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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - सर्वरूपा सर्वात्मिका सर्वदेवमयी वाक् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - राष्ट्रदेवी सुक्त

    अ॒हं रु॒द्रेभि॒र्वसु॑भिश्चराम्य॒हमा॑दि॒त्यैरु॒त वि॒श्वदे॑वैः। अ॒हं मि॒त्रावरु॑णो॒भा बि॑भर्म्य॒हमि॑न्द्रा॒ग्नी अ॒हम॒श्विनो॒भा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । रु॒द्रेभि॑: । वसु॑ऽभि: । च॒रा॒मि॒ । अ॒हम् । आ॒दि॒त्यै: । उ॒त । वि॒श्वऽदे॑वै: । अ॒हम् । मि॒त्रावरु॑णा । उ॒भा । बि॒भ॒र्मि॒ । अ॒हम् । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । अ॒हम् । अ॒श्विना॑ । उ॒भा ॥३०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । रुद्रेभि: । वसुऽभि: । चरामि । अहम् । आदित्यै: । उत । विश्वऽदेवै: । अहम् । मित्रावरुणा । उभा । बिभर्मि । अहम् । इन्द्राग्नी इति । अहम् । अश्विना । उभा ॥३०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अहम्) मैं [परमेश्वर] (रुद्रेभिः) ज्ञानदाताओं वा दुःखनाशकों (वसुभिः) निवास करानेवाले पुरुषों के साथ (उत) और (अहम्) मैं ही (विश्वदेवैः) सर्व दिव्य गुणवाले (आदित्यैः) प्रकाशमान, अथवा अदीन प्रकृति से उत्पन्न हुए सूर्य आदि लोकों के साथ (चरामि) चलता हूँ। (अहम्) मैं (उभा) दोनों (मित्रावरुणा) दिन और रात को, (अहम्) मैं (इन्द्राग्नी) पवन और अग्नि को, (अहम्) मैं ही (उभा) दोनों (अश्विना) सूर्य और पृथिवी को (बिभर्मि) धारण करता हूँ ॥—१॥

    भावार्थ - परमेश्वर सर्वशक्तिमान् सर्वोत्पादक और सर्वपोषक है, उसकी उपासना से सब मनुष्य नित्य उन्नति करें ॥—१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद में है-मण्डल १० सूक्त १२५। वहाँ सूक्त की वागाम्भृणी ऋषि और वागाम्भृणी ही देवता है ॥—

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