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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 46

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिरस् देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - ककुम्मती विष्टारपङ्क्तिः सूक्तम् - दुःष्वप्ननाशन

    यो न जी॒वोऽसि॒ न मृ॒तो दे॒वाना॑ममृतग॒र्भोऽसि॑ स्वप्न। व॑रुणा॒नी ते॑ मा॒ता य॒मः पि॒ताररु॒र्नामा॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न । जी॒व : । असि॑ । न । मृ॒त: । दे॒वाना॑म् । अ॒मृ॒त॒ऽग॒र्भ: । अ॒सि॒ । स्व॒प्न॒ । व॒रु॒णा॒नी । ते॒ । मा॒ता । य॒म: । पि॒ता । अर॑रु: । नाम॑ । अ॒सि॒ ॥४६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो न जीवोऽसि न मृतो देवानाममृतगर्भोऽसि स्वप्न। वरुणानी ते माता यमः पिताररुर्नामासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न । जीव : । असि । न । मृत: । देवानाम् । अमृतऽगर्भ: । असि । स्वप्न । वरुणानी । ते । माता । यम: । पिता । अररु: । नाम । असि ॥४६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (स्वप्न) हे स्वप्न ! (यः) जो तू (न) न तो (जीवः) जीवित और (न)(मृत) मृतक (असि) है, [परन्तु] (देवानाम्) इन्द्रियों के (अमृतगर्भः) अमरपन का आधार (असि) तू है। (वरुणानी) वरुण अर्थात् ढकनेवाले अन्धकार की शक्ति, रात्रि (ते) तेरी (माता) माता और (यमः) नियम में चलानेवाला सूर्य (पिता) पिता है, और तू (अररुः) हिंसक (नाम) नाम (असि) है ॥१॥

    भावार्थ - स्वप्न अवस्था में शरीर के कुछ अङ्ग चेष्टा करते रहते हैं और कुछ चेष्टा बिना हो जाते हैं, इससे स्वप्न जीवन और मरण के बीच में है। स्वप्न इन्द्रियों को सुख देता है अर्थात् दिन में परिश्रम करनेवालों को रात्रि में सोने से सुख मिलता है परन्तु नियमविरुद्ध सोने से आयु घटती है ॥१॥

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