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अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
ब्रह्म॑णा॒ भूमि॒र्विहि॑ता॒ ब्रह्म॒ द्यौरुत्त॑रा हि॒ता। ब्रह्मे॒दमू॒र्ध्वं ति॒र्यक्चा॒न्तरि॑क्षं॒ व्यचो॑ हि॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णा । भूमि॑: । विऽहि॑ता । ब्रह्म॑ । द्यौ: । उत्ऽत॑रा । हि॒ता । ब्रह्म॑ । इ॒दम् । ऊ॒र्ध्वम् । ति॒र्यक् । च॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् । व्यच॑: । हि॒तम् ॥२.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणा भूमिर्विहिता ब्रह्म द्यौरुत्तरा हिता। ब्रह्मेदमूर्ध्वं तिर्यक्चान्तरिक्षं व्यचो हितम् ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणा । भूमि: । विऽहिता । ब्रह्म । द्यौ: । उत्ऽतरा । हिता । ब्रह्म । इदम् । ऊर्ध्वम् । तिर्यक् । च । अन्तरिक्षम् । व्यच: । हितम् ॥२.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 25
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( ब्रह्मणा ) = परमात्मा ने ( भूमि: ) = पृथिवी ( विहिता ) = बनाई ( ब्रह्म ) = परमेश्वर ने ( द्यौः ) = द्युलोक को ( उत्तरा ) = ऊपर ( हिता ) = स्थापित किया । ( च ) = और ( ब्रह्म ) = परमात्मा ने ही ( इदम् ) = यह ( अन्तरिक्षम् ) = मध्य लोक ( ऊर्ध्वम् ) = ऊपर ( तिर्यक् ) = तिरछा और नीचे ( व्यचोहितम् ) = व्यापा हुआ रक्खा है।
भावार्थ -
भावार्थ = एशिया, यूरोप, अमरीका और अफ्रीका आदि खण्डों से युक्त सारी पृथिवी और पृथिवी में रहनेवाले सारे प्राणी परमात्मा ने रचे हैं। उस परमात्मा ने ही सूर्य से ऊपर का हिस्सा जिसको द्युलोक कहते हैं वह भी ऊपर स्थापित किया और मध्यका यह अन्तरिक्ष लोक जो ऊपर और नीचे तिरछा सर्वत्र फैला हुआ है उस परमात्मा ने बनाया है।
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