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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    व॒यं ते॑ अ॒द्य र॑रि॒मा हि काम॑मुत्ता॒नह॑स्ता॒ नम॑सोप॒सद्य॑। यजि॑ष्ठेन॒ मन॑सा यक्षि दे॒वानस्रे॑धता॒ मन्म॑ना॒ विप्रो॑ अग्ने॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । ते॒ । अ॒द्य । र॒रि॒म॒ । हि । काम॑म् । उ॒त्ता॒नऽह॑स्ताः । नम॑सा । उ॒प॒ऽसद्य॑ । यजि॑ष्ठेन । मन॑सा । य॒क्षि॒ । दे॒वान् । अस्रे॑धता । मन्म॑ना । विप्रः॑ । अ॒ग्ने॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयं ते अद्य ररिमा हि काममुत्तानहस्ता नमसोपसद्य। यजिष्ठेन मनसा यक्षि देवानस्रेधता मन्मना विप्रो अग्ने॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम्। ते। अद्य। ररिम। हि। कामम्। उत्तानऽहस्ताः। नमसा। उपऽसद्य। यजिष्ठेन। मनसा। यक्षि। देवान्। अस्रेधता। मन्मना। विप्रः। अग्ने॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 14; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरध्यापकाध्येतृविषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने हि विप्रस्त्वं यजिष्ठेनास्रेधता मन्मना मनसा अस्मान् देवान् यक्षि तस्मादद्य उत्तानहस्ता वयं त्वां नमसोपसद्य ते कामं ररिम ॥५॥

    पदार्थः

    (वयम्) (ते) (अद्य) इदानीम् (ररिम) दद्याम (हि) यतः (कामम्) (उत्तानहस्ताः) उत्थापितकराः (नमसा) सत्कारेणान्नादिना वा (उप, सद्य) समीपं प्राप्य (यजिष्ठेन) अतिशयेन सङ्गतेन (मनसा) चित्तेन (यक्षि) सङ्गच्छसि (देवान्) विदुषः (अस्रेधता) अक्षीणेन (मन्मना) विज्ञानवता (विप्रः) मेधावी (अग्ने) विद्वन् ॥५॥

    भावार्थः

    यथाऽध्यापकाः शिष्याणां विद्येच्छाः पूरयन्ति तथैव विद्यार्थिनोऽप्यध्यापकानामभीष्टानि पूरयन्तु सर्वदा सर्वे विद्यादिशुभगुणानां दातारः स्युः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर अध्यापक और अध्येता के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! (हि) जिससे (विप्रः) बुद्धिमान् आप (यजिष्ठेन) अत्यन्त संलग्न और (अस्रेधता) नहीं खिन्न हुए (मन्मना) विज्ञान से युक्त (मनसा) चित्त से हम (देवान्) विद्वानों का (यक्षि) सङ्ग कीजिये उससे (अद्य) इस समय (उत्तानहस्ताः) हाथ उठाये हुए (वयम्) हम लोग आपको (नमसा) सत्कार से वा अन्न आदि से (उप, सद्य) समीप प्राप्त हो के (ते) आपके (कामम्) मनोरथ को (ररिम) देवें ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे अध्यापक लोग शिष्यों की विद्याविषयिणी इच्छा को सन्तृप्त करते हैं, वैसे ही विद्यार्थी जन भी अध्यापकों के मनोरथों को सफल करें और सब काल में संपूर्ण पुरुष विद्या आदि शुभगुणों के देनेवाले होवें ॥५॥

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    विषय

    उत्तानहस्त

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (वयम्) = हम (अद्य) = आज (ते) = तेरे प्रति (कामम्) = अपनी इच्छा को (ररिमा हि) = दे ही डालते हैं। हम अपनी इच्छा को आपकी इच्छा में मिला देते हैं। (उत्तानहस्ताः) = ऊपर फैलाए हुए हाथोंवाले हम[उत्तान = elevated], हाथ पर हाथ रखकर जो बैठ नहीं गए, अपितु कार्यों में लगे हुए हैं, ऐसे हम (नमसा उपसद्य) = नमन द्वारा आपकी उपासना करते हुए अपनी इच्छा को आपकी इच्छा में मिला देते हैं । [१] प्रभु अपने इस उपासक से कहते हैं कि (यजिष्ठेन) = अधिक से अधिक यज्ञ की वृत्तिवाले मनसा मन से (देवान् यक्षि) = तू दिव्यगुणों को अपने साथ संगत कर। हम यदि यज्ञादि कर्मों में लगते हैं तो उससे हमारे में दिव्यता का वर्धन होता है। तथा (अस्त्रेधता) = न क्षीण होते हुए (मन्मना) = ज्ञान से तू (विप्रः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाला बन । जितना अधिक ज्ञान में प्रवृत्त होंगे, उतना ही हमारा जीवन अधिकाधिक पवित्र होता चलेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपनी इच्छा को परमात्मा की इच्छा में मिला दें। हाथ पर हाथ रखकर बैठ न जाएँ। यज्ञिय-वृत्तिवाला हमारा मन हो। हमारा ज्ञान अक्षीण हो ।

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    विषय

    दान-प्रतिदान, विद्वत्सेवा और ज्ञानार्जन।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! ज्ञानवन् ! विद्वन् ! (अद्य) आज (वयम्) हम (उत्तान-हस्ताः) हाथों को ऊपर की ओर बढ़ाये हुए (नमसा) नमस्कार आदर भाव और अन्नादि सहित (उपसद्य) तेरे समीप आकर, शान्ति से आचार्य के समीप शिष्य के समान बैठकर (ते कामम्) तेरे अभिलाषा योग्य पदार्थ को (ररिम) प्रदान करें। और तू (विप्रः) विविध विद्याओं, ऐश्वर्यों और बलों से पूर्ण है। तू (अस्त्रेधता) कभी न क्षीण होने वाले और दूसरे के प्रति हिंसा के भाव से रहित (मन्मना) ज्ञान और विचार से (यजिष्ठन) दान भाव और मैत्रीभाव से युक्त (मनसा) चित्त से (देवान्) अत्यन्त अधिक विद्या और ऐश्वर्य की कामना करने वालों को (यक्षि) विद्यादि दान कर, उनसे सत्संग कर, स्नेह कर और (देवान् यक्षि) विद्वानों की पूजा कर। सेनापति पक्ष में—देव = विजिगीषु सैनिकगण अन्य राजगण।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पङ्किः॥ सप्तर्चं सूक्तम॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे अध्यापक लोक शिष्यांची विद्येविषयीची इच्छा पूर्ण करतात तसे विद्यार्थ्यांनीही अध्यापकांचे मनोरथ सफल करावेत. नेहमी सर्वांनी विद्या इत्यादी शुभ गुण देणारे बनावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, vibrant master of knowledge, with hands raised in respect and bearing cherished gifts of homage, we come and offer our reverence and adorations to you since you join the brilliant leaders and scholars of humanity with your reverential mind and share your unerring knowledge of arts and sciences with pleasure with all of them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the teachers and pupils are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned leader shining like the fire ! you are wise and unifier of truthful persons, with harmonious, undecaying and enlightened mind. Therefore, approaching you with raised hands, and salutations and good food, we try to fulfil your noble desires.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The teachers fulfil the desires of their students with regard to the acquisition of knowledge. In the same manner, it is the duty of the pupils also to fulfil the noble desires of their teachers. All teachers should always inculcate true knowledge and other good virtues among their pupils.

    Foot Notes

    (ररिम) दद्याम = Give. (नमसा) सत्कारेणात्रादिना वा । नम इति अन्ननाम (N. G. 2, 7 )। = With salutations, reverential treatment or good food etc. (असोधता) अक्षीणेन । अरत्रेधता स्निधि: क्षयार्थः तत्पुरुषेऽति नञ्, स्वरः। = Undecaying.

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