अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ता
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विजय प्रार्थना सूक्त
1
अ॒स्य दे॑वाः प्र॒दिशि॒ ज्योति॑रस्तु॒ सूर्यो॑ अ॒ग्निरु॒त वा॒ हिर॑ण्यम्। स॒पत्ना॑ अ॒स्मदध॑रे भवन्तूत्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । दे॒वा॒: । प्रऽदिशि॑ । ज्योति॑: । अ॒स्तु॒ । सूर्य॑: । अ॒ग्नि: । उ॒त । वा॒ । हिर॑ण्यम् ।स॒ऽपत्ना॑: । अ॒स्मत् । अध॑रे । भ॒व॒न्तु॒ । उ॒त्ऽत॒मम् । नाक॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । इ॒मम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य देवाः प्रदिशि ज्योतिरस्तु सूर्यो अग्निरुत वा हिरण्यम्। सपत्ना अस्मदधरे भवन्तूत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । देवा: । प्रऽदिशि । ज्योति: । अस्तु । सूर्य: । अग्नि: । उत । वा । हिरण्यम् ।सऽपत्ना: । अस्मत् । अधरे । भवन्तु । उत्ऽतमम् । नाकम् । अधि । रोहय । इमम् ॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब सम्पत्तियों के लिये प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ
(देवाः) हे व्यवहार जाननेहारे महात्माओ ! (अस्य) इसके [मेरे] (प्रदिशि) शासन में (ज्योतिः) तेज, [अर्थात्] (सूर्यः) सूर्य, (अग्निः) अग्नि, (उत वा) और भी (हिरण्यम्) सुवर्ण (अस्तु) होवे। (सपत्नाः) सब वैरी (अस्मत्) हमसे (अधरे) नीचे (भवन्तु) रहें। (उत्तमम्) अति ऊँचे (नाकम्) सुख में (एनम्) इसको [मुझको] (अधि) ऊपर (रोहय=०-यत) तुम चढ़ाओ ॥२॥
भावार्थ
प्रकाशवाले, सूर्य अग्नि की और सुवर्ण आदि की विद्याएँ, अथवा सूर्य, अग्नि और सुवर्ण के समान प्रकाशवाले लोग, पुरुषार्थी मनुष्य के अधिकार में रहें और वह यथायोग्य शासन करके सर्वोत्तम सुख भोगे ॥२॥
टिप्पणी
२−अस्य। उपासकस्य। देवाः। म० १। हे प्रकाशमया व्यवहारिणो वा। प्रदिशि। सम्पदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। प्रपूर्वात् दिश दाने, आज्ञापने-क्विप्। प्रदेशने, शासने, आज्ञायाम्। ज्योतिः। म० १। तेजः, प्रकाशः। सूर्यः। १।३।५। सरणशीलः, प्रेरकः। ग्रहविशेषः। अग्निः। म० १। दावानलजाठरवैद्युतादिरूपः पावकः। हिरण्यम्। हर्यतिः कान्तिकर्मा−निघ० २।६। हर्यतेः कन्यन् हिर् च। उ० ४।४४। इति हर्य्य गतिकान्त्योः−कन्यन्, हिरादेशः। हर्यते काम्यते तत्। यद्वा, हृञ् हरणे-कन्यन् हिर् च। ह्रियते जनाज्जनं व्यवहारार्थम्, अथवा द्रव्यस्वभावत्वात् नैकत्रास्य स्थितिः। हिरण्यनामसु−निघ० १।२। हर्यतेः प्रेप्साकर्मणः−निरु० २।१०। सुवर्णम्। तेजः। स-पत्नाः। सह+पत् पतने ऐश्ये च-न प्रत्ययः, सहस्य सः। सह पतन्ति यतन्ते एकार्थे, यद्वा, सह पत्यन्ते ईश्वरा भवन्ति। सह पतित्ववन्तः। शत्रवः। अधरे। न+धृञ्-अच्, नञ्समासः, न ध्रियतेऽसौ। नीचाः, हीनाः, अपकृष्टाः। उत्-तमम्। उत्+तमप्, अतिशयेन उत्कृष्टम्। यद्वा, उत्+तमु इच्छायाम्−अच्। भद्रम्, उत्कृष्टम्। नाकम्। कं सुखम् अकं दुःखम्, तन्नास्त्यत्रेति नाकः। नभ्राण्नपान्नवेदानासत्या०। पा० ६।३।७५। इति नञः प्रकृतिभावः। अथवा पिनाकादयश्च। उ० ४।१५। इति णी प्रापणे−आक-प्रत्ययः, टिलोपः। नाक आदित्यो भवति नेता भासां ज्योतिषां प्रणयोऽथ द्यौः कमिति सुखनाम तत्प्रतिषिद्धं प्रतिषिध्यते−निरु० २।१४। स्वर्गम्। सुखम्। आकाशम्। आदित्यलोकम्। अधि। उपरि। रोहय। रुह जन्मनि, प्रादुर्भावे-णिच्-लोट्। एकवचनं बहुवचने। उन्नयत यूयम्। इमम्। उपासकम् ॥
विषय
उत्तम 'नाकलोक' का अधिरोहण
पदार्थ
१. (अस्य) = गतमन्त्र के अनुसार अपने-आपको वसु व उत्कृष्ट ज्योति में धारण करनेवाले पुरुष के (प्रदिशि) = आदेश में, कथन में, (ज्योतिः अस्तु) = ज्योति हो। यह जो कुछ बोले वह औरों को ज्ञान देनेवाला हो। इसके कथन में (सूर्यः) = सूर्य हो, (अग्नि:) = अग्नि हो (उत वा) = और या (हिरण्यम्) = हितरमणीय ज्योति हो। इसके कथन मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान का सूर्य उदय करनेवाले हों। उदर में जाठराग्नि को ठीक रखनेवाले हों और हृदयान्तरिक्ष में हितमरणीय ज्योति को स्थापित करनेवाले हों। २. इस सब उपदेश का यह परिणाम हो कि (सपत्ना:) = काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रु (अस्मत् अधरे भवन्तु) = हमारे नीचे हों, अर्थात् हम उन्हें पाँवों तले कुचलने में समर्थ हों। ३. इसप्रकार लोकहित के कार्यों में लगे हुए (इमम्) = इस ज्ञान-प्रसारक पुरुष को उत्तम
(नाकम्) = उत्कृष्ट स्वर्गलोक में (अधिरोहय) = अधिरूढ़ कीजिए। यह स्वर्ग को प्राप्त करनेवाला हो, इसका जीवन सुखी हो।
भावार्थ
प्राणशक्ति व प्रभु की ज्योति को प्राप्त करके हम लोकहित के लिए ज्ञान का प्रसार करें। उस ज्ञान से लोगों के मस्तिष्क, शरीर व हृदय को हम सुन्दर बनाने का प्रयत्न करें। लोग काम, क्रोध, लोभ को जीतने की भावना से भरे हों। इस लोकहित के द्वारा हम स्वर्ग के अधिकारी बनें।
भाषार्थ
(देवाः) हे द्युतिविद्याविज्ञ वैज्ञानिको ! (अस्य प्रदिशि ) इसके निर्देश में (ज्योतिः अस्तु) राष्ट्र की ज्योति रहे, अर्थात् सूर्य, अग्नि, (उत वा) तथा राष्ट्र का (हिरण्यम्)१ सुवर्ण चाँदी आदि का प्रयोग। (सपत्ना:) शत्रु (अस्मत् अधरे भवन्तु) ताकि हमसे निकृष्ट रहें। हे परमेश्वर ! (इमम् ) इस हमारे शासक-राजा को तू (उत्तमम्) सर्वश्रेष्ठ (नाकम् ) मोक्ष पर ( अधि- रोहय) आरूढ़ कर ।
टिप्पणी
[राष्ट्र की ज्योतिर्मयी शक्तियाँ राष्ट्र के राजा के निर्देश में रहनी चाहिए, ताकि राजा की आज्ञा के अनुसार वैज्ञानिक इनका प्रयोग करें। इससे राष्ट्र की शक्ति बढ़ती और तद्-द्वारा शत्रु को अधर किया जा सकता है। राजा भी निःस्वार्थ भावना से राष्ट्र-सेवा करता हुआ "नाक" शे प्राप्त हो जाता है । नाकम्; क=सांसारिक सुख; अक=सांसारिक सुखा-भाव; न+अक है सुख-असुख दोनों का न होना, अपितु दोनों के अभाव से विलक्षण, आनन्दरूप परमेश्वर में लीन रहते स्वेच्छापूर्वक विचरना।] [१. ज्योतिः रूप में हिरण्य दृष्टान्त भी है। यथा "हिरण्यरूपः स हिरण्यसदृक्" (ऋ० २।३५।१०); निरुक्त ३।३।१५।]
विषय
ब्रह्मतेज और आयु की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( देवाः ) देवगणो ! विद्वान लोगो ! ( अस्य ) इस राजा के ( प्रदिशि ) शासन या आज्ञा में (सूर्यः) सर्वप्रकाशक ( अग्निः ) सब कार्यों का अग्रणी, यज्ञनिष्पादक और ( हिरण्यम् ) सुवर्ण और चन्द्र आदि ( ज्योतिः ) ज्योतिष्मान् पदार्थ ( अस्तु ) हों । ( सपत्नाः ) शत्रु लोग (अस्मद् अधरे) हमारे नीचे ( भवन्तु) रहें और हे ईश्वर ? (इमं) इस राजा को ( उत्तमं ) उत्तम ( नाकं ) सुखसम्पन्न, समृद्ध ऐश्वर्यमय राजपद या पारलौकिक सुख पर ( अधि रोहय ) स्थापित करो । सूर्यादिक ज्योति इसके राज्य में प्रकाश, वर्षण आदि करें और सुवर्ण आदि धन भी रहे। इसका राज्य स्वर्ग के समान सुखकर रहे । नाक = कं सुख, अकं दुःखम् । न विद्यते अकं अस्मिन्निति नाकः स्वर्गः । सुवगों वै लोको नाकः । नास्मा अकं भवति ( तै० सं० ५। ३। ७ । १ ) ब्रह्मचारी के पक्ष में—(अस्य प्रदिशि हे देवाः ज्योतिरस्तु ) इसके वश में ज्ञानमय ज्योति हो, प्राणरूप सूर्य, जाठर अग्नि और आत्मारूप हिरण्य भी इसके शासन में हों। काम क्रोध आदि दुष्ट वृत्तिरूप शत्रु इस के वश में रहें और वह सुखमय ब्रह्मपद का लाभ करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। १,२ वस्वादयो मन्त्रोक्ता देवताः। ३, ४ अग्निर्देवता । त्रिष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Power and Lustre
Meaning
O Devas, enlightened leaders of humanity, let the energy of light and education for enlightenment, solar energy, fire energy, and all the golden assets of the nation be under the direction and control of this our ruler. Let all our adversaries be under our control. Raise this ruler and his rule to the heights of the highest heavenly light on earth.
Translation
O enlightened ones, may all the lights be under his command, whether of the Sun or of the fire or of the glittering gold. May our rivals be under our subjugation; may you make him ascend to the highest place of bliss.
Translation
O, Ye enlightened persons, May the king in his administration have control over the Sun, the fire, the finance and jyotuh the electricity. The foes and rivals prostrate beneath our (the subjects) feet and may God uplift the king to happiness of this world and beyond.
Translation
May the light of knowledge, the sun-like breaths, the digestive heat, the gold-like soul, be under his sway. May foes, like lust and anger, lie prostrate beneath his feet. May he attain to the highest pitch of spiritual happiness.
Footnote
‘His’ refers to the Brahmchari. This verse is applicable to a king as well.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−अस्य। उपासकस्य। देवाः। म० १। हे प्रकाशमया व्यवहारिणो वा। प्रदिशि। सम्पदादिभ्यः क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। प्रपूर्वात् दिश दाने, आज्ञापने-क्विप्। प्रदेशने, शासने, आज्ञायाम्। ज्योतिः। म० १। तेजः, प्रकाशः। सूर्यः। १।३।५। सरणशीलः, प्रेरकः। ग्रहविशेषः। अग्निः। म० १। दावानलजाठरवैद्युतादिरूपः पावकः। हिरण्यम्। हर्यतिः कान्तिकर्मा−निघ० २।६। हर्यतेः कन्यन् हिर् च। उ० ४।४४। इति हर्य्य गतिकान्त्योः−कन्यन्, हिरादेशः। हर्यते काम्यते तत्। यद्वा, हृञ् हरणे-कन्यन् हिर् च। ह्रियते जनाज्जनं व्यवहारार्थम्, अथवा द्रव्यस्वभावत्वात् नैकत्रास्य स्थितिः। हिरण्यनामसु−निघ० १।२। हर्यतेः प्रेप्साकर्मणः−निरु० २।१०। सुवर्णम्। तेजः। स-पत्नाः। सह+पत् पतने ऐश्ये च-न प्रत्ययः, सहस्य सः। सह पतन्ति यतन्ते एकार्थे, यद्वा, सह पत्यन्ते ईश्वरा भवन्ति। सह पतित्ववन्तः। शत्रवः। अधरे। न+धृञ्-अच्, नञ्समासः, न ध्रियतेऽसौ। नीचाः, हीनाः, अपकृष्टाः। उत्-तमम्। उत्+तमप्, अतिशयेन उत्कृष्टम्। यद्वा, उत्+तमु इच्छायाम्−अच्। भद्रम्, उत्कृष्टम्। नाकम्। कं सुखम् अकं दुःखम्, तन्नास्त्यत्रेति नाकः। नभ्राण्नपान्नवेदानासत्या०। पा० ६।३।७५। इति नञः प्रकृतिभावः। अथवा पिनाकादयश्च। उ० ४।१५। इति णी प्रापणे−आक-प्रत्ययः, टिलोपः। नाक आदित्यो भवति नेता भासां ज्योतिषां प्रणयोऽथ द्यौः कमिति सुखनाम तत्प्रतिषिद्धं प्रतिषिध्यते−निरु० २।१४। स्वर्गम्। सुखम्। आकाशम्। आदित्यलोकम्। अधि। उपरि। रोहय। रुह जन्मनि, प्रादुर्भावे-णिच्-लोट्। एकवचनं बहुवचने। उन्नयत यूयम्। इमम्। उपासकम् ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(দেবাঃ) হে বিদ্বানগণ! (অস্য) ইহার (প্রদিশি) শাসনে (জ্যোতিঃ) তেজ, (সূৰ্য্যঃ) জ্ঞান (অগ্নিঃ) পরাক্রম (উত বা) এবং আরও (হিরণ্যং) স্বর্ণ (অস্ত্র) হউক। (সপ্ততাঃ) সব শত্রু (অস্মৎ) আমাদের অপেক্ষা (অধরে) নিম্নে (ভবন্তু) থাকুক (উত্তমম্) অত্যুচ্চ (নাকং) সুখে (এনম্) ইহাকে (অধি) উপরে (রোহয়) উঠাও।
भावार्थ
হে বিদ্বানগণ! এই রাজার শাসনে তেজ, জ্ঞান, পরাক্রম এবং আরও সুবর্ণ বৃদ্ধি হউক। সব শত্রু আমাদের নিম্নস্তরে থাকুক এবং ইহাকে অত্যুচ্চ সুখের অধিকারী কর।।
मन्त्र (बांग्ला)
অস্য দেবাঃ প্রদিণি জ্যোতিরন্তু সূর্য্যো অগ্নিরুত বা হিরণ্যম্। সপত্না অল্মদধরে ভবভূত্তমং নাকমধি রোহয়েমম্।।
ऋषि | देवता | छन्द
অর্থবা। বদ্বাদয়ো মন্তোক্তাঃ। ত্রিষ্টুপ্
मन्त्र विषय
(সর্বসম্পত্তিপ্রয়ত্নোপদেশঃ) সমস্ত সম্পত্তির জন্য চেষ্টার উপদেশ
भाषार्थ
(দেবাঃ) হে ব্যবহার সম্পর্কে জ্ঞাত মহাত্মাগণ ! (অস্য) এর [আমার] (প্রদিশি) শাসনে (জ্যোতিঃ) তেজ, [অর্থাৎ] (সূর্যঃ) সূর্য, (অগ্নিঃ) অগ্নি, (উত বা) আরোও (হিরণ্যম্) সুবর্ণ (অস্তু) হোক। (সপত্নাঃ) সমস্ত শত্রু (অস্মৎ) আমার থেকে (অধরে) নীচে (ভবন্তু) থাকুক। (উত্তমম্) অতি উচ্চ (নাকম্) সুখে (এনম্) একে [আমাকে] (অধি) উপরে (রোহয়=০-যত) তুমি ওঠাও/আরোহণ করাও ॥২॥
भावार्थ
প্রকাশমান, সূর্য অগ্নির এবং সুবর্ণ আদির বিদ্যা, অথবা সূর্য, অগ্নি এবং সুবর্ণের সমান প্রকাশমান লোক, পুরুষার্থী মনুষ্যের অধিকারে থাকুক এবং সে যথাযোগ্য শাসন করে সর্বোত্তম সুখ ভোগ করুক ॥২॥
भाषार्थ
(দেবাঃ) হে দ্যুতিবিদ্যাবিজ্ঞ বৈজ্ঞানিকগণ ! (অস্য প্রদিশি) এঁর নির্দেশে (জ্যোতিঃ অস্তু) রাষ্ট্রের জ্যোতি থাকুক/হোক, অর্থাৎ সূর্য, অগ্নি, (উত বা) এবং রাষ্ট্রের (হিরণ্যম্)১ সুবর্ণ মুক্তা/রূপো আদির প্রয়োগ। (সপত্নাঃ) শত্রু (অস্মৎ অধরে ভবন্তু) যাতে আমাদের থেকে নিকৃষ্ট থাকে। হে পরমেশ্বর ! (ইমম্) এই আমাদের শাসক-রাজাকে তুমি (উত্তমম্) সর্বশ্রেষ্ঠ (নাকম্) মোক্ষে (অধিরোহয়) আরূঢ়/আরোহণ করাও ।
टिप्पणी
[রাষ্ট্রের জ্যোতির্ময়ী শক্তি রাষ্ট্রের রাজার নির্দেশে থাকা উচিৎ, যাতে রাজার আজ্ঞানুসারে বৈজ্ঞানিক এগুলোর প্রয়োগ করে। এর মাধ্যমে রাষ্ট্রের শক্তি বৃদ্ধি হয় এবং তদ্-দ্বারা শত্রুকে অধর/নিষ্কর্মা/অধঃপতিত করা যেতে পারে। রাজাও নিঃস্বার্থ ভাবনায় রাষ্ট্র-সেবা করে "নাক" প্রাপ্ত হয়ে যায়। নাকম্; কম্ (সুখম্)+অকম্ (সুখাভাব)+নাকম্ (অকম্-এর নিষেধ) নিরুক্ত ২।৪।১৪)।] [১. জ্যোতিঃ রূপে হিরণ্য দৃষ্টান্তও আছে। যথা "হিরণ্যরূপঃ স হিরণ্যসদৃক্" (ঋ০ ২।৩৫।১০); নিরুক্ত ৩।৩।১৫।]
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