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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - ईश्वरः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
    1

    यो नः॒ स्वो यो अर॑णः सजा॒त उ॒त निष्ट्यो॒ यो अ॒स्माँ अ॑भि॒दास॑ति। रु॒द्रः श॑र॒व्य॑यै॒तान्ममा॒मित्रा॒न्वि वि॑ध्यतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । न॒ :। स्व: । य: । अर॑ण: । स॒ऽजा॒त: । उ॒त ‍। निष्ट्य॑: । य: । अ॒स्मान् । अभिऽदास॑ति ।रु॒द्र: । श॒र॒व्यया । ए॒तान् । मम॑ । अ॒मित्रा॑न् । वि । वि॒ध्य॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नः स्वो यो अरणः सजात उत निष्ट्यो यो अस्माँ अभिदासति। रुद्रः शरव्ययैतान्ममामित्रान्वि विध्यतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । न :। स्व: । य: । अरण: । सऽजात: । उत ‍। निष्ट्य: । य: । अस्मान् । अभिऽदासति ।रुद्र: । शरव्यया । एतान् । मम । अमित्रान् । वि । विध्यतु ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    जय और न्याय का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (नः) हमारी (स्वः) जातिवाला अथवा (यः) जो (अरणः) न बोलनेयोग्य शत्रु वा विदेशी, अथवा (सजातः) कुटुम्बी (उत) अथवा (यः) जो (निष्ट्यः) वर्णसङ्कर नीच (अस्मान्) हम पर (अभिदासति) चढ़ाई करे (रुद्रः) शत्रुओं को रुलानेवाला महाशूर वीर सेनापति (शरव्यया) वाणों के समूह से (मम) मेरे (एतान्) इन (अमित्रान्) पीडा देनेहारे वैरियों को (विविध्यतु) छेद डाले ॥३॥

    भावार्थ

    राजा को अपने और पराये का पक्षपात छोड़ कर दुष्टों को यथोचित दण्ड देकर राज्य में शान्ति रखनी चाहिये ॥३॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध ऋ० ६।७५।१९ में कुछ भेद से है ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−स्वः। स्वन शब्दे−ड। ज्ञातिः। अरणः। वशिरण्योरप्युपसंख्यानम्। वार्तिकम्, पा० ३।३।५८। इति रण शब्दे-कर्मणि अप्। नञ्समासः। अरणीयः, असंभाष्यः। विदेशी जनः। शत्रुः। सजातः। १।९।३। समान-जन्मा, स्वकुटुम्बी। निष्ट्यः। अव्ययात् त्यप्। पा० ४।२।१०४। अत्र। निसो गते। इति वार्तिकेन। निस्-त्यप् गतार्थे। ह्रस्वात् तादौ तद्धिते। पा० ८।३।१०१। इति षत्वम्। निर्गतो वर्णाश्रमेभ्यो यः। चाण्डालः, म्लेच्छः। अस्मान्। आज्ञाकारिणो धार्मिकान्। अभिदासति। दसु उत्क्षेपे, लेट् उत्क्षिपेत्। अस्माँ अभिदासति। दीर्घादटि समानपादे। पा० ८।३।९। इति संहितायां नकारस्य रुत्वम्। आतोऽटि नित्यम्। पा० ८।३।३। इति आकारस्य अनुनासिकः। रुद्रः। रोदेर्णिलुक् च। उ० २।२२। इति रुदिर् अश्रुविमोचने, ण्यन्ताद् रक् प्रत्ययः, णिलुक् च। रोदयति शत्रूनिति। महाशूरः। सेनापतिः। शरव्यया। म० १। पाशादिभ्यो यः। पा० ४।२।४९। इति शरु−य प्रत्ययः समूहार्थे। ओर्गुणः। पा० ६।४।१४६। इति गुणः। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अव् आदेशः। टाप् च्। इति शरव्या तया शरसंहत्या। अमित्रान्। म० २। हिंसकान् शत्रून्। विध्यतु। म० २। विशेषेण छिनत्तु भिनत्तु ॥

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    विषय

    कुसङ्ग के कुप्रभाव से दूर

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (न:) = हमें (स्व:) = अपना अथवा (य:) = जो  (अरण:) = पराया (सजात:) = अपनी बिरादरी व कुटुम्ब का (उत) = और (निष्टय:) = बिरादरी से बाहर का (यः) = जो कोई (अस्मान्) = हमें (अभिदासति) = इन वासनाओं में फंसाकर नष्ट करने का प्रयत्न करता है-ये सब मेरे अमित्र [शत्र] तो है ही। इन्हें मैं अपना हितचिन्तक न समझ बै, और इनकी बातों में आकर जीवन को नष्ट न कर डालूँ। २. (रुद्रः) = शत्रुओं को रुलानेवाला वह प्रभु (एतान् मम अमित्रान्) = मेरे इन शत्रुओं को ही (शरव्या) = काम-लोभादि के बाणसमूह से (विविध्यतु) = विद्ध करे। मैं तो प्रभुकृपा से इनके प्रभाव से दूर रहूँ और इस शरसमूह से विद्ध न होऊँ। वस्तुत: प्रभु मेरे उन शत्रुओं को ही इनके घातक प्रभाव से पीड़ित कर रुलानेवाले हों और इसप्रकार कटु अनुभव प्राप्त कराके उन्हें इन बासनाओं से बचने के लिए प्रेरित करें।

    भावार्थ

    भावार्थ-अपने-पराये, बिरादरी के व बाहर के सभी के कुप्रभावों से हम बचें और लोभ व काम के शिकार न हों।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (न:) हमारा (स्वः) अपना अर्थात् मानसिक [शत्रु] है (य:) जो (अरण:) पर प्राप्त [शत्रु] है, ( सजात: ) जो समानकुलोत्पन्न है, (उत) तथा (निष्ट्यः) विजातीय कुल से प्राप्त हुआ है, (यः) इनमें से जो भी (अस्मान्) हमें (अभिदासति) उपक्षीण करता है, (रुद्रः) कर्मानुसार रुलानेवाला परमेश्वर (शरव्यया) निज शरसंहति द्वारा ( मम ) मेरे (अमित्रान्) अस्नेही काम, क्रोध आदि को (वि विध्यतु ) विविध प्रकार से वींधे।

    टिप्पणी

    [अरणः-अ+रण (शब्दे, भ्वादिः) अर्थात् जिनके साथ हमारा बोलना नहीं है, जिनकी बोली को हम समझते नहीं, अर्थात् परदेशी व्यक्ति । रुद्ररूप परमेश्वर की शरसंहति नानाविध है, नाना रोगरूप तथा नाना कष्टरूप। निष्ट्य:=निस्+त्यप् "अव्ययात् त्यप्" (अष्टा० ४।२।१०४)। अभिदासति= दसु उपक्षये (दिवादिः)।]

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    विषय

    शत्रुओं का विनाश।

    भावार्थ

    (यः) जो (स्वः) अपना मित्र (अरणः) या शत्रु (सजातः) एक जाति का (उत) और (यः निष्ट्यः) जो भिन्न जाति का भी (अस्मान्) हमको ( अभिदासति ) दास बनाना चाहता है ( एतान् ) इन ( मम, अभित्रान् ) मेरे सब प्रकार के शत्रुओं की ( रुद्रः ) रोदनकारी तीक्ष्ण सेनापति ( शरव्यया ) शरों, बाणों, घातक हथियारों की पंक्ति से ( वि विध्यतु ) नाना प्रकार से ताड़ना करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। १ इन्द्रः, २ मनुष्येषवः, ३ रुद्रः ४ सर्वे देवा देवताः। १-४ अनुष्टुप् २ पुरस्ताद् बृहती, ३ पथ्या पंक्तिः । चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    No Enemies

    Meaning

    Whoever that’s our own within, or an enemy outside, our own kin or alien that plans to enslave us, let Rudra, terrible commander of our forces, fix and destroy these enemies of ours by the strike of his missiles.

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    Subject

    Rudra

    Translation

    Be he our own or a stranger, be he one of our kinsmen, of an outsider, if he tries to enslave us, may the terrible punisher pierce these enemies of mine with a volley of arrows.

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    Translation

    Let the formidable commander strike and slay with his arrows and weapons those our enemies who attacks us, be he our own or strange to us, be he a kingman or foreigner.

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    Translation

    Whoever wants to enslave us, be he our own or strange to us, a kinsman or a foreigner, may the Commander of the army with his arrows pierce and slay these enemies of mine.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−स्वः। स्वन शब्दे−ड। ज्ञातिः। अरणः। वशिरण्योरप्युपसंख्यानम्। वार्तिकम्, पा० ३।३।५८। इति रण शब्दे-कर्मणि अप्। नञ्समासः। अरणीयः, असंभाष्यः। विदेशी जनः। शत्रुः। सजातः। १।९।३। समान-जन्मा, स्वकुटुम्बी। निष्ट्यः। अव्ययात् त्यप्। पा० ४।२।१०४। अत्र। निसो गते। इति वार्तिकेन। निस्-त्यप् गतार्थे। ह्रस्वात् तादौ तद्धिते। पा० ८।३।१०१। इति षत्वम्। निर्गतो वर्णाश्रमेभ्यो यः। चाण्डालः, म्लेच्छः। अस्मान्। आज्ञाकारिणो धार्मिकान्। अभिदासति। दसु उत्क्षेपे, लेट् उत्क्षिपेत्। अस्माँ अभिदासति। दीर्घादटि समानपादे। पा० ८।३।९। इति संहितायां नकारस्य रुत्वम्। आतोऽटि नित्यम्। पा० ८।३।३। इति आकारस्य अनुनासिकः। रुद्रः। रोदेर्णिलुक् च। उ० २।२२। इति रुदिर् अश्रुविमोचने, ण्यन्ताद् रक् प्रत्ययः, णिलुक् च। रोदयति शत्रूनिति। महाशूरः। सेनापतिः। शरव्यया। म० १। पाशादिभ्यो यः। पा० ४।२।४९। इति शरु−य प्रत्ययः समूहार्थे। ओर्गुणः। पा० ६।४।१४६। इति गुणः। वान्तो यि प्रत्यये। पा० ६।१।७९। इति अव् आदेशः। टाप् च्। इति शरव्या तया शरसंहत्या। अमित्रान्। म० २। हिंसकान् शत्रून्। विध्यतु। म० २। विशेषेण छिनत्तु भिनत्तु ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়ঃ) যে (নঃ) আমাদের (স্বঃ) আপন, (ঃ) যে (অরণঃ) পর, (সজাতঃ) আত্মীয় (উত) বা (য়ঃ) যে (নিষ্ঠঃ) অনাত্মীয় (অষ্মান্) আমাদের উপর (অভিদাসতি) আক্রমণ করে (রুদ্রঃ) তেজস্বী রাজা (শরব্যয়া) বাণ সমূহ দ্বারা (মম) আমার (এতান্) এই সব (অমিত্রান্) ক্লেশ দায়ক শত্রুকে (বিবিধ্যতু) বিদ্ধ করুক।।

    भावार्थ

    রাজার আপন পর বা আত্মীয় অনাত্মীয় যে কেহ আমাদের উপর আক্রমণ করিলে তেজস্বী রাজা বাণ সমূহ দ্বারা আমাদের এই সব ক্লেশ দায়ক শত্রুকে বিদ্ধ করিবে।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ো নঃ স্বো য়ো অরণঃ সজাত উত নিষ্ঠ্যো য়ো অস্মাঁ অভিদাসতি। রুদ্রঃ শরব্যয়ৈতান্ মমা মিত্ৰান্ বি বিধ্যতু।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ব্রহ্মা। রুদ্রঃ। পথ্যা পঙত্তিঃ

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    मन्त्र विषय

    (জয়ন্যায়োপদেশঃ) জয় এবং ন্যায়ের উপদেশ।

    भाषार्थ

    (যঃ) যে (নঃ) আমাদের (স্বঃ) স্বজাতি অথবা (যঃ) যে (অরণঃ) কথন অযোগ্য শত্রু বা বিদেশী, অথবা (সজাতঃ) আত্মীয় (উত) অথবা (যঃ) যে (নিষ্ট্যঃ) বর্ণসঙ্কর নীচ (অস্মান্) আমাদের উপর (অভিদাসতি) চড়াও হয়/আক্রমণ করে (রুদ্রঃ) শত্রুদের দুঃখদায়ী বীর সেনাপতি (শরব্যযা) বাণসমূহ দ্বারা (মম) আমার (এতান্) এই (অমিত্রান্) পীড়া প্রদায়ী শত্রুতাকে/শত্রুদের (বিবিধ্যতু) ছিন্ন করে দাও ॥৩॥

    भावार्थ

    রাজাকে নিজের এবং অপরের পক্ষপাত ত্যাগ করে দুষ্টদেরকে যথোচিত দণ্ড দিয়ে রাজ্যে শান্তি বজায় রাখতে হবে॥৩॥ এই মন্ত্রের পূর্বার্ধ ঋ০ ৬।৭৫।১৯ মন্ত্রে সামান্য ভেদপূর্বক বর্তমান ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (যঃ) যা (নঃ) আমাদের (স্বঃ) নিজের অর্থাৎ মানসিক [শত্রু] রয়েছে (যঃ) যা (অরণঃ) পর প্রাপ্ত [শত্রু] রয়েছে, (সজাতা) যা সমানকুলোৎপন্ন হয়, (উত) এবং (নিষ্ট্যঃ) বিজাতীয় কুল থেকে প্রাপ্ত হয়েছে, (যঃ) এগুলোর মধ্যে যা কিছু (অস্মান্) আমাদের (অভিদাসতি) উপক্ষীণ করে, (রুদ্রঃ) কর্মানুসার ক্রন্দনে বাধ্যকারী পরমেশ্বর (সরব্যয়া) নিজ শরসংহতি দ্বারা (মম) আমার (অমিত্রান্) অস্নেহের/শত্রু কাম, ক্রোধ আদিকে (বি বিধ্যতু) বিবিধ প্রকারে ছেদন করুন/করেন/করুক।

    टिप्पणी

    [অরণঃ= অ+রণ (শব্দে, ভ্বাদিঃ) অর্থাৎ যাদের সাথে আমাদের কথা হয় না, যাদের কথা আমরা বুঝতে পারি না, অর্থাৎ পরদেশী ব্যক্তি। রুদ্ররূপ পরমেশ্বরের শরসংহতি নানা প্রকারের হয়, নানা রোগরূপ তথা নানা কষ্ট রূপ। নিষ্ট্যঃ=নিস্+ত্যপ "অব্যযাৎ ত্যপ্" (অষ্টা০ ৪।২।১০৩)। অভিদাসতি= দসু উপক্ষয়ে (দিবাদিঃ)।]

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