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अथर्ववेद के काण्ड - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - यक्ष्मनाशनोऽग्निः छन्दः - विराड्गर्भा त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्वरनाशक सूक्त
    1

    यदि॑ शो॒को यदि॑ वाभिशो॒को यदि॑ वा॒ राज्ञो॒ वरु॑ण॒स्यासि॑ पु॒त्रः। ह्रूडु॒र्नामा॑सि हरितस्य देव॒ स नः॑ संवि॒द्वान्परि॑ वृङ्ग्धि तक्मन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । शो॒क: । यदि॑ । वा॒ । अ॒भि॒ऽशो॒क: । यदि॑ । वा॒ । राज्ञ॑: । वरु॑णस्य । असि॑ । पु॒त्र: ।ह्रुडु॑: । नाम॑ । अ॒सि॒ । ह॒रि॒त॒स्य॒ । दे॒व॒ । स: । न॒: । स॒म्ऽवि॒द्वान् । परि॑ । वृ॒ङ्ग्धि॒ । त॒क्म॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि शोको यदि वाभिशोको यदि वा राज्ञो वरुणस्यासि पुत्रः। ह्रूडुर्नामासि हरितस्य देव स नः संविद्वान्परि वृङ्ग्धि तक्मन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । शोक: । यदि । वा । अभिऽशोक: । यदि । वा । राज्ञ: । वरुणस्य । असि । पुत्र: ।ह्रुडु: । नाम । असि । हरितस्य । देव । स: । न: । सम्ऽविद्वान् । परि । वृङ्ग्धि । तक्मन् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ज्वर आदि रोग की शान्ति के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) चाहे, तू (शोकः) हृदयपीड़क (यदि वा) चाहे (अभिशोकः) सर्वशरीरपीड़क है, (यदि वा) अथवा तू (राज्ञः) तेजवाले (वरुणस्य) सूर्य वा जल का (पुत्रः) पुत्ररूप (असि) है। (हरितस्य) हे पीले रंग के (देव) देनेवाले ! (ह्रूडुः) दबाने की कल (नाम असि) तेरा नाम है (सः) सो तू, (तक्मन्) हे जीवन को कष्ट देनेवाले, ज्वर ! [ज्वरसमान पीडा देनेहारे !] (संविद्वान्) [यह बात] जानता हुआ (नः) हमको (परि−वृङ्ग्धि) छोड़ दे ॥३॥

    भावार्थ

    मानसिक और शारीरिक पीड़ा, सूर्य्य की ताप वा जल से उत्पन्न ज्वर और पीलिया आदि रोग, पाप अर्थात् ईश्वरीय नियम से विरुद्ध आचरण का फल है, इसलिये मनुष्य पुरुषार्थपूर्वक परमेश्वर के नियमों का पालन करैं और दुष्ट आचरण छोड़ कर सुखी रहैं ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−शोकः। शुचि शोके−कर्तरि घञ्। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। मनःपीडकः। अभिशोकः। सर्वशरीरपीडकः। राज्ञः। १।१०।१। दीप्यमानस्य, तेजस्विनः। वरुणस्य। १।३।३। सूर्य−तापस्य जलस्य वा। पुत्रः। १।११।५। शोधकः। सुतः, तनूजः पुत्रवत् उत्पन्नः। अन्यद् व्याख्यानम्−म० २ ॥

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    विषय

    ज्वर के अन्य तीन कारण

    पदार्थ

    १. हे- (तक्मन) = उचर! (यदि) = यदि तु (शोकः असि) = बाह्य सम्पत्ति व सन्तान के नाश से होनेवाले शोक का परिणाम है, (यदि वा) = अथवा (अभिशोकः असि) = किन्हीं आन्तरिक व बाह्य दोनों कारणों से उत्पन्न होनेवाले शोक का परिणाम है, (यदि वा) = अथवा तू (वरुणस्य राज्ञः पुत्रः असि) = वरुण राजा का पुत्र है तो तू (हडः नाम असि) = कैंपकैंपी को लानेवाला होने से हडु नामवाला है। तू (हरितस्य देव) = पीलिया को देनेवाला है। (स:) = वह तू (न:) = हमें (संविद्वान्) = सम्यक्तया जानता हुआ कि हम प्रभु-भक्त होने से वासना से दूर हैं, (परिवृग्धि) = सब प्रकार से छोड़नेवाला हो। २. शोक के कारण तो ज्वर उत्पन्न हो ही जाता है। यहाँ ज्वर को वरुण राजा का पुत्र इसलिए कहा है कि वरुण जलाधिपति है। यह जल इधर-उधर गढ़ों में ठहरता है, तो मच्छरों की उत्पत्ति का कारण बनता है। ये मच्छर ज्वर को फैलानेवाले होते हैं, अतः ज्वर से बचने के लिए जहाँ शोक से बचना है, वहाँ मच्छरों की उत्पत्ति को रोकने की भी व्यवस्था करनी चाहिए। इस व्यवस्थापक को ही आजकल की भाषा में सैनिटेशन का प्रबन्ध कहते हैं।

    भावार्थ

    ज्वर शोक से उत्पन्न होता है, अतः संसार-स्वरूप का चिन्तन करते हुए शोक नहीं करना है तथा ऐसी व्यवस्था भी वाञ्छनीय है कि पानी आदि के ठहरे रहने से मच्छर उत्पन्न न हो पाएँ।

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    भाषार्थ

    [हे शीत ज्वर !] (यदि शोकः) यदि तू शरीरान्तर्वर्ती सन्ताप है, (यदि वा अभिशोक:) अथवा शरीरान्तर्वर्ती समग्र अङ्गों का सन्ताप है, (यदि वा) अथवा यदि तु (वरुणस्य राज्ञ:) जलाधिपति वरुण राजा का (पुत्रः असि) पुत्र है शेष पूर्ववत् (मन्त्र २)

    टिप्पणी

    [शीत ज्वर में त्वचा तो शीत होती है, परन्तु शरीर के अभ्यन्तर भाग सन्तप्त होते हैं। वरुण है "अपामधिपति:" (अथर्व० ५।२४।४)। आपः शीत होते हैं, इसलिये शीत ज्वर को वरुण-राजा का पुत्र कहा है। तथा आपः में मच्छर पैदा होते हैं, जोकि मलेरिया ज्वर के उत्पादक हैं। शरीर में भी जब जल का अनुपात बढ़ जाता है तो मलेरिया का आक्रमण होता है। शरीर में जल को साम्यावस्था में लाने के लिये होम्योपेथी में Natrum mur तथा Natrum sulpha दो दवाइयाँ प्रायः दी जाती हैं। ये दो दवाइयां बायोकेमिक हैं।]

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    विषय

    ज्वर चिकित्सा।

    भावार्थ

    हे (तक्मन्) ज्वर ! (यदि शोकः) चाहे तू एक देश में तापकारी है, (यदि वा ) और चाहे ( अभिशोकः ) तू सब अङ्गों में भीतर बाहर सर्वत्र तापजनक है, ( यदि वा ) और चाहे तू ( वरुणस्य ) सबको आवरण करने वाले, सर्वत्र फैलने वाले जलीय अंश का ( पुत्रः ) रूपान्तर है, तो भी हे ( देव ) अग्नि या जलांश से उत्पन्न ! ( हरितस्य ) पाण्डु कामला या पैत्तिक रोग का ( ह्रूडुः ) निश्चय से उत्पादक है, इस प्रकार से तू (नाम) प्रसिद्ध ( ह्रूडुः असि ) ह्रूडु है। इस बात को ( नः ) हममें से (सः) वह वैद्य (संविद्वान्) उत्तम जानता है । अतः उसकी योग्य चिकित्सा से तू हमें ( परि वृङ्धि ) त्याग दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनोऽग्निर्मन्त्रोक्ता ‘ह्रूडु’ आदयो देवताः । १ त्रिष्टुप् २, ३ विराड्-गर्भा त्रिष्टुप् । ४ पुरोऽनुष्टुप् चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Fever Cure

    Meaning

    O fever, whether you glow as a flame in a part of the body or burn all over intensely with pain, or you are caused by stagnant waters in the realm of Varuna, water element of nature in the body or in the environment, you are Hrudu by name, a version of anaemia, pallor of jaundice. Let the knowledgeable physician uproot and throw you out of the body and the environment.

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    Translation

    If you are paining or if your are aching all over the body, or if you are the son of the venerable Lord, the sovereign, then you are called cramp and spasm (hrdu) .O divine one, causing pallidness. Appreciating this, O fever, may you spare us.

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    Translation

    If this heats the body, if it produces much more heat by rise, it is created by dirty water etc, let it be away from us.

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    Translation

    O fever, if thou tormentest our heart or all the organs of the body. Be thou the son of water, rack is thy name. O learned physician, knowing the cause of fever, expel it from our body.

    Footnote

    Son of water: Germs of malaria are generated in a place of stagnant, stinking water hence fever is the son of water, as non-moving water produces the germs of fever.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−शोकः। शुचि शोके−कर्तरि घञ्। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। मनःपीडकः। अभिशोकः। सर्वशरीरपीडकः। राज्ञः। १।१०।१। दीप्यमानस्य, तेजस्विनः। वरुणस्य। १।३।३। सूर्य−तापस्य जलस्य वा। पुत्रः। १।११।५। शोधकः। सुतः, तनूजः पुत्रवत् उत्पन्नः। अन्यद् व्याख्यानम्−म० २ ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (য়দি) যদি তুমি (শোকঃ) হৃদয়ে পীড়াদায়ক (য়দি বা) যদি (অভিশোকঃ) সর্ব শরীরে পীড়াদায়ক (যদি বা) যদি (রাজ্ঞঃ) তেজস্বী (বরুণস্য) জল বা সূর্যের (পুত্রুঃ) পুত্র রূপ (অসি) হও। (হরিতস্য দেব) হে পাংশু বর্ণের দাতা! (হ্রডুঃ) পীড়া যন্ত্র (নাম অসি) তোমার নাম। (সঃ) সেই তুমি (তক্‌মন্) কষ্টদায়ক জর! (সংবিদ্বান্) এ সব জানিয়া (নঃ) আমাদিগকে (পরিবৃঙ্গি) মুক্তি দাও।।

    भावार्थ

    তুমি হৃদয়েই পীড়া দান কর বা সর্ব শরীরেই পীড়া দান কর তুমি জল বা সূর্য কিরণ হইতে উৎপন্ন। হে পাংশু বর্ণের দাতা! তোমার নাম পীড়া যন্ত্র! হে কষ্টদায়ক জর! এ সব জানিয়া আমাদিগকে মুক্তি দাও।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়দি শোকো য়দি বা ভিশোকো য়দি বা রাজ্ঞো বরুণস্যাস্তি পুক্রঃ। হ্রডুর্ণামাসি হরিতস্য দেব স নঃ সংবিদ্বান্ পরি বৃঙগ্ধি তক্মন্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ভৃগ্বঙ্গিরাঃ। যক্সনাশনোহগ্নিঃ। বিরাডগর্ভা ত্রিষ্টুপ্

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    मन्त्र विषय

    (জ্বরাদিরোগশান্ত্যুপদেশঃ) জ্বর আদি রোগের শান্তির জন্য উপদেশ।

    भाषार्थ

    (যদি) যদি তুমি (শোকঃ) হৃদয়পীড়ক (যদি বা) যদি (অভিশোকঃ) সর্ব শরীর পীড়ক হও/হয়ে থাকো (যদি বা) অথবা তুমি (রাজ্ঞঃ) তেজসম্পন্ন (বরুণস্য) সূর্য বা জলের (পুত্রঃ) পুত্ররূপ (অসি) হও, (হরিতস্য) হে হলুদ বর্ণ (দেব) প্রদায়ী ! (হ্রূডুঃ) চাপ কল (নাম অসি) তোমার নাম হয়/হয়ে থাকে (সঃ) সেই তুমি (তক্মন্) হে জীবনকে কষ্ট প্রদায়ী জ্বর ! [জ্বরের ন্যায় পীড়া প্রদায়ী !] (সংবিদ্বান্) [এই কথা] জ্ঞাত (নঃ) আমাদেরকে (পরি−বৃঙ্গ্ধি) মুক্ত করো ॥৩॥

    भावार्थ

    মানসিক এবং শারীরিক পীড়া, সূর্যের তাপ বা জল দ্বারা/থেকে উৎপন্ন জ্বর এবং পাণ্ডু আদি রোগ পাপ অর্থাৎ ঈশ্বরীয় নিয়মের বিরুদ্ধ আচরণের ফল। এজন্য মনুষ্য পুরুষার্থপূর্বক পরমেশ্বরের নিয়মসমূহের পালন করবে/করুক এবং দুষ্ট আচরণ ত্যাগ করে সুখী হোক ॥৩॥

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    भाषार्थ

    [হে শীত জ্বর !] (যদি শোকঃ) যদি তুমি শরীরের অন্তঃবর্তী যন্ত্রনা হও, (যদি বা অভিশোকঃ) অথবা শরীরান্তর্বর্তী সমগ্র অঙ্গের যন্ত্রনা হও, (যদি বা) অথবা যদি তুমি (বরুণস্য রাজ্ঞঃ) জলাধিপতি বরুণ রাজার (পুত্রঃ অসি) পুত্র হও। শেষ পূর্ববৎ। (মন্ত্র ২)

    टिप्पणी

    [শীত জ্বরে ত্বক ঠাণ্ডা থাকে, কিন্তু শরীরের অভ্যন্তর ভাগ উত্তপ্ত থাকে। বরুণ হলো "অপামধিপতিঃ" (অথর্ব০ ৫।২৪।৪) জল শীতল হয়, এইজন্য শীত জ্বরকে বরুণ-রাজার পুত্র বলা হয়েছে। এবং জলে মশার জন্ম হয়, যা ম্যালেরিয়া জ্বরের উৎপাদক। শরীরেও যখন জলের অনুপাত বেড়ে যায় তখন ম্যালেরিয়ার আক্রমণ হয়। শরীরে জল সাম্যাবস্থায় নিয়ে আসার জন্য হোমিওপ্যাথিতে Natrum mur ও Natrum sulpha দুটি ঔষধ প্রায় দেওয়া হয়। এই দুটি ঔষধ বায়োকেমিক।]

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