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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - यक्ष्मनाशनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
    1

    मु॒ञ्च शी॑र्ष॒क्त्या उ॒त का॒स ए॑नं॒ परु॑ष्परुरावि॒वेशा॒ यो अ॑स्य। यो अ॑भ्र॒जा वा॑त॒जा यश्च॒ शुष्मो॒ वन॒स्पती॑न्त्सचतां॒ पर्व॑तांश्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मु॒ञ्च । शी॒र्ष॒क्त्या: । उ॒त । का॒स: । ए॒न॒म् । परु॑:ऽपरु । आ॒ऽवि॒वेश॑ । य: । अ॒स्य॒ । य: । अ॒भ्र॒ऽजा: । वा॒त॒ऽजा: । य: । च॒ । शुष्म॑: । वन॒स्पती॑न् । स॒च॒ता॒म् । पर्व॑तान् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुञ्च शीर्षक्त्या उत कास एनं परुष्परुराविवेशा यो अस्य। यो अभ्रजा वातजा यश्च शुष्मो वनस्पतीन्त्सचतां पर्वतांश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मुञ्च । शीर्षक्त्या: । उत । कास: । एनम् । परु:ऽपरु । आऽविवेश । य: । अस्य । य: । अभ्रऽजा: । वातऽजा: । य: । च । शुष्म: । वनस्पतीन् । सचताम् । पर्वतान् । च ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोगनिवृत्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (एनम्) इस पुरुष को (शीर्षक्त्याः) शिर की पीड़ा से (उत) और [उस खाँसी से] (मुञ्च) छुड़ा (यः कासः) जिस खाँसी ने (अस्य) इस पुरुष के (परुःपरुः) जोड़-जोड़ में (आविवेश) घर कर लिया है। (यः) जो खाँसी (अभ्रजाः) मेघ से उत्पन्न, (वातजाः) वायु से उत्पन्न (च) और (यः) जो (शुष्मः) सूखी [होवे और जो] (वनस्पतीन्) वृक्षों से (च) और (पर्वतान्) पहाड़ों से (सचताम्) संबन्धवाली होवे ॥३॥

    भावार्थ

    खाँसी सब रोगों की माता है, जैसा कि प्रसिद्ध है “लड़ाई का घर हाँसी और रोग का घर खाँसी”। जैसे सद्वैद्य मन्त्र में कहे अनुसार मस्तक की पीड़ा और खाँसी आदि बाहिरी और भीतरी रोगों का निदान जान कर रोगी को स्वस्थ करता है, इसी प्रकार परमेश्वर वेदज्ञान से मनुष्य को दोषों से छुड़ा कर और ब्रह्मज्ञान देकर अत्यन्त सुखी करता है। इसी प्रकार राजप्रबन्ध और गृहप्रबन्ध आदि व्यवहार में विचारना चाहिये ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−मुञ्च। मुच्लॄ मोचने। मोचय। शीर्षक्त्याः। शीर्ष+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्तिन्। शीर्षं शिरः अञ्चति गच्छति व्याप्नोतीति शीर्षक्तिः, तस्याः शिरः−पीडायाः सकाशात्। उत। अपि च। कासः। हलश्च। पा० ३।३।१२१। इति कासृ शब्दकुत्सनयोः−घञ्। रोगविशेषः। कासी वा खाँसी इति भाषा। क्षवथुः। परुः-परुः। अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। इति पॄ पूर्त्तिपालनयोः−उसि। सर्वान् शरीरसन्धीन्। आ-विवेश। विश प्रवेशने-लिट्। छान्दसो दीर्घः। प्रविष्टवान्। अभ्रजा। अप्+भृ-क्त। अपो बिभर्त्तीति अभ्रं मेघः। जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति अभ्र+जनी प्रादुर्भावे-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्वम्। मेघस्य सम्बन्धाज्जातः। वातजाः। पूर्ववत्। वात+जनी-विट्। वायोर्जात उत्पन्नः कासः शुष्मः। अविसिविसिशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। इति शुष शोषे-मन् स च कित्। शोषकः, पित्तविकारादिजनितः कासः। वनस्पतीन्। १।३५।३। वनानां पतिः पाता वा वनस्पतिः। वनति सेवते अथवा वन्यते सेव्यते इति वनम्। वन सेवने, याचने, उपकारे-अच्। पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम्। पा० ६।१।१५७। इति सुडागमः। सर्ववृक्षान्। सचताम्। षच समवाये-लोट्। सचन्ताम्=सं सेव्यन्ताम्−निरु० ९।३३। समवैतु, सम्बध्नातु। पर्वतान्। भृमृदृशियजिपर्विपचि। उ० ३।११०। इति पर्व पूरणे−अतच्। शैलान् ॥

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    विषय

    सोहन सिरदर्द, खाँसी व सन्धिपीड़ा से छुटकारा

    पदार्थ

    १. हे सूर्य! (एनम्) = गतमन्त्र के अनुसार सूर्य-नमस्कार करनेवाले व हवि का सेवन करनेवाले पुरुष को (शीर्षक्त्या:) = सिरदर्द से (मुञ्च) = मुक्त कर, (उत) = और (यः कास:) = जो खाँसी व (अस्य परुष्परु:) = इसके प्रत्येक जोड़ में पीड़ा के रूप में रोग (आविवेश) = प्रविष्ट हो गया है, उस रोग से इसे मुक्त कर। २. (यः) = जो (अभ्रजा:) = बादलों से होनेवाला-इन बादलों व वृष्टि से उत्पन्न सीलबाली वायु से होनेवाला कफ़ का रोग है, (वातजः) = वायु से होनेवाला रोग है, (यः च) = और जो (शुष्म:) = पैत्तिक विकार के कारण अङ्गों के शोषण का कारणभूत रोग है-उस सबको हे सूर्य! तू दूर करनेवाला है। ३. इन रोगों के होने पर यह रोगी (वनस्पतीन् सचताम्) = विविध वनस्पतियों का सेवन करनेवाला हो (च) = और आवश्यक होने पर (पर्वतान्) = पर्वतों का सेवन करे। पर्वतों का जलवायु पैत्तिक विकारों में विशेषरूप से लाभकारी होता है।

    भावार्थ

    सूर्य-किरणों का सेवन 'सिरदर्द, खाँसी व सन्धिपीड़ाओं से मुक्त करता है और वनस्पतियों व पर्वत-वायु का सेवन मनुष्य को कफ़, वात व पित्त के विकारों से बचाता है।

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    भाषार्थ

    (शीर्षक्त्याः) सिर को प्राप्त रोग से, (उत) तथा (कासः) खांसी से (एनम्) इसे (मुञ्च) हे परमेश्वर ! तू मुक्त कर, (य: ) जोकि ( अस्य ) इस मेरे (परु: परुः) सन्धिवन्धों में (आ विवेश) प्रविष्ट हुआ है। (य:) जो रोग (अभ्रजाः) वर्षाकाल में पैदा होता है, अर्थात् श्लेष रोग, (वातजाः) वात-विकार से उत्पन्न होता है, (यः च) और जो (शुष्म: ) पित्त विकार का है। वह त्रिविध रोग (वनस्पतीन्) वनस्पतियों के साथ (सचताम्) सम्बद्ध हो, (पर्वतान् च) और पर्वतों के साथ सम्बन्ध हो, अर्थात् इन रोगों की निवृत्ति के लिए वनस्पतियों का सेवन करना चाहिए और पर्वतों में निवास करना चाहिए। पर्वत शीत होते हैं अतः पित्तजनित रोग के लिए हितकर हैं।

    टिप्पणी

    [(शीर्षकन्याः) शिरः अञ्चति प्राप्नोति इति शीर्षक्तिः। परमेश्वर भेषज रूप है, (यजु:० ३।५९) अस्य= अस्य मे। "अस्य" के साथ "मे" का सम्बन्ध जानना चाहिये। मन्त्र ४ के अनुसार कासः= कास् शब्द कुत्सायाम् (भ्वादिः), क्विप्, पञ्चम्येकवचन ।]

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    विषय

    उत्तम नीरोग सन्तति ।

    भावार्थ

    हे वैद्य ! ( एनम् ) इस बालक को (शीर्षक्त्या) सिर के रोग से तथा ( कासः ) कास रोग अर्थात् खासी से मुञ्च छुड़ा । ( यः ) जो कास रोग ( अस्य ) इस बालक के ( परुष्परुः ) पर्व २ में ( आविवेश ) व्याप्त हो गया है ( यः ) जो कि ( अभ्रजाः वातजाः ) वर्षाऋतु में तथा वायु कोप के कारण प्रायः उत्पन्न हो रहे हैं, ( यः च ) और जो ( शुष्मः ) शरीर को सुखा देने वाला है। ऐसे रोग की निवृत्ति के लिये ( वनस्पतीन् पर्वतान् च ) जंगलों और पर्वतों का ( सचताम् ) आश्रय लेवें, अर्थात् उत्तम स्वास्थ्य वाले जंगलों तथा पर्वतों में जाकर रहे ।

    टिप्पणी

    सायण के मत से रोगी का रोग वनस्पति और वृक्षों को लगजावे और रोगी रोग से मुक्त हो, यह संगति असंगत है। रोग ऐसा भूत या चेतन पदार्थ नहीं जो पक्षी के समान रोगी को छोड़ वृक्ष या पर्वत से चिपट जावे । इस मन्त्र में जंगलों और पर्वतों के वायु सेवन का उपदेश शिरो रोगी कासरोगी, वर्षाकाल या मेघ के जल से उत्पन्न कीटाणुओं से हुए श्लेश्मज रोगी, तपेदिक के रोगी, वातज रोगी या वातशोषी तथा शुष्म या पित्तशोषी आदि रोगियों के लिये किया गया है। इन सब रोगियों के लिये जंगलों के वृक्षों को वायु और पर्वतों की हलकी रोगहर वायु स्वतः सिद्ध ओषधि है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगवंगिराः ऋषिः। यक्ष्मनाशनो देवता। १,३ जागतं छन्दः । ४ अनुष्टुप चतुऋचं सक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Lavation of Disease

    Meaning

    O physician, cure this child of headache and any other ailment of the brain. Free him from cough and congestion that has affected every limb and every joint of its body. Whatever ailment is caused by the rainy season, or by wind, or by heat and dryness may be cured by resort to nature’s greenery, forests and mountains.

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    Translation

    Relieve him from the headache and from the cough that has entered into his each and every joint. May the disease, that has been caused by the cloud, by the wind or by the heat, be cured by resorting to herbs and medicine from hills and plants collected from mountains.

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    Translation

    O' physician; release this patient from headache, free him from cough which has entered into all his limbs and joints which is due to cloudy season and cold wind and the cough which is dry. (Advise the patient) that he should have climatic change in jungles and mountains.

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    Translation

    O physician, do thou release this man from headache, free him from cough which has entered into all his limbs and joints. One should resort to forests and hills for relief from diseases resulting from excessive rains, severe wind and intense heat.

    Footnote

    Sayana translates the latter half of the verse, ‘that diseases occurring from rain, wind and heat should go to forests and hills’. This interpretation is illogical and irrational.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−मुञ्च। मुच्लॄ मोचने। मोचय। शीर्षक्त्याः। शीर्ष+अञ्चु गतिपूजनयोः−क्तिन्। शीर्षं शिरः अञ्चति गच्छति व्याप्नोतीति शीर्षक्तिः, तस्याः शिरः−पीडायाः सकाशात्। उत। अपि च। कासः। हलश्च। पा० ३।३।१२१। इति कासृ शब्दकुत्सनयोः−घञ्। रोगविशेषः। कासी वा खाँसी इति भाषा। क्षवथुः। परुः-परुः। अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७। इति पॄ पूर्त्तिपालनयोः−उसि। सर्वान् शरीरसन्धीन्। आ-विवेश। विश प्रवेशने-लिट्। छान्दसो दीर्घः। प्रविष्टवान्। अभ्रजा। अप्+भृ-क्त। अपो बिभर्त्तीति अभ्रं मेघः। जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति अभ्र+जनी प्रादुर्भावे-विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्वम्। मेघस्य सम्बन्धाज्जातः। वातजाः। पूर्ववत्। वात+जनी-विट्। वायोर्जात उत्पन्नः कासः शुष्मः। अविसिविसिशुषिभ्यः कित्। उ० १।१४४। इति शुष शोषे-मन् स च कित्। शोषकः, पित्तविकारादिजनितः कासः। वनस्पतीन्। १।३५।३। वनानां पतिः पाता वा वनस्पतिः। वनति सेवते अथवा वन्यते सेव्यते इति वनम्। वन सेवने, याचने, उपकारे-अच्। पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम्। पा० ६।१।१५७। इति सुडागमः। सर्ववृक्षान्। सचताम्। षच समवाये-लोट्। सचन्ताम्=सं सेव्यन्ताम्−निरु० ९।३३। समवैतु, सम्बध्नातु। पर्वतान्। भृमृदृशियजिपर्विपचि। उ० ३।११०। इति पर्व पूरणे−अतच्। शैलान् ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (এনম্) এই পুরুষকে (শীর্ষক্ত্যাঃ) শিরঃ পীড়া (উত) এবং কাশি হইতে (মুঞ্চ) মুক্ত কর (য়ঃ) যে (কাসঃ) কাশি (অস্য) এই পুরুষের (পরুঃ পরুঃ) গ্রন্থি গ্রন্থিতে (আবিবেশ) পুঞ্জীভূত রহিয়াছে (য়ঃ) যাহা (অভ্রজাঃ) মেঘ হইতে উৎপন্ন, (বাতজাঃ) বায়ু হইতে উৎপন্ন (চ) এবং (য়ঃ) যাহা (শুষ্ম) শুষ্ক, (বনস্পতীন্) যাহা বৃক্ষের সহিত (চ) এবং (পর্বতান্) পর্বতের সহিত (সবতাম্) সম্বন্ধ যুক্ত।।

    भावार्थ

    যে কাশি শরীরের গ্রন্থিতে গ্রন্থিতে পুঞ্জীভূত রহিয়াছে, যাহা মেঘ হইতে এবং বায়ু হইতে উৎপন্ন হয়, যাহা শুষ্ক হইয়া যায়, যাহা বৃক্ষ ও পর্বতের সহিত সম্বন্ধ যুক্ত সেই কাশি হইতে এবং শিরঃ পীড়া হইতে এই মনুষ্যকে মুক্ত কর।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    মুঞ্চশীর্ষক্ত্যা উতকাষ এনং পরুষ্পরুরা বিবেশা য়ো অস্য। য়ো অভ্রজা বাতজা য়শ্চ শুষ্মা বনস্পতাৎ সচতাং পর্বতাংশ্চ।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। যক্ষ্মনাশনম্। ত্রিষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (রোগনিবৃত্তঃ) রোগনিবৃত্তির উপদেশ

    भाषार्थ

    (এনম্) এই পুরুষকে (শীর্ষক্ত্যাঃ) মাথার পীড়া থেকে (উত) এবং [সেই কাশি থেকে] (মুঞ্চ) মুক্ত করুন (যঃ কাসঃ) যে কাশি (অস্য) এই পুরুষের (পরুঃপরুঃ) প্রত্যেক পর্বে/সন্ধিতে/জোড়-জোড় এ (আবিবেশ) ঘর/বসতি স্থাপন করেছে। (যঃ) যে কাশি (অভ্রজাঃ) মেঘ থেকে উৎপন্ন, (বাতজাঃ) বায়ু থেকে উৎপন্ন (চ) এবং (যঃ) যা (শুষ্মঃ) শুষ্ক [হয় ও যা] (বনস্পতীন্) বৃক্ষের সাথে (চ) এবং (পর্বতান্) পাহাড়ের সাথে (সচতাম্) সম্পর্কিত হয় ॥৩॥

    भावार्थ

    কাশি সমস্ত রোগের মাতা, যেমন একটা প্রবাদ আছে “লড়াইয়ের ঘর হাসি এবং রোগের ঘর কাশি”। যেভাবে সদ্বৈদ্য/পূর্ণ শিক্ষা প্রাপ্তকারী মন্ত্রের অনুসারে মস্তকের পীড়া এবং কাশি আদি বাহ্যিক ও অভ্যন্তরীণ রোগের কারণ জেনে রোগীকে সুস্থ করে, এভাবেই পরমেশ্বর বেদজ্ঞান দ্বারা মনুষ্যদের দোষ থেকে মুক্ত করেন এবং ব্রহ্মজ্ঞান দ্বারা/দিয়ে/প্রদানের মাধ্যমে অত্যন্ত সুখী করেন। এমনটাই রাজপ্রবন্ধ ও গৃহপ্রবন্ধ এর ক্ষেত্রেও ব্যবহার করে বিচার করা উচিত ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (শীর্ষক্ত্যাঃ) মস্তককে প্রাপ্ত/মস্তকের রোগ থেকে, (উত) এবং (কাসঃ) কাশি থেকে (এনম্) একে (মুঞ্চ) হে পরমেশ্বর ! তুমি মুক্ত করো, (যঃ) যা (অস্য) এই আমার (পরুঃ পরুঃ) সন্ধিবন্ধে/প্রত্যেক সন্ধিতে (আ বিবেশ) প্রবিষ্ট হয়েছে। (যঃ) যে রোগ (অভ্রজাঃ) বর্ষাকালে উৎপন্ন হয়, অর্থাৎ শ্লেষ/কফ রোগ, (বাতজাঃ) বাত-বিকার থেকে উৎপন্ন হয়, (যঃ চ) এবং যা (শুষ্মঃ) পিত্ত বিকারের। সেই ত্রিবিধ রোগ (বনস্পতীন্) বনস্পতির সাথে (সচতাম্) সম্বন্ধিত, (পর্বতান্ চ) এবং পর্বতের সাথে সম্বন্ধিত, অর্থাৎ এই রোগের নিবৃত্তির জন্য বনস্পতির সেবন করা উচিত এবং পর্বতে নিবাস করা উচিত। পর্বত শীতল হয় অতঃ পিত্তজনিত রোগের জন্য হিতকর।

    टिप्पणी

    [(শীর্ষক্ত্যাঃ) শিরঃ অঞ্চতি প্রাপ্নোতি ইতি শীর্ষক্তিঃ। পরমেশ্বর হলেন ভেষজ রূপ, (যজুঃ০ ৩।৫৯) অস্য= অস্য মে। "অস্য" এর সাথে "মে" এর সম্বন্ধ জানা উচিত। মন্ত্র ৪ এর অনুসারে কাসঃ= কাস্ শব্দ কুৎসায়াম্ (ভ্বাদিঃ), ক্বিপ্, পঞ্চম্যেকবচন।]

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