अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
ऋषिः - चातनः
देवता - अग्नीषोमौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यातुधाननाशन सूक्त
1
अ॒यं स्तु॑वा॒न आग॑मदि॒मं स्म॒ प्रति॑ हर्यत। बृह॑स्पते॒ वशे॑ ल॒ब्ध्वाग्नी॑षोमा॒ वि वि॑ध्यतम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स्तु॒वा॒न: । आ । अ॒ग॒म॒त् । इ॒मम् । स्म॒ । प्रति॑ । ह॒र्य॒त॒ । बृह॑स्पते । वशे॑ । ल॒ब्ध्वा । अग्नी॑षोमा । वि । वि॒ध्य॒त॒म् । ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स्तुवान आगमदिमं स्म प्रति हर्यत। बृहस्पते वशे लब्ध्वाग्नीषोमा वि विध्यतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । स्तुवान: । आ । अगमत् । इमम् । स्म । प्रति । हर्यत । बृहस्पते । वशे । लब्ध्वा । अग्नीषोमा । वि । विध्यतम् । ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के लक्षण।
पदार्थ
(अयम्) यह [शत्रु] (स्तुवानः) स्तुति करता हुआ (आ-अगमत्) आया है, (इमम्) इसका (स्म) अवश्य (प्रति हर्यत) तुम सब स्वागत करो। (बृहस्पते) हे बड़े बड़ों के रक्षक राजन् ! [दूसरे वैरी को] (वशे) वश में (लब्ध्वा) लाकर [वर्त्तमान हो], (अग्नीषोमा=०-मौ) हे अग्नि और चन्द्रमा ! तुम दोनों [अन्य वैरियों को] (वि) अनेक भाँति से (विध्यतम्) ताड़ो ॥२॥
भावार्थ
जो शत्रु राजा का प्रभुत्व मानकर शरणागत हो, राजा और कर्मचारी उसका स्वागत करें। प्रतापी राजा दूसरे वैरी को शम दम आदि से अपने आधीन रक्खे और अन्य वैरियों को (अग्निषोमा) दण्ड देने में अग्नि सा प्रचण्ड और न्याय करने में (सोम) चन्द्रमा सा शान्तस्वभाव रहे ॥२॥
टिप्पणी
२−अयम्। शत्रुः। स्तुवानः। ष्टुञ् स्तुतौ-शानच्। युष्मान् स्तुवन्। आ+अगमत्। गम्लृ गतौ-लुङ्। आगतवान्। इमम्। शत्रुम्। स्म। अवश्यम्, प्रीत्या। प्रति+हर्यत। हर्य गतिकान्त्योः−लोट्। यूयं प्रतिकामध्वम्, स्वकीयत्वेन परिगृह्णीत। बृहस्पते। तद्बृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च। वार्त्तिकम्, पा० ६।१।१५७। इति बृहत्+पतिः, सुट्, आगमः, तकारलोपश्च। हे बृहतां महतां विदुषां पालयितः, विद्वन् राजन् ! वशे। वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा०। पा० ३।३।५८। इति वश स्पृहायां−अप्। अधीनत्वे, आयत्ततायाम्। लब्ध्वा। लभ प्राप्तौ-क्त्वा। आनीय। प्राप्य [अन्य शत्रुं तिष्ठ, इति शेषः]। अग्नीषोमा। अग्निश्च सोमश्चेति द्वन्द्वे। ईदग्नेः सोमवरुणयोः। पा० ६।३।२७। इति ईत्त्वम्। अग्नेः स्तुत्स्तोमसोमाः। पा० ८।३।८२। इति षत्वम्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। अर्त्तिस्तुसुहुसृधृक्षि०। उ० १।१४०। इति षु ऐश्वर्यप्रसवयोः−मन्। सवति ऐश्वर्यहेतुर्भवतीति, यद्वा सवति सौति अमृतमुत्पादयतीति सोमः। वायुः। चन्द्रः। बलवर्धकौषधविशेषः। अमृतम्। अग्निः। अग्निवत् तेजः। वायुः, वायुवद् वेगः, अथवा चन्द्रवत् प्रजायै शान्तिप्रदगुणः। अनेन सेनापतिगुणद्वयवर्णनम्। वि। विविधम्। विध्यतम्। व्यध ताडने-लोट्। युवां ताडयतम् अन्यं पापात्मानम् ॥
विषय
स्वागत
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार परिवर्तित जीवनवाला (अयम्) = यह भूतपूर्व यातुधान (स्तुवान:) = अपने ज्ञानदाता की प्रशंसा करता हुआ (आगमत्) = आया है। यह अब पुन: समाज का अङ्ग बनना चाहता है, अत: आप (इमम्) = इससे (स्म) = अवश्य (प्रतिहर्यत) = प्रीति करनेवाले होओ-इसे अपने में मिला लेने की कामनेवाले होओ। यदि इसे अब भी घृणा से देखते रहे तो इसके पुन: गलत मार्ग पर चले जाने का भय हो सकता है। २. हे (बृहस्पते) = ज्ञान के पति ब्राह्मण ! अब ऐसी व्यवस्था करो कि (अग्रिषोमा) = अग्नि और सोम इसे (वशे लब्ध्वा) = अपने वश में करके (विविध्यतम्) = विशेषरूप से विद्ध करें। इसमें अग्नि व सोम बनने का भाव प्रबल हो, वह भाव इसके हृदय में जड़ जमाए। यह निश्चय कर ले कि मुझे आगे बढ़नेवाला अग्नि बनना है और उन्नत होकर सोम-"विनीत' बने रहना है। निरभिमानता मेरी उन्नति का भूषण बनेगी।
भावार्थ
भूतपूर्व यातुधान अपने जीवन को परिष्कृत करके समाज में आता है तो सामाजिकों को चाहिए कि प्रेम से उसका स्वागत करें। यह प्रेम उसे 'अग्नि और सोम' बनने की भावना में दृढ़ करनेवाला होगा।
भाषार्थ
(अयम्) यह जन (स्तुवानः) निजस्वरूप का कथन करता हुआ (आगमत्) आया है, (इमम् ) इसको ( प्रति हर्यत) तुम चाहो। (बृहस्पते) हे बृहती सेना के पति ! (वशे लब्ध्वा) इसे निज वश में लेकर, (अग्नीषोमौ) अग्नि अर्थात् अग्रणी प्रधानमन्त्री और सेनानायक तुम [दोनों परस्पर परामर्श करके] (विविध्यतम्) इसे वेधो, ताड़ित करो। सोमः = सेनानायक (यजु० १७।४०)।
विषय
प्रजापीड़कों के नाश करने का उपाय
भावार्थ
जब (अयं ) यह ( स्तुवानः ) अपने उद्धारक का गुण गान करता हुआ ( आ गमत् ) सामने आवे तब ( इस प्रति हर्यत स्म ) इस के साथ प्रेम करो। हे ( बृहस्पते ) वेदवाणी के स्वामिन् ! उपदेशक ! ( वशे लब्ध्वा ) उस स्तुति करने वाले को अपने वश में लाकर ( अग्निषोमौ) हे अग्नि और सोम ! ( वि विध्यतम् ) तुम दोनों उस के हृदय को सदुपदेश का लक्ष्य बनाओ।
टिप्पणी
इस मन्त्र में राजा बृहस्पति, अग्नि और सोम के प्रति कहता प्रतीत होता है कि पापी जब पापों से सन्तप्त होकर तुम्हारी शरण आवे तब प्रथम वह वेदज्ञ उपदेशक के पास उपस्थित हो । वह नाना प्रकार के उपदेशों द्वारा इसे वश में लावे । तदनतर विद्या में अग्नि के समान प्रकाशित तेजस्वी, विद्वान् उपदेशक तथा ब्राह्मणों में मुखिया महोपदेशक अर्थात् सोम ये दोनों उसे प्रेमपूर्वक ऐसे ऐसे हृदयग्राही उपदेश दें जो उस के हृदय को वशीभूत करलें और वह इसके ऐसे वश में हो जाय जैसे कि हृदय देश में बाणसे बिंधा जानवर व्याघे के वश में होजाता है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । १, २ बृहस्पतिरग्निषोमौ च देवताः । ३, ४ अग्निर्देवता । १-३ अनुष्टुभः। ४, बार्हतगर्भा त्रिष्टुप् । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Elimination of the Evil
Meaning
This man is come submitting to authority. Take him, O Brhaspati, high priest of law, and having taken him under control of law, send him to Agni and Soma, commit him to prosecution and defence for justice and proper dispensation.
Translation
This one: has come confessing. Let you welcome him. Subjugate him, Lord Supreme. May the adorable Lord and the gladdener Lord pierce him through and through;
Translation
This one of the enemies or offenders has come confessing his fault receive him, O priest, keep him under your control and O Ye commander and ruler, you reprimand him.
Translation
This sinner has come, praising his spiritual reformer. Do ye receive him lovingly, O Brihaspati, keep him under thy guidance, O Agni and Soma, conquer his heart through moral persuasion.
Footnote
Brihaspatis a preacher who possesses the knowledge of the Vedas. Agni: A learned person resplendent with knowledge like fire. Soma: Chief amongst the preachers, as Soma is the chief of medicinal herbs.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−अयम्। शत्रुः। स्तुवानः। ष्टुञ् स्तुतौ-शानच्। युष्मान् स्तुवन्। आ+अगमत्। गम्लृ गतौ-लुङ्। आगतवान्। इमम्। शत्रुम्। स्म। अवश्यम्, प्रीत्या। प्रति+हर्यत। हर्य गतिकान्त्योः−लोट्। यूयं प्रतिकामध्वम्, स्वकीयत्वेन परिगृह्णीत। बृहस्पते। तद्बृहतोः करपत्योश्चोरदेवतयोः सुट् तलोपश्च। वार्त्तिकम्, पा० ६।१।१५७। इति बृहत्+पतिः, सुट्, आगमः, तकारलोपश्च। हे बृहतां महतां विदुषां पालयितः, विद्वन् राजन् ! वशे। वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा०। पा० ३।३।५८। इति वश स्पृहायां−अप्। अधीनत्वे, आयत्ततायाम्। लब्ध्वा। लभ प्राप्तौ-क्त्वा। आनीय। प्राप्य [अन्य शत्रुं तिष्ठ, इति शेषः]। अग्नीषोमा। अग्निश्च सोमश्चेति द्वन्द्वे। ईदग्नेः सोमवरुणयोः। पा० ६।३।२७। इति ईत्त्वम्। अग्नेः स्तुत्स्तोमसोमाः। पा० ८।३।८२। इति षत्वम्। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। अर्त्तिस्तुसुहुसृधृक्षि०। उ० १।१४०। इति षु ऐश्वर्यप्रसवयोः−मन्। सवति ऐश्वर्यहेतुर्भवतीति, यद्वा सवति सौति अमृतमुत्पादयतीति सोमः। वायुः। चन्द्रः। बलवर्धकौषधविशेषः। अमृतम्। अग्निः। अग्निवत् तेजः। वायुः, वायुवद् वेगः, अथवा चन्द्रवत् प्रजायै शान्तिप्रदगुणः। अनेन सेनापतिगुणद्वयवर्णनम्। वि। विविधम्। विध्यतम्। व्यध ताडने-लोट्। युवां ताडयतम् अन्यं पापात्मानम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(অয়ম্) এই শত্রু (দ্ভবানঃ) স্তুতি করিতে-করিতে (আ গমং) আসিয়াছে। (ইমম্) ইহাকে (স্ম) অবশ্য (প্রতি হয়ত) অভ্যর্থনা কর। (বৃহস্পতেঃ) হে শ্রেষ্ঠগুণের রক্ষক রাজন! (বশে) বশে (লব্ধা) আনিয়া রাখ। (অগ্নিষোমা) হে অগ্নিরূপী তেজস্বী এবং চন্দ্ররূপী আহ্লাদ দাতা রাজন! (বি) বহু ভাবে (বিদ্যতম্) তাড়না কর।।
भावार्थ
এই শত্রু স্তুতি করিতে করিতে আসিতেছে। তুমি অবশ্যই ইহাকে অভ্যর্থনা করিবে। হে শ্রেষ্ঠ গুণের রক্ষক রাজন! কোন-কোন শত্রুকে বশীভূত করিয়া রাখ। হে অগ্নিতুল্য তেজস্বী ও চন্দ্রমা তুল্য আহ্লাদ দায়ক রাজন! কোন কোন শত্রুকে বহু প্রকারে তাড়না কর।।
मन्त्र (बांग्ला)
অয়ং স্তুবান আগমদিমং স্ম প্রতি হয়্যত ৷ বৃহস্পতে বশে লব্ধাগ্নীসোমা বিবিধ্যতম্
ऋषि | देवता | छन्द
চাতনঃ। বৃহস্পতিরগ্নীষোমৌ চ। অনুষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সেনাপতিলক্ষণানি) সেনাপতির লক্ষণ
भाषार्थ
(অয়ম্) এই [শত্রু] (স্তুবানঃ) স্তুতিপূর্বক (আ-অগমৎ) এসেছে/আগমন করেছে, (ইমম্) একে (স্ম) অবশ্যই (প্রতি হর্যত) তোমরা স্বাগতম করো। (বৃহস্পতে) হে সকলের রক্ষক রাজন্ ! [অনান্য বৈরী/শত্রুকে] (বশে) বশে/নিয়ন্ত্রণে (লব্ধ্বা) নিয়ে এসে [বর্তমান হও/ থাকো], (অগ্নীষোমা=০-মৌ) হে অগ্নি ও চন্দ্র ! তোমরা [অন্য শত্রুদের] (বি) অনেকভাবে (বিধ্যতম্) তাড়না করো ॥২॥
भावार्थ
যে শত্রু রাজার প্রভুত্ব মেনে শরণাগত হয়, রাজা ও কর্মচারী তাকে স্বাগতম করে। প্রতাপশালী রাজা অন্যান্য শত্রুদের শম দম আদি দ্বারা নিজের অধীনে রাখুক। এবং অন্যান্য শত্রুদের (অগ্নিষোমা) দণ্ড দেওয়ার জন্য অগ্নির মতো প্রচণ্ড এবং ন্যায় করার ক্ষেত্রে (সোম্) চন্দ্রের মতো শান্তস্বভাবের থাকুক॥২॥
भाषार्थ
(অয়ম্) এই জন (স্তুবানঃ) নিজস্বরূপের কথন করে (আগমৎ) এসেছে/আগমন করেছে, (ইমম্) একে (প্রতি হর্যত) তুমি চাও/অভিলাষা করো। (বৃহস্পতে) হে বৃহতী সেনাদের পতি ! (বশে লব্ধ্বা) একে নিজ বশবর্তী করে, (অগ্নীষোমৌ) অগ্নি অর্থাৎ অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী ও সেনানায়ক তোমরা [দুজন পরস্পর পরামর্শ করে] (বিবিধ্যতম্) একে বিদ্ধ করো, তাড়িত করো। সোমঃ = সেনানায়ক (যজু০ ১৭।৪০)।]
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