अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
ऋषिः - आदित्य
देवता - साम्नी उष्णिक्
छन्दः - ब्रह्मा
सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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स्वा॒सद॑सि सू॒षाअ॒मृतो॒ मर्त्ये॒श्वा ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽआ॒सत् । अ॒सि॒ । सु॒ऽउ॒षा : । अ॒मृत॑: । मर्त्ये॑षु । आ ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वासदसि सूषाअमृतो मर्त्येश्वा ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽआसत् । असि । सुऽउषा : । अमृत: । मर्त्येषु । आ ॥४.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
आयु की वृद्धि के लिये उपदेश।
पदार्थ
[हे आत्मा !] तू (स्वासत्) सुन्दर सत्तावाला, (सूषाः) सुन्दर प्रभातोंवाला [प्रभात के प्रकाश केसमान बढ़नेवाला] (आ) और (मर्त्येषु) मनुष्यों के भीतर (अमृतः) अमर (असि) है ॥२॥
भावार्थ
जो मनुष्य यह विचारतेहैं कि यह आत्मा जो बड़े पुण्यों के कारण इस मनुष्यशरीर में वर्तमान है, वहप्रभात के प्रकाश के समान उन्नतिशील और अमर अर्थात् नित्य और पुरुषार्थी है, वे संसार में बढ़ती करके यश पाते हैं ॥२॥
टिप्पणी
२−(स्वासत्) सु+आस सत्तायाम्-शतृ।शोभनसत्तावान् (असि) हे आत्मन् त्वं भवसि (सूषाः) उषः किच्च। उ० ४।२३४। सु+उषदाहे-असि। शोभना उषसो यस्य सः। प्रभातवेलाप्रकाशतुल्यप्रवर्धमानः (अमृतः) अमरः।नित्यः पुरुषार्थी (मर्त्येषु) मनुष्येषु (आ) समुच्चये ॥
विषय
सूषा
पदार्थ
१. (स्वासत् असि) [स्व आ सत] = तु सब ओर से इन्द्रिय-वृत्तियों को प्रत्याहृत करके अपने में आसीन होनेवाला है। प्रतिदिन ध्यान में स्थित होकर आत्मनिरीक्षण करने की प्रवृत्तिवाला है और इसलिए (सूषा:) = [सु उष्] दोर्षों को सम्यक् दग्ध करनेवाला है [उष दाहे]। दोषों को दग्ध करके तू (मत्येषु) = मरणधर्मा पुरुषों में (अमृतः) = अमृत बना है। न तो तू विषयों के पीछे मारा मारा फिरता है [अ मृत] और न ही तू रोगों का शिकार होता है [एकशतं मृत्यवः] । संसार में फैले हुए सैकड़ों रोगों का तू शिकार नहीं होता।
भावार्थ
हम प्रतिदिन अपने अन्दर आसीन होनेवाले हों-आत्मनिरीक्षण करें और दोषों को दग्ध करके अमृत बनें।
भाषार्थ
हे परमेश्वर ! आप (स्वासद्=सु+आ+सद्) प्रशस्त रूप में सर्वत्र स्थित (असि) हैं, व्यापक है, (सूषाः) जगदुत्पादक अथवा आध्यात्मिक-उषा के उत्पादक है, (मर्त्येषु आ) मर्त्यों में (अमृतः) आप अमृत हैं।
टिप्पणी
[सूषाः=सू (प्रसवे)+षाः (षणु दाने), अथवा "सू+उषाः" = अध्यात्मज्योति का उत्पादक। आ=अध्यर्थे (निरु० ५।१।५)। अथवा सु+उषाः= सुन्दर उषा का उत्पादक]
विषय
संकल्प-शक्ति
शब्दार्थ
मैं (सुभगाम्) उत्तम सौभाग्यदात्री (देवीम्) दिव्यगुणो से युक्त (आकृतिम् ) संकल्प-शक्ति को (पुरः दधे) सम्मुख रखता हूँ (चित्तस्य माता) चित्त की निर्मात्री वह संकल्प-शक्ति (न:) हमारे लिए (सुहवा) सुगमता से बुलाने योग्य (अस्तु) हो । (याम्) जिस (आशाम्) कामना को (एमि) करूँ (सा) वह कामना (केवली) पूर्णरूप से (मे अस्तु) मुझे प्राप्त हो । (मनसि) मन में (प्रविष्टाम्) प्रविष्ट हुई (एनान्) इस संकल्प-शक्ति को (विदेयम्) मैं प्राप्त करूँ ।
भावार्थ
१. किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए संकल्प-शक्ति को सबसे आगे रखना चाहिए । बिना संकल्प के सिद्धि असम्भव है । २. संकल्प-शक्ति दिव्य गुणोंवाली है। इसके द्वारा हम आश्चर्यजनक कार्यों को कर सकते हैं । ३. संकल्प-शक्ति ऐश्वर्य, श्री और यशरूप भग को देनेवाली है । ४. संकल्प-शक्ति चित्त का निर्माण करनेवाली है। चित्त की कार्यक्षमता और कुशलता संकल्प-शक्ति पर ही निर्भर है । ५. संकल्प-शक्ति हमारे लिए सहज में ही बुलाने योग्य हो अर्थात् सर्वदा हमारे वश में हो। ६. संकल्प-शक्ति से प्रत्येक कामना पूर्णरूप से सिद्ध हो जाती है । ७. मन में प्रविष्ट हुई इस संकल्प-शक्ति को प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए ।
विषय
रक्षा, शक्ति और सुख की प्रार्थना।
भावार्थ
हे आत्मन् तू (सु-आसत्) उत्तम आसन वाला और (सु-ऊषाः) प्रभात के समान उत्तम प्रकाशवान्, पापों का दण्ड करने वाला है वह ही (मर्त्येषु) मरण धर्मा मनुष्यों में (अमृतः) अमृत, नित्य है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आदित्यो देवता। १, ३ सामन्यनुष्टुभौ, २ साम्न्युष्णिक्, ४ त्रिपदाऽनुष्टुप्, ५ आसुरीगायत्री, ६ आर्च्युष्णिक्, ७त्रिपदाविराङ्गर्भाऽनुष्टुप्। सप्तर्चं चतुर्थ पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Atma-Aditya Devata
Meaning
You are well settled at peace, rising like the holy dawn, and immortal among mortals.
Translation
You are self-seated, enjoyer of good dawn, an immortal among mortals.
Translation
O soul, you taking your good seat (inside the heart) and having, splendor like dawn are the immortal among moretals.
Translation
O soul, thou possesses! exquisite goodness; thou art beautiful like theDawn, Thou art immortal amongst the mortals.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(स्वासत्) सु+आस सत्तायाम्-शतृ।शोभनसत्तावान् (असि) हे आत्मन् त्वं भवसि (सूषाः) उषः किच्च। उ० ४।२३४। सु+उषदाहे-असि। शोभना उषसो यस्य सः। प्रभातवेलाप्रकाशतुल्यप्रवर्धमानः (अमृतः) अमरः।नित्यः पुरुषार्थी (मर्त्येषु) मनुष्येषु (आ) समुच्चये ॥
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