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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - ब्रह्म छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त

    ब्रह्म॑ जज्ञा॒नं प्र॑थ॒मं पु॒रस्ता॒द्वि सी॑म॒तः सु॒रुचो॑ वे॒न आ॑वः। स बु॒ध्न्या॑ उप॒मा अ॑स्य वि॒ष्ठाः स॒तश्च॒ योनि॒मस॑तश्च॒ वि वः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब्रह्म॑ । ज॒ज्ञा॒नम् । प्र॒थ॒मम् । पु॒रस्ता॑त् । वि । सी॒म॒त: । सु॒ऽरुच॑: । वे॒न: । आ॒व॒: । स: । बु॒ध्न्या᳡: । उ॒प॒ऽमा:। अ॒स्य॒ । वि॒ऽस्था: । स॒त: । च॒ । योनि॑म् । अस॑त: । च॒ । व‍ि । व॒: ॥६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ब्रह्म । जज्ञानम् । प्रथमम् । पुरस्तात् । वि । सीमत: । सुऽरुच: । वेन: । आव: । स: । बुध्न्या: । उपऽमा:। अस्य । विऽस्था: । सत: । च । योनिम् । असत: । च । व‍ि । व: ॥६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 6; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (वेनः) प्रकाशमान वा मेधावी परमेश्वर ने (पुरस्तात्) पहिले काल में (प्रथमम्) प्रख्यात (जज्ञानम्) उपस्थित रहनेवाले (ब्रह्म) वृद्धि के कारण अन्न को और (सुरुचः) बड़े रुचिर लोकों को (सीमतः) सीमाओं से (वि आवः) फैलाया है। (सः) उसने (बुध्न्याः) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान (उपमाः) [परस्पर आकर्षण से] तुलना रखनेवाले (विष्ठाः) विशेष स्थानों, अर्थात् (अस्य) इस (सतः) विद्यमान [स्थूल] के (च) और (असतः) अविद्यमान [सूक्ष्म जगत्] के (योनिम्) घर को (च) निश्चय करके (वि वः) खोला है ॥१॥

    भावार्थ - जगत् के जननी जनक परमेश्वर ने सृष्टि से पूर्व प्राणियों के लिये अन्न आदि पदार्थ बनाये और मूर्त और अमूर्त जगत् के भण्डार आकाश पृथिव्यादि लोक रचे ॥१॥ यह मन्त्र पहिले आ गया है−अ० ४।१।१। यह मन्त्र यजु० १३।३। और सामवेद पूर्वार्चिक अ० ४ द० ३। म० ९ में है ॥

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