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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 94

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 94/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वाङ्गिरा देवता - सरस्वती छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त

    सं वो॒ मनां॑सि॒ सं व्र॒ता समाकू॑तीर्नमामसि। अ॒मी ये विव्र॑ता॒ स्थन॒ तान्वः॒ सं न॑मयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । व॒: । मनां॑सि॒ । सम् । व्र॒ता । सम् । आऽकू॑ती: । न॒मा॒म॒सि॒ । अ॒मी इति॑ । ये । विऽव्र॑ता: । स्थन॑ । तान् । व॒: । सम् । न॒म॒या॒म॒सि॒ ॥९४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं वो मनांसि सं व्रता समाकूतीर्नमामसि। अमी ये विव्रता स्थन तान्वः सं नमयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । व: । मनांसि । सम् । व्रता । सम् । आऽकूती: । नमामसि । अमी इति । ये । विऽव्रता: । स्थन । तान् । व: । सम् । नमयामसि ॥९४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 94; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [हे मनुष्यो !] (वः) तुम्हारे (मनांसि) मनों को (सम्) ठीक रीति से, (व्रता=व्रतानि) कर्मों को (सम्) ठीक रीति से (आकूतीः) संकल्प को (सम्) ठीक रीति से (नमामसि=०−मः) हम झुकते हैं। (अमी ये) यह जो तुम (विव्रताः) विरुद्धकर्मी (स्थन) हो, (तान् वः) उन तुमको (सम्) ठीक रीति से (नमयामसि=०−मः) हम झुकाते हैं ॥१॥

    भावार्थ - प्रधान पुरुष सब के उत्तम विचारों, उत्तम कर्मों और उत्तम मनोरथों का माने और धर्मपथ में विरुद्ध मतवालों को भी सहमत कर लेवे ॥१॥ यह मन्त्र आ चुका है−अ० ३।८।५ ॥

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