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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगुः
देवता - सविता
छन्दः - त्रिपदार्षी गायत्री
सूक्तम् - द्रविणार्थप्रार्थना सूक्त
धा॒ता द॑धातु नो र॒यिमीशा॑नो॒ जग॑त॒स्पतिः॑। स नः॑ पू॒र्णेन॑ यच्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठधा॒ता । द॒धा॒तु॒ । न॒: । र॒यिम् । ईशा॑न: । जग॑त: । पति॑: । स: । न॒: । पू॒र्णेन॑ । य॒च्छ॒तु॒ ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
धाता दधातु नो रयिमीशानो जगतस्पतिः। स नः पूर्णेन यच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठधाता । दधातु । न: । रयिम् । ईशान: । जगत: । पति: । स: । न: । पूर्णेन । यच्छतु ॥१८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
पदार्थ -
शब्दार्थ = ( धाता ) = सारे संसार का धारण करनेवाला परमात्मा ( नः ) = हमारे लिए ( रयिम् ) = विद्या, सुवर्णादि धन को ( दधातु ) = धारण करे अर्थात् देवे, वही प्रभु ( ईशानः ) = सबके मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ और ( जगतस्पतिः ) = जगत् का पालक है ( सः ) = वह ( न: ) = हमें ( पूर्णेनः ) = वृद्धि को प्राप्त हुए धन से ( यच्छतु ) = जोड़ देवे अर्थात् हमको पूर्ण धनी बनावे ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे सर्वजगत् धारक परमात्मन्! हम आर्य लोग जो आपकी सदा से कृपा के पात्र रहे हैं जिन पर आपकी सदा कृपा बनी रही है ऐसे आपके प्यारे पुत्रों को विद्या, स्वर्ण, रजत, हीरे, मोती आदि धन प्रदान करें, क्योंकि आप महा समर्थ और शरणागतों के सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाले हैं, हम भी आपकी शरण में आये हैं, इसलिए आप सबके स्वामी हमको पूर्ण धनी बनाओ, जिससे हम किसी पदार्थ की न्यूनता से कभी दुःखी वा पराधीन न होवें, किन्तु सदा सुखी हुए आपके ध्यान में तत्पर रहें ।
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