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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा भुरिगतिधृतिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    1

    यत्ते॑ च॒न्द्रं क॑श्यप रोच॒नाव॒द्यत्सं॑हि॒तं पु॑ष्क॒लं चि॒त्रभा॑नु॒। यस्मि॒न्त्सूर्या॒ आर्पि॑ताः स॒प्त सा॒कम्। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । च॒न्द्रम् । क॒श्य॒प॒ । रो॒च॒नऽव॑त् । यत् । स॒म्ऽहि॒तम् । पु॒ष्क॒लम् । चि॒त्रऽभा॑नु । यस्मि॑न् । सूर्या॑: । आर्पि॑ता: । स॒प्त । सा॒कम् । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्ष‍ि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते चन्द्रं कश्यप रोचनावद्यत्संहितं पुष्कलं चित्रभानु। यस्मिन्त्सूर्या आर्पिताः सप्त साकम्। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । चन्द्रम् । कश्यप । रोचनऽवत् । यत् । सम्ऽहितम् । पुष्कलम् । चित्रऽभानु । यस्मिन् । सूर्या: । आर्पिता: । सप्त । साकम् । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्ष‍िणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (कश्यप) हे सर्वदर्शक ! [परमेश्वर] (यत्) जो (ते) तेरा (चन्द्रम्) आनन्द कर्म (रोचनवत्) बड़ी रुचिवाला है, और (यत्) जो (संहितम्) एकत्र किया हुआ, (चित्रभानु) विचित्र प्रकाशवाला (पुष्कलम्) पोषण कर्म है। (यस्मिन्) जिस [परमेश्वर के नियम] में (सप्त) सात [शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश, चित्ररूपवाली] (सूर्याः) सूर्य की किरणें (साकम्) साथ-साथ (आर्पिताः) जड़ी हैं। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [मन्त्र १] ॥१०॥

    भावार्थ

    जो परमेश्वर सर्वदर्शक आनन्ददाता और पोषणप्रद है, सब लोग उसकी उपासना करें ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(यत्) (ते) तव (चन्द्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। चदि आह्लादने दीप्तौ च-रक्। आह्लादकं कर्म (कश्यप) पश्यक (रोचनवत्) रुचियुक्तम् (यत्) (संहितम्) एकीकृतम् (पुष्कलम्) कलँश्च। उ० ४।५। पुष पुष्टौ-कलन्। पोषणकर्म, (चित्रभानु) विचित्रदीप्ति (यस्मिन्) परमेश्वरनियमे (सूर्याः) अ० ९।४।१४। षू प्रेरणे-क्यप्, टाप्। सूर्या सूर्यस्य पत्नी-निरु० १२।७। सूर्यकिरणाः (अर्पिताः) स्थापिताः (सप्त) शुक्लनीलादिसप्तवर्णाः (साकम्) सह ॥

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    विषय

    सप्त साः

    पदार्थ

    १.हे (कश्यप) = सर्वद्रष्टा प्रभो! (यत्) = जो (ते) = आपका (चन्द्रम्) = सबको आहादित करनेवाला (रोचनावत्) = दीप्सियुक्त (पुष्कलम्) = पुष्टिकारी व पर्याप्त (संहितम्) = एकत्र स्थापित (चित्रभानु) = अद्भुत दीसिवाला प्रकाशमयस्वरूप है। यह वह स्वरूप है कि (यस्मिन्) = जिस प्रकाशमयस्वरूप में (सप्तसूर्या:) =  सात रंगोंवाली किरणोंवाले ये सूर्य (साकं आर्पिताः) = साथ-साथ अर्पित हैं। २. प्रभु ने वस्तुत: इन सूर्यों को सात वर्णीवाली किरणोंवाला बनाकर हमारे शरीरों में सात प्राणशक्तियों के स्थापन की सुन्दर व्यवस्था की है। इन सात प्राणशक्तियों से शरीरस्थ सप्तर्षि व सतहोता पूर्ण स्वस्थरूप से रहते हैं तभी ये साधक सातों लोकों का विभाजन करता हुआ प्रभु को प्राप्त करता है। इसप्रकार इन अद्भुत सूर्य प्रकाशों में प्रभु की महिमा के द्रष्टा ब्रह्मज्ञानी का हिंसन महापाप है।

    भावार्थ

    सर्वद्रष्टा प्रभु का स्वरूप आह्लादकारी और प्रकाशमय है। उसने सूर्य को सात रंगों की किरणोंवाला बनाया है। हमारे शरीर में सात प्राणशक्तियों की स्थापना की है, जिससे शरीरस्थ सप्तर्षि व सस होता पूर्ण स्वस्थ रहते हैं। इसप्रकार सूर्यप्रकाश में प्रभु की महिमा को देखनेवाले ब्राह्मण की हिंसा करना महापाप है।

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    भाषार्थ

    (कश्यप) हे सर्वद्रष्टः ! प्रभो ! (ते) तेरा (यत्) जो (चन्द्रम्) चांदी के सदृश (रोचनावद्) रुचिकारक चांद है, (यत्) और जो (संहितम्) निज ग्रह-उपग्रहों के साथ सन्धि अर्थात् मेल को प्राप्त (पुष्कलम्) पुष्टिकारक, (चित्रभानु) चित्रविचित्र किरणों वाला सूर्यमण्डल है, तथा (यस्मिन्) जिस तुझ में (सप्त सूर्याः) सप्तरंगी ७ प्रकार के सूर्य (साकम्) परस्पर मिल कर (आर्पिताः) समर्पित हुए हुए हैं (तस्य देवस्य ..... पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)

    टिप्पणी

    [मन्त्र में गुण प्रदर्शक पदों द्वारा दो अभिधेयों को सूचित किया है। चन्द्रम् का अर्थ है चांदी। इस पद द्वारा शुभ्र किरणों वाले रोचक चांद का वर्णन किया है। "यत्" पद के दोबारा पठन द्वारा सूर्यमण्डल को सूचित किया है जिस की कि किरणें पुष्टिदायक और चित्र विचित्र है। वर्षाकाल में मेघों में इन्द्रधनुष के रूप में सूर्य की चित्र विचित्र किरणों की आभा प्रकट होती है। द्युलोक में जितने भी विविध प्रकार के सूर्य हैं, अर्थात् स्वयं प्रकाशी चमकते तारा नक्षत्र हैं, वे रंगों की दृष्टि से ७ प्रकार के हैं। कोई लाल, कोई सन्तरिया, कोई पीला, कोई हरा, कोई नीला आकाशीय रंगवाला कोई इण्डिगो के पौधे से निकले नील वर्ण के सदृश, और कोई बैंगनी वर्णवाला है। ये सब मिलकर परमेश्वर में आश्रय पाए हुए हैं। मन्त्र में परमेश्वर की महिमा का वर्णन हुआ है। पुष्कलम् = पुष्करम्, रलयोरभेदात्। कश्यप= पश्यक; आद्यन्त विपर्यासः। छान्दोग्य तथा बृहदारण्यक उपनिषदों में भी वर्णभेद के आधार पर सूर्यो का वैविध्य दर्शाया है। यथा "असौ वा आदित्यः पिङ्गल एष शुल्क एष नील एष पीत एष लोहितः" (छान्दो० अध्या० ८, खण्ड ६ (१) । तथा "तस्मिन शुल्कमुत नीलमाहुः पिङ्गलं हरितं लोहितं च" (बृहदा० अध्या० ४, ब्रा० ४ (९)। विशेषः–“सप्त सूर्याः” के सम्बन्ध में यह जानना आवश्यक है कि द्युलोक में जो नक्षत्र और तारा गण रात्रि के समय दृष्टिगोचर होते हैं उन में दीखने वाले सौर ग्रहों को छोड़ कर, अवशिष्ट नक्षत्र तथा तारागण सूर्य रूप हैं, स्वतःप्रकाशी हैं। इन सब का विभाजन (Classification) "सप्त सूर्याः" द्वारा किया गया है, अर्थात् वैदिक दृष्टि से ये सब सूर्य मूल भूत (Primary) सात-रंगों अर्थात् सप्त-वर्णों में विभक्त किये गए हैं, तथा कतिपय ये सूर्य ऐसे भी हैं, जो कि मूलभूत रंगों के मिश्रण द्वारा उत्पन्न मिश्रित रंगों वाले भी है१, मूलभूत या Primary Colours Red, Orange, Yellow, Green, Blue, Indigo, Violet. वर्षा ऋतु में इन्द्रधनुष (RainBow) में ये सात रंग या वर्ण दृष्टि गोचर होते हैं, तथा Prism में से सूर्य की किरणों के गुजरने पर भी]। [१. कतिपय उदाहरण, यथा (१) Bluish-white star लुब्धक (Sirius), मृगव्याधमण्डल में पृष्ठ ४६ । (२) Yellowish Like sun पूषा पृष्ठ ७७। (३) Yellow colour ब्रह्महृदय तारा, The goat star, पृष्ठ ७४ (४) Deep yellow or Reddish colour रोहिणी, Aldebaran शकटाकृतिः, वृष राशि में पृष्ठ ८६ (५) Gold-like, yellow colour sword-fish, पृष्ठ ८९। A very rod star, R. dorodus, पृष्ठ ८९। (७) Bluish-white coloured or green coloured star २ मिथुनस्य, पृष्ठ ९६। विशेष- In the Vedas the star; लुब्धक is said to be of पिशङ्ग Reddish-Yellow colour, But at Present the star; लुब्धक is one of the intensely white stars, in the Heavens, पृष्ठ १२४। लुब्धक यह जब यह पैदा हुआ था तो यह तारा Reddish-Yellow था, परन्तु वर्तमान में अति शूल्क है। देखो उपरिप्रदत्त नक्षत्र छान्दोग्य तथा बृहदारण्यक उपनिषद।Reddish-Yellow =Orange? इन्द्रधनुष का २ वर्ण। ये कतिपय उदाहरण "Popular Hindu Astronomy" ग्रन्थकार कालिनाथ मुखर्जी, New inpression १९६९ की पृष्ठ संख्याओं से दिये गए हैं।]

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    विषय

    रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (कश्यप) सर्वद्रष्टा पश्यक ! परमेश्वर (यत्) जो (ते) तेरा (चन्द्रम्) सर्व आह्लादकारी (रोचनावत्) दीप्तियुक्त (पुष्कलम्) पुष्टिकारी, बलद, अतिअधिक (संहितम्) एकत्र संचित (चित्रभानु) विविध कान्तिमय, दीप्तिमय, प्रकाशस्वरूप रूप है (यस्मिन्) जिसमें (सूर्याः) सूर्य के समान देदीप्यमान, तेजस्वी (सप्त) सात भुवन और प्राण भी (साकम्) एक साथ ही (अर्पिताः) आश्रित हैं। (तस्य०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘पुष्करम्’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    O Kashyapa, lord divine of universal eye all¬ watching, beautiful, gracious and refulgent is your glory, which is the concentrated, abundant and wondrous sun of radiant light in which are integrated the various mutations of seven rays of the spectrum. To that presence of yours, Brahma reflected in the sun, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler risen high and self-refulgent, shake up that person, punish him down to naught, extend the arms of law, justice and correction to the Brahmana- violator.

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    Translation

    O discerner (Kasyapa) Lord, what is shiningly pleasing of yours, (and) what is the concentrated, abundant wonderful light, and wherein the seven suns are set together -- to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.

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    Translation

    He who .. who is all-visioned Lord, whose light is allblessed, refulgent, plentiful, integrated and wonderful, in whom the seven sun may be gathered together.

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    Translation

    O All-seeing God, Thy nature is Joyful, Refulgent, Strength-infusing, Constant, Lustrous. Under Thy Law, the seven rays of the Sun are gathered together. This God is wroth offended by the sinner who vexes theBrahman who hath gained this knowledge. Terrify him, G King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant !

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(यत्) (ते) तव (चन्द्रम्) स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। चदि आह्लादने दीप्तौ च-रक्। आह्लादकं कर्म (कश्यप) पश्यक (रोचनवत्) रुचियुक्तम् (यत्) (संहितम्) एकीकृतम् (पुष्कलम्) कलँश्च। उ० ४।५। पुष पुष्टौ-कलन्। पोषणकर्म, (चित्रभानु) विचित्रदीप्ति (यस्मिन्) परमेश्वरनियमे (सूर्याः) अ० ९।४।१४। षू प्रेरणे-क्यप्, टाप्। सूर्या सूर्यस्य पत्नी-निरु० १२।७। सूर्यकिरणाः (अर्पिताः) स्थापिताः (सप्त) शुक्लनीलादिसप्तवर्णाः (साकम्) सह ॥

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