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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 75/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अमहीयुः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सु॒ष्टुभो॑ वां वृषण्वसू॒ रथे॒ वाणी॒च्याहि॑ता। उ॒त वां॑ ककु॒हो मृ॒गः पृक्षः॑ कृणोति वापु॒षो माध्वी॒ मम॑ श्रुतं॒ हव॑म् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽस्तुभः॑ । वा॒म् । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । रथे॑ । वाणी॑ची । आहि॑ता । उ॒त । वा॒म् । क॒कु॒हः । मृ॒गः । पृक्षः॑ । कृ॒णो॒ति॒ । वा॒पु॒षः । माध्वी॒ इति॑ । मम॑ । श्रुत॑म् । हव॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुष्टुभो वां वृषण्वसू रथे वाणीच्याहिता। उत वां ककुहो मृगः पृक्षः कृणोति वापुषो माध्वी मम श्रुतं हवम् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽस्तुभः। वाम्। वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू। रथे। वाणीची। आऽहिता। उत। वाम्। ककुहः। मृगः। पृक्षः। कृणोति। वापुषः। माध्वी इति। मम। श्रुतम्। हवम् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 75; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे वृषण्वसू माध्वी अश्विनौ ! यः सुष्टुभो वां रथं रमते येन वाणीच्याहितोत यो वां ककुहो मृगो वापुषः पृक्षः कृणोति तस्य मम च हवं श्रुतम् ॥४॥

    पदार्थः

    (सुष्टुभः) शोभनस्तोता (वाम्) (वृषण्वसू) यौ वृषणौ बलिष्ठान् वासयतस्तौ (रथे) (वाणीची) वाक् (आहिता) स्थापिता (उत) (वाम्) (ककुहः) महान् (मृगः) यो मार्ष्टि सः (पृक्षः) अन्नम्। पृक्ष इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (कृणोति) (वापुषः) वपुषि भवः (माध्वी) (मम) (श्रुतम्) (हवम्) ॥४॥

    भावार्थः

    स एव महान् भवति यो विदुषां सकाशाद्विद्यां सुशीलतां गृह्णाति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वृषण्वसू) बलिष्ठों को बसानेवाले (माध्वी) मधुर स्वभाववाले विद्यायुक्त जनो ! जो (सुष्टुभः) उत्तम स्तुति करनेवाला (वाम्) आप दोनों के (रथे) रथ में रमता है जिससे (वाणीची) वाणी (आहिता) स्थापित की गई (उत) और जो (वाम्) दोनों का (ककुहः) बड़ा (मृगः) शुद्ध करनेवाला और (वापुषः) शरीर में हुआ (पृक्षः) अन्न को (कृणोति) करता है उसके और (मम) मेरे (हवम्) आह्वान को (श्रुतम्) सुनिये ॥४॥

    भावार्थ

    वही बड़ा होता है, जो विद्वानों के समीप से विद्या और सुशीलता को ग्रहण करता है ॥४॥

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    विषय

    दो अश्वी । विद्वान् जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे (वृषण्वसू ) मेघवत् ज्ञान वर्षण करने वाले आचार्य के अधीन व्रत पालनार्थ अन्तेवासी होकर रहने वाले स्त्री पुरुषो ! (सु-स्तुभः ) उत्तम उपदेष्टा की ( वाणीची ) वाणी ( वां रथे ) आप दोनों के रमणीय आत्मा में ( आ-हिता ) अच्छी प्रकार धारण की जावे । ( उत ) और ( ककुहः ) महान् ( मृगः ) आत्मा, आचरणादि का शोधन करने वाला गुरु (वापुषः) शरीर देने वाले पिता के समान ( वां ) आप दोनों का (पृक्षः) सम्पर्क जोड़ने वाले अन्नवत् ज्ञान का ( कृणोति ) उपदेश करता है । हे आप दोनों (माध्वी ) मधु, अन्नवत् ज्ञान संग्रही होकर ( मम हवं श्रुतम् ) मेरा वचनोपदेश श्रवण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अवस्युरात्रेय ऋषि: ।। अश्विनौ देवते ॥ छन्द: – १, ३ पंक्ति: । २, ४, ६, ७, ८ निचृत्पंक्तिः । ५ स्वराट् पंक्तिः । ९ विराट् पंक्तिः ।। नवर्चं सुक्तम् ।।

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    विषय

    ककुहः- मृगः-वापुषः

    पदार्थ

    [१] हे (वृषण्वसू) = वसुओं को जीवनधनों का वर्षण करनेवाले, प्राणापानो ! (सुष्टुभः) = उत्तमता से स्तवन करनेवाले मेरी (वाणीची) = स्तुति वाणी (वां रथेः) = आपके इस शरीर-रथ में (आहिता) = स्थापित होती है। अर्थात् मैं आपका आराधन करता हूँ। आपने ही मुझे सब वसुओं को प्राप्त कराना है। आपके द्वारा ही यह शरीर-रथ सुन्दर बनता है। मेरी वाणी आपके गुणों का ही स्तवन करती है। [२] (उत) = और (वाम्) = आपका यह स्तोता (ककुहः) = उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होनेवाला बनता है। (मृगः) = यह अपने गुण-दोषों का अन्वेषक होता है। (पृक्षः कृणोति) = हविरूप अन्नों को करनेवाला होता है, अर्थात् यज्ञशील बनता है। (वापुषः) = उत्तम शरीरवाला होता है । सो (माध्वी) = मेरे जीवन को मधुर बनानेवाले आप (मम) = मेरी (हवं श्रुतम्) = पुकार को सुनो। मैं आपका आराधक बनूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा सब वसुओं की प्राप्ति से यह शरीर-रथ उत्तम बनता है। हम श्रेष्ठ, आत्मान्वेषी, यज्ञशील व उत्तम शरीरवाले होते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो विद्वानांकडून विद्या व सुशीलता शिकतो तोच मोठा असतो. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    prepares the offering of homage for you. O creators and givers of the sweets of life, listen to my prayer and praise.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O lovers of the mightily! (souls. Ed.) you establish them in due places or positions. ○ men of sweet temperament! your good admirers sit with you in the same car and utter sweet and true words. To your great associates you are purifiers. You prepare good food for yourself which nourishes your body. Listen to mine and their calls.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He only (really. Ed.) is great who acquires knowledge and good character and conduct by sitting at the feet of or by the association of the enlightened men.

    Foot Notes

    (मृग:) यो मार्ष्टि सः। (मृगः) मृजूष-शुद्धौ(अदा०) Who purifies. (पृक्ष:) अन्नम्। पृक्ष इत्यन्ननाम (NG 2, 7)। = Food grains. (ककुहः) महान् । ककुह इति महन्नाम (NG 2, 7) = Great.

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