अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - विराट् उष्णिक्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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ऐन॒मापो॑गच्छ॒त्यैनं॑ श्र॒द्धा ग॑च्छ॒त्यैनं॑ व॒र्षं ग॑च्छति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒न॒म् । आप॑: । ग॒च्छ॒ति॒ । आ । ए॒न॒म् । श्र॒ध्दा । ग॒च्छ॒ति॒ । आ । ए॒न॒म् । व॒र्षम् । ग॒च्छ॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐनमापोगच्छत्यैनं श्रद्धा गच्छत्यैनं वर्षं गच्छति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठआ । एनम् । आप: । गच्छति । आ । एनम् । श्रध्दा । गच्छति । आ । एनम् । वर्षम् । गच्छति । य: । एवम् । वेद ॥७.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्माकी व्यापकता का उपदेश।
पदार्थ
(एनम्) उस [विद्वान्]पुरुष को (आपः) सत्कर्म (आ) आकर (गच्छति) मिलता है, (एनम्) उस को (श्रद्धा)श्रद्धा [धर्म में प्रतीति] (आ) आकर (गच्छति) मिलती है, (एनम्) उसको (वर्षम्)श्रेष्ठपन (आ) आकर (गच्छति) मिलता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) ऐसे वा व्यापक [व्रात्य परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥३॥
भावार्थ
जब मनुष्य परमात्मा कोजान लेता है, तब वह सुकर्मी श्रद्धावान् और श्रेष्ठ होकर उन्नति करता है॥३॥
टिप्पणी
३−(आ) आगत्य (एनम्) विद्वांसं पुरुषम् (आपः) म० २। सुकर्म (गच्छति)प्राप्नोति। अन्यद् गतं स्पष्टं च-म० २ ॥
विषय
महिमा-सद्रुः, समुद्रः
पदार्थ
१. (स:) = वह व्रात्य (महिमा) = [मह पूजायाम] पूजा की वृत्तिवाला-प्रभुपूजनपरायण तथा (सद्रुः) = द्रुतगति से युक्त-अतिकर्मनिष्ठ (भूत्वा) = होकर (पृथिव्याः अन्तम्) = पृथिवी के अन्त को पार्थिव भागों की समाप्ति को (आगच्छत्) = प्राप्त हुआ और परिणामतः (सः) = वह व्रात्य (समुद्रः) = अत्यन्त आनन्द-[मोद]-मय जीवनवाला हुआ। पार्थिव भागों से ऊपर उठकर प्रभुस्मरणपूर्वक कर्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होना ही आनन्द का मार्ग है। २. (तम्) = उस व्रात्य को (प्रजापति: च परमेष्ठी च) = प्रजारक्षक, परम स्थान में स्थित प्रभु, (पिता च पितामहः च) = पिता और पितामह, (आपः च श्रद्धा च) = [आपः रेतो भूत्वा] शरीरस्थ रेत:कण और श्रद्धा की भावना (वर्ष भूत्वा) = आनन्द की वृष्टि का रूप धारण करके (अनुवर्तयन्त) = अनुकूलता से कर्मों में प्रवृत्त करते हैं। 'प्रभु प्रेरणा, बड़ों की प्रेरणा तथा शक्ति और श्रद्धा' इसे कर्तव्य-कर्मों में प्रेरित करते हैं। यह उन्हीं में आनन्द का अनुभव करता है। ३. (एनम्) = इस व्रात्य को आप: शरीरस्थ रेत:कण (आगच्छन्ति) = समन्तात् प्राप्त होते है। (एनम्) = इसे श्रद्धा-श्रद्धा आगच्छति-प्राप्त होती है। (एनम्) = इसे (वर्षम्) = आनन्द की वृष्टि (आगच्छति) = प्राप्त होती है। ये उस व्रात्य को प्राप्त होती हैं जो (एवं वेद) = इस प्रकार कर्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होने के महत्व को समझ लेता है। वह यह समझ लेता है कि परमेष्ठी बनने का उपाय प्रजापति बनना ही है, अर्थात् सर्वोच्च स्थिति तभी प्राप्त होती है जब हम प्रजारक्षणात्मक कर्मों में प्रवृत्त हों।
भावार्थ
व्रात्य प्रभुपूजन-परायण होकर कर्तव्यकर्मों में लगा रहता है, पार्थिव भोगों से ऊपर उठकर आनन्दमय जीवनवाला होता है। इसे प्रभु-प्रेरणा, बड़ों की प्रेरणा तथा शक्ति और श्रद्धा सदा कर्मों में प्रेरित करती हैं।
भाषार्थ
(यः) जो योगी संन्यासी व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता और तदनुसार आचरण करता है, (एनम्) इस को भी (आपः) सर्वव्यापक परमेश्वर (आ गच्छति) अनुकूलरूप में प्राप्त होता है, (एनम्) इसे राजा आदि की (श्रद्धा) श्रद्धा (आगच्छति) प्राप्त होती है, (एनम्) इसे (वर्षम्) श्रद्धा की वर्षा (आ गच्छति) प्राप्त होती है ।
टिप्पणी
[आपः = परमेश्वरार्थ की दृष्टि से "आ गच्छति" में एकवचन। अथवा आपः = सुकर्म।]
विषय
व्रात्य की समुद्र विभूति।
भावार्थ
(यः एवं वेद) जो इसको साक्षात् जानता है (एनम्) उसको (आपः आगच्छन्ति) समस्त जल प्राप्त होते हैं। (एनं श्रद्धा आगच्छति) उसको श्रद्धा प्राप्त होती हैं। (एनं वर्षं आगच्छति) उसको वर्षा प्राप्त होती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ त्रिपदानिचृद गायत्री, २ एकपदा विराड् बृहती, ३ विराड् उष्णिक्, ४ एकपदा गायत्री, ५ पंक्तिः। पञ्चर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Activity and action, faith and love, and showers of generosity reach and bless him that knows this.
Translation
Water comes to him, faith comes to him, the rain comes to him, who knows it thus.
Translation
Waters come to him, faith comes to him, rain comes to him who possesses the knowledge of this.
Translation
Noble deeds, religious faith approach him who possesses this knowledge of God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(आ) आगत्य (एनम्) विद्वांसं पुरुषम् (आपः) म० २। सुकर्म (गच्छति)प्राप्नोति। अन्यद् गतं स्पष्टं च-म० २ ॥
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