ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
स॒मु॒द्रो अ॒प्सु मा॑मृजे विष्ट॒म्भो ध॒रुणो॑ दि॒वः । सोम॑: प॒वित्रे॑ अस्म॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रः । अ॒प्ऽसु । म॒मृ॒जे॒ । वि॒ष्ट॒म्भः । ध॒रुणः॑ । दि॒वः । सोमः॑ । प॒वित्रे॑ । अ॒स्म॒ऽयुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणो दिवः । सोम: पवित्रे अस्मयुः ॥
स्वर रहित पद पाठसमुद्रः । अप्ऽसु । ममृजे । विष्टम्भः । धरुणः । दिवः । सोमः । पवित्रे । अस्मऽयुः ॥ ९.२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! त्वम् (समुद्रः) समुद्ररूपोऽसि “सम्यग् द्रवन्त्यापो यस्मात्स समुद्रः=यस्य शक्त्या जलादिपदार्थजातानि सूक्ष्मतां यान्ति तस्य नाम समुद्रः” एवं परमात्मा समुद्रः किञ्च यः (अप्सु) सूक्ष्मभावेषु (ममृजे) शुद्धसत्तया विराजते तथा यः (विष्टम्भः) सर्वस्तम्भनः (दिवः) द्युलोकस्य (धरुणः) धर्ता (सोमः) सौम्यः (अस्मयुः) सर्वप्रियोऽस्ति सः (पवित्रे) सर्वशुभकार्य्येषु पूज्यः ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! आप (समुद्रः) समुद्ररूप हैं “सम्यग् द्रवन्ति आपो यस्मात् स समुद्रः “जिसकी शक्ति से जलादि सब पदार्थ सूक्ष्म भाव को प्राप्त हो जाते हैं, उसका नाम समुद्र है। इस प्रकार परमात्मा का नाम समुद्र है और (अप्सु) सूक्ष्म पदार्थों में (ममृजे) जो अपनी शुद्ध सत्ता से विराजमान है तथा जो सबका (विष्टम्भः) थामनेवाला (दिवः) द्युलोक का (धरुणः) धारण करनेवाला (सोमः) सौम्यस्वभाव और (अस्मयुः) सर्वप्रिय है, वही परमात्मा (पवित्रे) सम्पूर्ण शुभ काम में पूजनीय है ॥५॥
भावार्थ
परमात्मा सबको प्यार करता है, वह सर्वाधिकरण सर्वाश्रय तथा सर्वनियन्ता है ॥५॥१८॥
विषय
कर्मशील का शुद्ध जीवन
पदार्थ
[१] (समुद्रः) = [स+मुद्] मनःप्रसाद के साथ रहनेवाला व्यक्ति (अप्सु) = कर्मों में (मामृजे) = अत्यन्त शुद्ध किया जाता है, कर्मों में लगे रहने से उसका जीवन पवित्र बनता है। (पवित्रे) = पवित्र हृदय के होने पर (सोमः) = यह सोम [वीर्य] (अस्मयुः) = हमारे साथ सम्पर्कवाला होता है [यु मिश्रणे ] । संक्षेप में, हम कर्मों में लगे रहें तो हमारा हृदय पवित्र बना रहता है। हृदय के पवित्र होने पर सोम हमारे में सुरक्षित रहता है। [२] यह सुरक्षित सोम (विष्टम्भः) = हमारा विशेषरूप से स्तभन [धारण] करता है, हमारी शक्तियों को क्षीण नहीं होने देता तथा यह सोम (दिव: धरुणः) = ज्ञान का धारण करनेवाला होता है। सोम में ही तो ज्ञानाग्नि का ईंधन बनना है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम कर्मों में लगे रहकर अपने जीवन को शुद्ध बनाते हैं । उस समय सोम हमारे में सुरक्षित रहता है। यह हमारी शक्तियों को स्थिर रखता है तथा हमारे ज्ञान का वर्धन करता है ।
विषय
समुद्रवत् अध्यक्ष का वर्णन।
भावार्थ
(समुद्रः) समुद्र के समान सर्वाश्रय, (दिवः विष्टम्भः) भूमि का विशेष स्तम्भवत् आश्रय, और (धरुणः) धारण करने वाला (सोमः) सोम्य स्वभाव का वीर्यवान् पुरुष (अस्मयुः) हम प्रजाओं को चाहने वाला होकर (अप्सु) जलों में स्नात पुरुष के समान (पवित्रे) पवित्र राज्य-कार्य में (मामृजे) अभिषेक किया जाय। इत्यष्टादशो वर्गः॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:- १, ४, ६ निचृद् गायत्री। २, ३, ५, ७―९ गायत्री। १० विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The lord is Samudra, universal space, from which everything follows. He is integrated with our streams of earthly waters, self-sustained and all sustaining, holder and sustainer of the regions of heavenly light. The lord giver of peace and bliss is ours, with us, in the holy business of our life and karma.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर सर्वांना प्रेम करतो. तो सर्वाधिकरण (सर्वात मुख्य) सर्वाश्रय व सर्वनियंता आहे. ॥५॥
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