ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 2/ मन्त्र 10
गो॒षा इ॑न्दो नृ॒षा अ॑स्यश्व॒सा वा॑ज॒सा उ॒त । आ॒त्मा य॒ज्ञस्य॑ पू॒र्व्यः ॥
स्वर सहित पद पाठगो॒ऽसाः । इ॒न्दो॒ इति॑ । नृ॒ऽसाः । अ॒सि॒ । अ॒श्व॒ऽसाः । वा॒ज॒ऽसाः । उ॒त । आ॒त्मा । य॒ज्ञस्य॑ । पू॒र्व्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
गोषा इन्दो नृषा अस्यश्वसा वाजसा उत । आत्मा यज्ञस्य पूर्व्यः ॥
स्वर रहित पद पाठगोऽसाः । इन्दो इति । नृऽसाः । असि । अश्वऽसाः । वाजऽसाः । उत । आत्मा । यज्ञस्य । पूर्व्यः ॥ ९.२.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे परमैश्वर्य्ययुक्त परमात्मन् ! भवान् (यज्ञस्य) समस्तस्य यज्ञस्य (पूर्व्यः) आदिकारणमस्ति। भवान् अस्मभ्यम् (गोषाः) गवाम् (अश्वसाः) अश्वानाम् (वाजसाः) अन्नानाम् (नृषाः) मनुष्याणाम् (उत) किञ्च (आत्मा) आत्मबलस्य दाता (असि) असि ॥१०॥ द्वितीयसूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे परमैश्वर्य्ययुक्त परमात्मन् ! आप (यज्ञस्य) सम्पूर्ण यज्ञों के (पूर्व्यः) आदि कारण हैं। आप हमको (गोषाः) गायें (अश्वसाः) घोड़े (वाजसाः) अन्न (नृषाः) मनुष्य (उत) और (आत्मा) आत्मिक बल इन सब वस्तुओं के देनेवाले (असि) हो ॥१०॥
भावार्थ
हे परमात्मन्। आपकी कृपा से अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों फलों की प्राप्ति होती है। जिन पर आप कृपालु होते हैं, उनको हृष्ट-पुष्ट गौ और बलीवर्द तथा उत्तमोत्तम घोड़े एव नाना प्रकार की सेनायें इत्यादि अभ्युदय के सब साधन देते हैं और जिन पर आपकी कृपा होती है, उन्हीं को आत्मिक बल देकर यम नियमों द्वारा संयमी बनाकर निःश्रेयस प्रदान करते हैं ॥१०॥१९॥ दूसरा सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
'जीवन यज्ञ का आत्मा' सोम
पदार्थ
[१] हे (इन्दो) = सोम ! तू (गोषाः असि) = हमारे लिये उत्तम ज्ञानेन्द्रियों को देनेवाला है। (नृषाः) = उत्तम नर [=उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाली] सन्तानों को प्राप्त करानेवाला है। जहाँ तू (अश्वसाः) = उत्तम कर्मेन्द्रियों को देनेवाला है, (उत) = और वहां (वाजसाः) = शक्ति को भी देनेवाला है । [२] वस्तुतः तू (यज्ञस्य) = हमारे जीवन यज्ञ का (आत्मा) = आत्मा है। जीवन यज्ञ का प्राणन तेरे से ही होता है। तेरे अभाव में यह यज्ञ मृत हो जाता है। तू (पूर्व्यः) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम [क] हमारी इन्द्रियों को सशक्त बनाता है, [ख] उत्तम सन्तानों का कारण बनता है तथा [ग] जीवनयज्ञ का उत्तमता से प्रणयन करता है । इस सूक्त की तरह अगले सूक्त में भी सोमरक्षण का महत्त्व प्रतिपादित हुआ है । सोमरक्षण से जीवन में सुख का [शुनं] निर्माण करनेवाला 'शुनः शेप' अगले सूक्त का ऋषि है। यह कहता है कि-
विषय
ऐश्वर्यवान् प्रभु से प्रार्थनाएं, स्तुतिएं।
भावार्थ
हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन् ! तू (यज्ञस्य) पूज्य पद के लिये (पूर्व्यः) सब गुणों से पूर्ण, सर्वप्रथम पूजने योग्य, (आत्मा) आत्मा के समान प्रिय है। और तू ही (गोषाः) गौवों, भूमियों, वाणियों का दाता, सेवन करने वाला, (नृषाः असि) मनुष्यों का स्वामी (अश्वसाः वाजसाः) अश्वों, बलों, ऐश्वर्यों और ज्ञानों का भोक्ता राष्ट्र के आत्मा के तुल्य (असि) है। इत्येकोनविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, ४, ६ निचृद् गायत्री। २, ३, ५, ७―९ गायत्री। १० विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of peace and glory, you are the very soul of yajna, original and eternal since you are the foremost fount of all giving. You are the giver of cows, lands and the voices of wisdom and culture. You are the giver of children and grand children over ages of humanity. You are the giver of horses and all advancement and progress in achievements. You are the giver of food, sustenance and all powers and victories of success. Pray be that for us all time.
मराठी (1)
भावार्थ
हे परमेश्वरा! तुझ्या कृपेने अभ्युदय व नि:श्रेयस दोन्ही फळांची प्राप्ती होते ज्यांच्यावर तुझी कृपा होते त्यांना हृष्ट-पुष्ट गाई व बैल तसेच उत्तमोत्तम घोडे आणि नाना प्रकारच्या सेना इत्यादी अभ्युदयाची सर्व साधने देतोस व ज्यांच्यावर तुझी कृपा होते त्यांनाच आत्मिक बल देऊन यम-नियमांद्वारे संयमी बनवून नि:श्रेयस प्रदान करतोस. ॥१०॥
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