सब सांसारिक पदार्थों को अवलम्बन कर्ता है, उसी प्रकार परमात्मा वायु का भी आश्रय दाता है और वह इन्द्रियों के विषय, सूर्य पृथिवी आदि पदार्थों से अलग है। उसकी महिमा को जान कर सब मनुष्य पुरुषार्थी होकर आनन्दित रहें ॥८॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ इत्यष्टमः प्रपाठकः ॥

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