अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 29
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
पू॒र्णात्पू॒र्णमुद॑चति पू॒र्णं पू॒र्णेन॑ सिच्यते। उ॒तो तद॒द्य वि॑द्याम॒ यत॒स्तत्प॑रिषि॒च्यते॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्णात् । पू॒र्णम् । उत् । अ॒च॒ति॒ । पू॒र्णम् । पू॒र्णेन॑ । सि॒च्य॒ते॒ । उ॒तो इति॑ । तत् । अ॒द्य । वि॒द्या॒म॒ । यत॑: । तत् । प॒रि॒ऽसि॒च्यते॑ ॥८.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्णात्पूर्णमुदचति पूर्णं पूर्णेन सिच्यते। उतो तदद्य विद्याम यतस्तत्परिषिच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्णात् । पूर्णम् । उत् । अचति । पूर्णम् । पूर्णेन । सिच्यते । उतो इति । तत् । अद्य । विद्याम । यत: । तत् । परिऽसिच्यते ॥८.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 29
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( पूर्णात् ) = सर्वत्र व्यापक परमात्मा से ( पूर्णम् ) = सम्पूर्ण यह जगत् ( उदचति ) = उदय होता है ( पूर्णम् ) = यह पूर्ण जगत् ( पूर्णेन ) = पूर्ण परमात्मा से ( सिच्यते ) = सींचा जाता है। ( उतो तदद्य विद्याम् ) = नियम से आज हम जानेंगे ( यतः ) = जिस परमात्मा से ( तत् ) = वह जगत् ( परिषिच्यते ) = सींचा जाता है।
भावार्थ -
भावार्थ = सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा से यह संसार सर्वत्र पूर्णतया उत्पन्न हुआ। उस पूर्ण परमात्मा ने ही इस जगत् रूपी वृक्ष का सिंचन किया है, उस परमात्मा के जानने में हमें विलम्ब नहीं करना चाहिये क्योंकि हमारे सबके शरीर क्षणभंगुर हैं। ऐसा न हो कि हमारी मन-की-मन में रह जाय और हमारा शरीर नष्ट हो जाय । इसलिए वेद ने कहा 'तदद्य विद्याम' उस परमात्मा को हम आज ही जान लेवें ।
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