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अथर्ववेद के काण्ड - 16 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 13
    ऋषिः - दुःस्वप्ननासन देवता - आसुरी त्रिष्टुप् छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त
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    स मा जी॑वी॒त्तंप्रा॒णो ज॑हातु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । मा । जी॒वी॒त् । तम् । प्रा॒ण: । ज॒हा॒तु॒ ॥७.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स मा जीवीत्तंप्राणो जहातु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । मा । जीवीत् । तम् । प्राण: । जहातु ॥७.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 7; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रु के नाश करने का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [कुमार्गी] (मा जीवीत्) न जीता रहे, (तम्) उसको (प्राणः) प्राण (जहातु) छोड़ देवे ॥१३॥

    भावार्थ

    प्रतापी राजादुराचारियों को सर्वथा नाश करके प्रजापालन करे ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(सः) दुष्टः (मा जीवीत्)नैव प्राणान् धारयेत् (तम्) दुष्टम् (प्राणः) जीवनम् (जहातु) त्यजतु ॥

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    विषय

    प्रभु का आदेश

    पदार्थ

    १. दोषविनाश के लिए पुत्र द्वारा की गई प्रतिज्ञा को सुनकर प्रभु उसे उत्साहित करते हुए कहते हैं कि (तं जहि) = उस दोष को नष्ट कर डाल और (तेन) = उस दोषविनाश से (मन्दस्व) = आनन्द का अनुभव कर । तुझे दोषविनाश में ही आनन्द प्राप्त हो। (तस्य) = उस दोष की, (पृष्टी: अपि) = पसलियों को भी (शृणीहि) = नष्ट कर डाल। २. (स: मा जीवीत्) = वह मत जीवे। (तं प्राणो जहातु) = उसको प्राण छोड़ जाए। यहाँ दोष को पुरुषविध कल्पित करके उसे विनष्ट करने का उपदेश दिया गया है।

    भावार्थ

    परमपिता प्रभु उपदेश देते हैं कि हे जीव! तू दोषविनाश में ही आनन्द लेनेवाला बन। दोषरूप पुरुष को पसलियों को तोड़ दे, उसे निष्प्राण कर दे।

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    भाषार्थ

    (सः) वह दुःष्वप्न्य (मा)(जीवीत्) जीवित रहे, न पुनः प्राण धारण कर सके, (तम्) उसे (प्राणः) उस का प्राण (जहातु) परित्यक्त कर दे ||१३||

    टिप्पणी

    [मन्त्रों में दुष्वप्न्य की पौर्वकालिक विद्यमानता का वर्णन कर, उस के उद्भव कालों का वर्णन हुआ है; व्यक्ति अपने-आप को उस दुष्वप्न्य को छोड़ने और उससे अपने-आप को सुरक्षित करने का दृढ़ संकल्प करता है, और अपने पुत्र को निज दुःस्वप्नों की समाप्ति द्वारा सुखी और प्रसन्न रहने के लिए प्रेरित करता है। दुःष्वप्नों के विनाश से दुष्वप्न्य अर्थात् दुःस्वप्नों के दुष्परिणाम स्वयमेव विनष्ट हो जाते हैं। दुःस्वप्नों की पृष्ठभूमि है कुविचार तथा अशिवसंकल्प आदि। इसी पृष्ठभूमि से दुःष्वप्न उपजते हैं। अव दये = दय् = दान गति, रक्षण, हिंसा, आदान। जहि = मन्त्रों में आनुवंशिक दुष्वप्न्य का वर्णन प्रतीत होता है, अतः “जहि" द्वारा पिता का कथन पुत्र के प्रति सम्भावित है। 'यद् जाग्रद् यद् दिवा' द्वारा जाग्रद दुष्वप्न्य का भी वर्णन इन मन्त्रों में हुआ है (१६।२।६।९)]

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    विषय

    शत्रुदमन।

    भावार्थ

    हे दण्डकर्त्तः ! (तं जहि) उस अपराधी को दण्ड दे। (तेन मन्दस्व) उस अपराधी, दण्डनीय पुरुष से तू क्रीड़ा कर, उसका नाक कान काट कर लीला कर। और (तस्य) अमुक अपराधी पुरुष की (पृष्टीः अपि शृणीहि) पसलियों को भी तोड़ डाल। (सः) वह अमुक अपराधी (मा जीवीत्) न जीवे। ओर (तं प्राणः जहातु) उस अपराधी को प्राण त्याग दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    यमऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। १ पंक्तिः। २ साम्न्यनुष्टुप्, ३ आसुरी, उष्णिक्, ४ प्राजापत्या गायत्री, ५ आर्च्युष्णिक्, ६, ९, १२ साम्नीबृहत्यः, याजुपी गायत्री, ८ प्राजापत्या बृहती, १० साम्नी गायत्री, १२ भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप्, १३ आसुरी त्रिष्टुप्। त्रयोदशर्चं सप्तमं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atma-Aditya Devata

    Meaning

    Let the evil dream not live at all, let it not breathe, let the life breath forsake it.

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    Translation

    May he not live; may the vital breath quit him. (part of Av. X.5.25)

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    Translation

    Let not that be alive and let the life’s breath leave that.

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    Translation

    Let him not live. Let the breath of life forsake him.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(सः) दुष्टः (मा जीवीत्)नैव प्राणान् धारयेत् (तम्) दुष्टम् (प्राणः) जीवनम् (जहातु) त्यजतु ॥

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