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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 90

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - रुद्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - इषुनिष्कासन सूक्त

    यां ते॑ रु॒द्र इषु॒मास्य॒दङ्गे॑भ्यो॒ हृद॑याय च। इ॒दं ताम॒द्य त्वद्व॒यं विषू॑चीं॒ वि वृ॑हामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । ते॒ । रु॒द्र: । इषु॑म् । आस्य॑त् । अङ्गे॑भ्य: । हृद॑याय: । च॒ । इ॒दम् । ताम् । अ॒द्य । त्वत् । व॒यम् । विषू॑चीम् । वि । वृ॒हा॒म॒सि॒ ॥९०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां ते रुद्र इषुमास्यदङ्गेभ्यो हृदयाय च। इदं तामद्य त्वद्वयं विषूचीं वि वृहामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । ते । रुद्र: । इषुम् । आस्यत् । अङ्गेभ्य: । हृदयाय: । च । इदम् । ताम् । अद्य । त्वत् । वयम् । विषूचीम् । वि । वृहामसि ॥९०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 90; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (रुद्रः) पापियों के रुलानेवाले परमेश्वर ने (ते) तेरे (अङ्गेभ्यः) अङ्गों [शरीर] को पीड़ा देने (च) और (हृदयाय) हृदय [आत्मा] दुखाने के लिये (याम्) जिस (इषुम्) बरछी [पीड़ा] को (आस्यत्) छोड़ा है। (इदम्) सो (अद्य) अब (विषूचीम्) नाना गतिवाली (ताम्) उस [बरछी] को (वयम्) हम लोग (त्वत्) तुझ से (वि वृहामसि=०−मः) उखाड़ते हैं ॥१॥

    भावार्थ - परमेश्वर अपनी न्यायव्यवस्था से पापियों को शारीरिक और आत्मिक दुःख देता और सुकर्म करने पर उन्हें उस क्लेश से छुड़ाकर आनन्दित करता है ॥१॥

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