ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
इन्द्र॑स्य सोम॒ पव॑मान ऊ॒र्मिणा॑ तवि॒ष्यमा॑णो ज॒ठरे॒ष्वा वि॑श । प्र ण॑: पिन्व वि॒द्युद॒भ्रेव॒ रोद॑सी धि॒या न वाजाँ॒ उप॑ मासि॒ शश्व॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य । सो॒म॒ । पव॑मानः । ऊ॒र्मिणा॑ । त॒वि॒ष्यमा॑णः । ज॒ठरे॑षु । आ । वि॒श॒ । प्र । नः॒ । पि॒न्व॒ । वि॒ऽद्युत् । अ॒भ्राऽइ॑व । रोद॑सी॒ इति॑ । धि॒या । न । वाजा॑न् । उप॑ । मा॒सि॒ । शश्व॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य सोम पवमान ऊर्मिणा तविष्यमाणो जठरेष्वा विश । प्र ण: पिन्व विद्युदभ्रेव रोदसी धिया न वाजाँ उप मासि शश्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य । सोम । पवमानः । ऊर्मिणा । तविष्यमाणः । जठरेषु । आ । विश । प्र । नः । पिन्व । विऽद्युत् । अभ्राऽइव । रोदसी इति । धिया । न । वाजान् । उप । मासि । शश्वतः ॥ ९.७६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 76; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! (पवमानः) सर्वान् पवित्रयँस्त्वं (ऊर्मिणा) स्वज्ञानतरङ्गैः (तविष्यमाणः) सर्वस्याभ्युदयमिच्छन् (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (जठरेषु) अन्तःकरणेषु (आविश) आगत्य विराजस्व। अथ च (विद्युत्) विद्युत् (अभ्रेव) यथा मेघान् प्रकाशयति तथा (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ वर्द्धयति। तथा (नः) अस्मान् (प्रपिन्व) वर्द्धय। अथ च (धिया) कर्मभिः (वाजान्) बलानि (न) साम्प्रतं (शश्वतः) निरन्तरम् (उपमासि) निर्मिमीषे ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (पवमानः) सबको पवित्र करते हुए आप तथा (ऊर्मिणा) अपनी ज्ञान की लहरों से (तविष्यमाणः) सबकी वृद्धि चाहते हुए (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के (जठरेषु) अन्तःकरणों में (आविश) आकर विराजमान हों और (विद्युत्) बिजली (अभ्रेव) जिस प्रकार मेघों को प्रकाशित करती है (रोदसी) और द्युलोक और पृथिवीलोक को वृद्धियुक्त करती है, उस प्रकार (नः) हमको आप (प्रपिन्व) वृद्धियुक्त करें और (धिया) कर्मों के द्वारा (वाजान्) बलों को (शश्वतः न) संप्रति निरन्तर (उपमासि) निर्माण करते हैं ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा सत्कर्मों द्वारा मनुष्यों को इस प्रकार प्रदीप्त करता है, जिस प्रकार बिजली मेघमण्डलों और द्यु तथा पृथिवीलोक को प्रदीप्त करती है, इसलिये उसकी ज्ञानरूपी दीप्ति का लाभ करने के लिये सदैव उद्यत रहना चाहिये ॥३॥
विषय
जगद्-उत्पादक का वर्णन।
भावार्थ
हे (सोम) सर्व जगत् के उत्पादक तू (पवमानः) पवित्र होता हुआ, सब को व्यापता हुआ (ऊर्मिणा) अपने सर्वोच्च बल द्वारा (तविष्यमाणः) बलकार्य सम्पादन करता हुआ (जठरेषु) पेटों में अन्न के तुल्य, सब लोकों के बीच में मुख्य बलप्रद होकर (आ विश) प्रवेश कर। (विद्युत् अभ्रा-इव) जिस प्रकार बिजुली मेघों का दोहन करती है, उनसे जल बरसाती है तू (नः) हमारे सुखार्थ (रोदसी प्र पिन्व) भूमि और आकाश दोनों से सुखप्रद पदार्थ प्रदान कर। (न) और तू ही (धिया) अपनी बुद्धि और कर्मकौशल से (शश्वतः वाजान्) बहुत से नित्य अन्नों, ज्ञानों और ऐश्वर्यो को (उप मासि) बनाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कविर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ त्रिष्टुप्। २ विराड् जगती। ३, ५ निचृज्जगती। ४ पादनिचृज्जगती॥
विषय
बुद्धि व बल
पदार्थ
[१] हे सोम वीर्यशक्ते ! तू (उर्मिणा) = प्रकाश के द्वारा (पवमानः) = हमारे जीवनों को पवित्र करता हुआ (तविष्यमाणः) = बल का वर्धन करता हुआ (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (जठरेषु) = उदरों में, अंगमध्यों में (आविश) = प्रविष्ट होनेवाला हो। [२] तू (नः) = हमारे (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (प्रपिन्व) = प्रकर्षेण वर्धन करनेवाला हो। इस प्रकार वर्धन करनेवाला हो (इव) = जैसे कि (विद्युत्) = बिजली (अभ्रा) = बादलों के वर्धन का कारण होती है। (न) = और [ न इति चार्थे] हे सोम ! तू (धिया न) = बुद्धि के साथ (शश्वतः) = प्लुत गतिवाले (वाजान्) = बलों को (उपमासि) = निर्मित करता है । हमारे अन्दर बुद्धि व बल का तू स्थापन करता है। 'शश्वत:' शब्द का अर्थ 'बहून्' [अनेक] भी है। यह सोम नानाविध बलों को हमारे अन्दर स्थापित करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारे लिये प्रकाश व बल को देनेवाला है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, vigorous spirit of joyous power and generosity, pure, purifying and constantly flowing, brilliant, blazing and advancing in strength, come by the stream and waves of energy and enter in the heart core of the soul. As thunder, lightning and clouds of rain shower and augment heaven and earth, pray strengthen us, and with divine intelligence, as it were, extend our food, energies, progress and victories for all time. You are the creator, you are the maker, you are the giver.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सत्कर्मांद्वारे माणसांना या प्रकारे प्रदीप्त करतो. ज्या प्रकारे विद्युत मेघमंडल व द्यु तसेच पृथ्वी लोकाला प्रदीप्त करते. त्यासाठी त्याच्या ज्ञानरूपी दीप्तीचा लाभ घेण्यासाठी सदैव तत्पर राहिले पाहिजे. ॥३॥
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