अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 49/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपथः, भरद्वाजः
देवता - रात्रिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रात्रि सूक्त
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भ॒द्रासि॑ रात्रि चम॒सो न वि॒ष्टो विष्व॒ङ्गोरू॑पं युव॒तिर्बि॑भर्षि। चक्षु॑ष्मती मे उश॒ती वपूं॑षि॒ प्रति॒ त्वं दि॒व्या न क्षा॑ममुक्थाः ॥
स्वर सहित पद पाठभ॒द्रा। अ॒सि॒। रा॒त्रि॒। च॒म॒सः। न। वि॒ष्टः। विष्व॑ङ्। गोऽरू॑पम्। यु॒व॒तिः॒। बि॒भ॒र्षि॒। चक्षु॑ष्मती। मे॒। उ॒श॒ती। वपूं॑षि। प्रति॑। त्वम्। दि॒व्या। न। क्षाम्। अ॒मु॒क्थाः॒ ॥४९.८॥
स्वर रहित मन्त्र
भद्रासि रात्रि चमसो न विष्टो विष्वङ्गोरूपं युवतिर्बिभर्षि। चक्षुष्मती मे उशती वपूंषि प्रति त्वं दिव्या न क्षाममुक्थाः ॥
स्वर रहित पद पाठभद्रा। असि। रात्रि। चमसः। न। विष्टः। विष्वङ्। गोऽरूपम्। युवतिः। बिभर्षि। चक्षुष्मती। मे। उशती। वपूंषि। प्रति। त्वम्। दिव्या। न। क्षाम्। अमुक्थाः ॥४९.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
रात्रि में रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(रात्रि) हे रात्रि ! तू (विष्टः) परोसे हुए (चमसः न) अन्नपान्न के समान (भद्रा) कल्याणी (असि) है, (युवतिः) युवती [बलवती] तू (विष्वङ्) सम्पूर्ण (गोरूपम्) गौ के स्वभाव को (बिभर्षि) धारण करती है। (चक्षुष्मती) नेत्रवाली, (उशती) प्रीति करती हुई (त्वम्) तूने (मे) मेरे लिये (दिव्या) आकाशवाले (वपूंषि न) शरीरों के समान (क्षाम्) पृथिवी को (प्रति अमुक्थाः) ग्रहण किया है ॥८॥
भावार्थ
जैसे गौ दुग्ध आदि से उपकार करती है, वैसे ही रात्रि शीतलता आदि से अन्न आदि की वृद्धि करती है, और जैसे आकाश के तारों से रात्रि शोभायमान होती है, वैसे ही वृक्ष, पुष्प, आदि रात्रि की शीतलता वा ओस से हरे-भरे होकर पृथिवी को सुन्दर बनाते हैं ॥८॥
टिप्पणी
८−(भद्रा) कल्याणी (असि) भवसि (रात्रि) (चमसः) अन्नपात्रम् (न) इव (विष्टः) परिविष्टः परिष्कृतः (विष्वङ्) विषु+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। सम्पूर्णम् (गोरूपम्) धेनुसमानोपकारित्वम् (युवतिः) यौवनवती। बलवती त्वम् (बिभर्षि) धारयसि (चक्षुष्मती) दर्शनशक्तियुक्ता (मे) मह्यम् (उशती) कामयमाना (वपूंषि) शरीराणि (त्वम्) (दिव्या) दिवि आकाशे भवानि शरीराणि (न) इव (क्षाम्) क्षि निवासगत्योः-डप्रत्ययः, टाप्। पृथिवीम्-निघ० १।१। (प्रति अमुक्थाः) स्वीकृतवती, गृहीतवती ॥
भाषार्थ
(विष्टः) परोसे हुए (चमसः न) अन्नपात्र के सदृश (रात्रि) हे रात्रि! तू (भद्रा) सुखप्रदा (असि) है। (युवतिः) युवावस्थावाली हुई तू (विष्वङ्) सर्वत्र फैलकर (गोरूपम्) गौ के स्वभाव को (बिभर्षि) धारण करती है। (चक्षुष्मती) सूर्यरूपी प्रशस्त आँखवाली होकर, (उशती) कामना करती हुई (त्वम्) तूने, (मे) मेरे लिए (दिव्या=दिव्यानि, न) मानो दिव्य (वपूंषि) देहों को (प्रति अमुक्थाः) धारण किया है। जब कि तूने (क्षाम्) पृथिवी को (प्रति अमुक्थाः) त्याग दिया।
टिप्पणी
[चमसः= चमु अदने। चमसः= चमति भक्षयति येन सः (उणा० ३.११७)। युवतिः= मध्यरात्रिकाल में। गोरूपम्= गौ जैसे पालती है, वैसे मध्यरात्री सबको विश्राम द्वारा पालती है। प्रति अमुक्थाः=प्रति मुच्=धारण करना, तथा त्याग देना। यथा—“यज्ञोपवीतं प्रतिमुञ्च शुभ्रम्”; तथा “गृहीतप्रतिमुक्तस्य” (रघुवंश ४.४३), “अमुं तुरङ्ग प्रतिमोक्तुमर्हसि” (रघुवंश ३.४६)। दिव्या वपूंषि=दिन में दिव्यरूपों को। ये रूप या देह हैं—पर्वत, नदियाँ, वृक्ष तथा पार्थिव नानारूप। ये रूप दिन में ही दृष्टिगोचर होते हैं। यह कल्पना की गई है कि मानो रात्री ने रात्रीरूप को छोड़ कर दिन का रूप धारण कर लिया है। यहाँ यह निर्देश दिया है कि युवती स्त्री भी रात्रि के वस्त्रों को त्यागकर, दिन में विविध वेश-भूषा द्वारा अलंकृत होकर नानारूपों को धारण करे।]
विषय
भद्रा
पदार्थ
१. हे (रात्रि) = रात्रिदेवते! तू (विष्टः चमसः न) = परोसे हुए पात्र की भाँति (भद्रा असि) = कल्याण करनेवाली है। (युवति:) = बुराइयों को हमसे पृथक् करती हुई तथा अच्छाइयों को हमसे मिलाती हुई तू (विष्वङ्) = चारों ओर गति करनेवाले (गोरूपं बिभर्षि) = गोरूप को धारण करती है। गवादि पशुओं का तू धारण करनेवाली होती है। इन्द्रियों को पुन: रूपवाला, शरीर को सौन्दर्यवाला कर देती है। २. (मे उशती) = मेरे हित की कामना करती हुई (चक्षुष्मती) = हमारे रक्षण के लिए अनुग्रहबुद्धि से हमें देखती हुई (त्वम्) = तू (वपूंसि) = हमारे शरीरों को, (दिव्या) = मस्तिष्करूप धुलोक की शक्तियों को तथा (क्षाम्) = इस निवासस्थानभूत अन्नमयकोश को-स्थूलशरीर को (न प्रति अमुक्था:) = न छोड़नेवाली हो । तू हमारे शरीरों-मस्तिष्कों व अन्नमयकोश को भी ठीक बनानेवाली हो।
भावार्थ
रात्रि में रक्षण की व्यवस्था ठीक होने पर गवादि पशु सुरक्षित रहते हैं। निद्रा के ठीक आने पर हमारे शरीर, मस्तिष्क व अन्नमयकोश ठीक रहते हैं।
इंग्लिश (4)
Subject
Ratri
Meaning
O Night, harbinger of peace, satisfaction and joy, you are like a plate full of delicious food, or like a ladle full of ghrta for the holy fire. You thus bear the youthful form of the universal mother cow. Excited with love for us, bearing wondrous body forms and starry eyes, you do not forsake the earth, for our sake.
Translation
You are beautiful, O night, like a well-wrought bowl; a youthful maid, you assume all the aspects of a cow. Full of vision, full of desire, showing me your forms, like heavens, may you adorn this earth also.
Translation
This night is favourable to all like the full pot. This strong one assumes all forms of the twinkling stars. This splendid night having the nightly gleam compassing our excellent bodies does not leave the earth.
Translation
O Ratri, thou art benign and youthful. Thou filiest the world in the form of the earth like a ladle that is full of clarified butter. Ever vigilant and possessed of divine qualities, wishing well of all the persons related to me, never forsake this earth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(भद्रा) कल्याणी (असि) भवसि (रात्रि) (चमसः) अन्नपात्रम् (न) इव (विष्टः) परिविष्टः परिष्कृतः (विष्वङ्) विषु+अञ्चु गतिपूजनयोः-क्विन्। सम्पूर्णम् (गोरूपम्) धेनुसमानोपकारित्वम् (युवतिः) यौवनवती। बलवती त्वम् (बिभर्षि) धारयसि (चक्षुष्मती) दर्शनशक्तियुक्ता (मे) मह्यम् (उशती) कामयमाना (वपूंषि) शरीराणि (त्वम्) (दिव्या) दिवि आकाशे भवानि शरीराणि (न) इव (क्षाम्) क्षि निवासगत्योः-डप्रत्ययः, टाप्। पृथिवीम्-निघ० १।१। (प्रति अमुक्थाः) स्वीकृतवती, गृहीतवती ॥
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