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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अया॑मि ते॒ नम॑उक्तिं जुषस्व॒ ऋता॑व॒स्तुभ्यं॒ चेत॑ते सहस्वः। वि॒द्वाँ आ व॑क्षि वि॒दुषो॒ नि ष॑त्सि॒ मध्य॒ आ ब॒र्हिरू॒तये॑ यजत्र॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अया॑मि । ते॒ । नमः॑ऽउक्ति॑म् । जु॒ष॒स्व॒ । ऋत॑ऽवः । तुभ्य॑म् । चेत॑ते । स॒ह॒स्वः॒ । वि॒द्वान् । आ । व॒क्षि॒ । वि॒दुषः॑ । नि । ष॒त्सि॒ । मध्ये॑ । आ । ब॒र्हिः । ऊ॒तये॑ । य॒ज॒त्र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयामि ते नमउक्तिं जुषस्व ऋतावस्तुभ्यं चेतते सहस्वः। विद्वाँ आ वक्षि विदुषो नि षत्सि मध्य आ बर्हिरूतये यजत्र॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयामि। ते। नमःऽउक्तिम्। जुषस्व। ऋतऽवः। तुभ्यम्। चेतते। सहस्वः। विद्वान्। आ। वक्षि। विदुषः। नि। षत्सि। मध्ये। आ। बर्हिः। ऊतये। यजत्र॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाध्ययनाध्यापनविषयमाह।

    अन्वयः

    हे ऋतावोऽहं ते नम उक्तिमयामि तां त्वं जुषस्व। हे सहस्वो यो विद्वाँस्त्वं विदुष आ वक्षि तेन त्वया सहाऽहं विदुषोऽयामि। हे यजत्र यस्त्वमूतये बर्हिर्मध्य आनिषत्सि तस्मै चेतते तुभ्यं नमउक्तिं विदधामि ॥२॥

    पदार्थः

    (अयामि) प्राप्नोमि (ते) तव (नमउक्तिम्) नमसां नमस्काराणां वचनम् (जुषस्व) सेवस्व (ऋतावः) सत्यप्रकाशक (तुभ्यम्) (चेतते) प्रज्ञापकाय (सहस्वः) बहुबलयुक्त सकलविद्याविद्वा (विद्वान्) (आ) समन्तात् (वक्षि) वदसि (विदुषः) विपश्चितः (नि) निश्चितम् (सत्सि) निषीदसि (मध्ये) (आ) (बर्हिः) अन्तरिक्षस्य (उतये) रक्षणाद्याय (यजत्र) सङ्गन्तः ॥२॥

    भावार्थः

    यथा विद्यार्थिनो नमस्कारादिसेवयाऽध्यापकान् प्रसादयेयुस्तथाऽध्यापकाः सुशिक्षादानेन विद्यार्थिनः सन्तोषयेयुः ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब पढ़ने-पढ़ाने रूप विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (ऋतावः) सत्यप्रकाशकशील ! मैं (ते) आपके (नमउक्तिम्) नमस्कारों के वचन को (अयामि) प्राप्त होता हूँ (जुषस्व) उसका आप आदरसहित ग्रहण कीजिये। हे (सहस्वः) अतिबलयुक्त वा संपूर्ण विद्या जाननेवाले जो (विद्वान्) विद्वान् ! आप (विदुषः) विद्वानों को (आ) (वक्षि) सबप्रकार उपदेश देते हो, ऐसे आपके साथ विद्वानों को प्राप्त होता हूँ। हे (यजत्र) पूजन करने योग्य ! जो आप (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (बर्हिः) अन्तरिक्ष के (मध्ये) मध्य में (आ) (नि) अच्छे प्रकार निश्चित (सत्सि) विराजो उस (चेतते) बोध देनेवाले (तुभ्यम्) आपके लिये नमस्काररूप वचन करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे विद्यार्थी लोग नमस्कार आदि सेवा से अध्यापकों को प्रसन्न करें, वैसे अध्यापक लोग उत्तमशिक्षारूप विद्यादान से विद्यार्थियों को प्रसन्न सन्तुष्ट करें ॥२॥

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    विषय

    ॠत + सहस् (ऋताव: सहस्व:)

    पदार्थ

    [१] हे (ऋताव:) = ऋतवाले प्रभो ! (ते) = आपके लिए (नमः उक्तिम्) = नमस्कार वचन को (अयामि) = [प्रेरयामि-उच्चारयामि] उच्चरित करता हूँ। वह नमस्कार वचन (जुषस्व) = आपको प्रिय हो। (चेतते) = ज्ञान को देनेवाले (तुभ्यम्) = आपके लिए मैं इस वचन का उच्चारण करता हूँ । हे (सहस्वः) = शक्तिमान् प्रभो ! वह वचन आपकी प्रीति का कारण बने। [२] (विद्वान्) = सर्वज्ञ आप (विदुष:) = ज्ञानी पुरुषों को (आवक्षि) = हमें प्राप्त कराइए। इन ज्ञानियों के सम्पर्क में रहते हुए हम अपने ज्ञान को बढ़ानेवाले हों। हे (यजत्र) = पूज्य प्रभो! आप (ऊतये) = हमारे रक्षण के लिए (बर्हिः मध्ये) = इस वासना-शून्य हृदय के मध्य में (आनिषत्सि) = सर्वथा आसीन होइए। हृदयस्थ आप से प्रेरणा प्राप्त करके हम सदा सदाचार के मार्ग में आगे बढ़ें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के प्रति नमनवाले होकर 'ऋत और सहस्' को प्राप्त करें। विद्वानों के सम्पर्क में ज्ञानवृद्धि करें। हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा सुनें ।

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    विषय

    विद्वान् गुरु और परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (ऋतवः) सत्यज्ञान वेद और धर्म व्यवस्था के जानने हारे ! मैं (ते अयामि) तेरे समीप तेरी शरण आता हूं। और (ते) तेरे सत्कार के लिये हे (सहस्वः) भीतरी और बाह्य शत्रुओं को पराजित करने वाले, ‘सहः’ शक्ति के स्वामिन् ! मैं (चेतते ते) स्वयं ज्ञानवान् और अन्यों को सद्विद्या और सन्मार्ग का ज्ञान कराने हारे तेरे आदर के लिये (नमः उक्तिम् अयामि) आदरसूचक ‘नमः’ ऐसा वचन प्रस्तुत करता हूं । (जुषस्व) तू उसको प्रेमपूर्वक स्वीकार कर । तू स्वयं (विद्वान्) विद्यावान् होकर (विदुषः) अन्य विद्वानों को भी (आ वक्षि) धारण करता वा उनके अभिमुख ज्ञान का प्रवचन करता है। हे (यजत्र) पूजनीय ! हे विद्या के देने हारे ! हे दानशील ! तू (ऊतये) ज्ञान प्रदान करने के लिये (मध्ये) हमारे बीच में (बर्हिः) वृद्धियुक्त उत्तम आसन पर (आ निषत्सि) सबके समक्ष आदरपूर्वक विराज। (२) इसी प्रकार राजा भी (ऊतये) रक्षा के लिये (बर्हिः) बृहत् राष्ट्र के प्रजाजन पर सब के बीच में विराजे (३) परमात्मा को हम नमस्कार करें। वह मी मूल प्रधान प्रकृति ‘ऋत’ का स्वामी, ज्ञानी, सर्वशक्तिमान् है। वह सब के बीच में व्यापक होकर विराजता और रक्षा करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पङ्किः॥ सप्तर्चं सूक्तम॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे विद्यार्थी अध्यापकांना नमस्कार करून सेवा करतात व प्रसन्न ठेवतात तसे अध्यापक लोकांनी उत्तम शिक्षणरूपी विद्यादानाने विद्यार्थ्यांना प्रसन्न व संतुष्ट ठेवावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O scholar of the laws of nature and natural energy, lord of knowledge, power, courage and patience, I come to you, accept my homage and salutations. Venerable yajaka, you speak to the scholars, and you reach and stay in the midst of the skies for the sake of protection and progress.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of reading and teaching is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O illuminator of truth! I offer to you my reverential speech. Please accept it lovingly. O mighty ! you teach even enlightened persons, with whom I approach the scholars. O unifier! be seated among the people on an elevated seat for their protection. All this I utter to you, who are giver of knowledge words of reverence.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As pupils should please their teachers with salutations and other respectful acts, so the teachers also should satisfy the students by imparting to them good education.

    Foot Notes

    (सहस्व:) बहुबलयुक्तः सकल विद्याविद्वा। = Mighty, very powerful. (चेतते) प्रज्ञापकाय। = For the teacher.

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