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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 16
    ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
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    मू॒र्ध्नो दे॒वस्य॑ बृह॒तो अं॒शवः॑ स॒प्त स॑प्त॒तीः। राज्ञः॒ सोम॑स्याजायन्त जा॒तस्य॒ पुरु॑षा॒दधि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒र्धः। दे॒वस्य॑। बृ॒ह॒तः। अं॒शवः॑। स॒प्त। स॒प्त॒तीः। राज्ञः॑। सोम॑स्य। अ॒जा॒य॒न्त॒। जा॒तस्य॑। पुरु॑षात्। अधि॑ ॥६.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूर्ध्नो देवस्य बृहतो अंशवः सप्त सप्ततीः। राज्ञः सोमस्याजायन्त जातस्य पुरुषादधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मूर्धः। देवस्य। बृहतः। अंशवः। सप्त। सप्ततीः। राज्ञः। सोमस्य। अजायन्त। जातस्य। पुरुषात्। अधि ॥६.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सृष्टिविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (पुरुषात्) पुरुष [पूर्ण परमात्मा] से (अधि) अधिकारपूर्वक (जातस्य) उत्पन्न हुए (बृहतः) बड़े (देवस्य) प्रकाशमान सूर्य के (मूर्ध्नः) मस्तक की (सप्त) सात [वर्णवाली] (सप्ततीः) नित्य सम्बन्धवाली [अथवा सात गुणित सत्तर, चार सौ नब्बे अर्थात् असंख्य] (अंशवः) किरणें (राज्ञः) प्रकाशमान (सोमस्य) चन्द्रमा की [किरणें] (अजायन्त) प्रकट हुई हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    सृष्टिक्रम विचारनेवाले विद्वान् लोगों को जानना चाहिये कि परमात्मा के नियम से शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश और चित्र वर्णवाली अथवा असंख्य किरणें पृथिवी की अपेक्षा बड़े सूर्य से आकर चन्द्रमा को प्रकाशित करती हैं ॥१६॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र अन्य वेदों में नहीं है ॥ १६−(मूर्ध्नः) मस्तकस्य (देवस्य) प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (बृहतः) पृथिव्यादिलोकेभ्यो महतः (अंशवः) किरणाः (सप्त) अ० ९।५।१५ सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। षप समवाये-कनिन् तुट् च। शुक्लनीलपीतादिसप्तवर्णाः (सप्ततीः) वहिवस्यर्त्तिभ्यश्चित्। उ० ४।६०। षप समवाये-अति प्रत्ययः, चित् तुट् च, यथा वेतसशब्देऽपि−उ० ३।११८। छान्दसं रूपम्। सप्ततयः। नित्यपरस्परसम्बद्धाः। अथवा (सप्त सप्ततीः) सप्त सप्ततयः सप्तगुणितसप्ततिसंख्याका दशोनपञ्चशतसंख्याकाः। असंख्या इत्यर्थः (राज्ञः) दीप्यमानस्य (सोमस्य) चन्द्रलोकस्य (अजायन्त) प्रादुरभवन् (जातस्य) उत्पन्नस्य (पुरुषात्) पूर्णात् परमेश्वरात् (अधि) अधिकारपूर्वकम् ॥

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    विषय

    देवस्य, बृहतः, राज्ञः, सोमस्य

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में 'पुरुषपशु' के बन्धन का उल्लेख है। उस (पुरुषात्) = पौरुषयुक्त 'काम' से (अधिजातस्य) = ऊपर उठे हुए इस साधक के मन-मस्तिष्क से (समती:) = [सप् समवाये] सब विद्याओं को अपने में समवेत करनेवाली सप्त-सात गायत्र्यादि छन्दों में बद्ध होने से सात संख्यावाली अंशव: ज्ञान की किरणें (अजायन्त) = प्रादुर्भूत होती हैं। इसके मस्तिष्क में इन सात छन्दों में बद्ध इन वेदवाणियों का प्रकाश होता है। यह उन वेदवाणियों के रहस्य को समझ पाता है। २. उस साधक के मस्तिष्क में इन वेदवाणियों का प्रादुर्भाव होता है जो (देवस्य) = दिव्य गुणयुक्त होता है, (बृहत:) = सब शक्तियों का वर्धन करनेवाला होता है तथा (राज्ञः) = अपनी इन्द्रियों का राजा होता है, अथवा बड़ी व्यवस्थित [regulated] क्रियाओंवाला होता है तथा (सोमस्य) = सौम्य स्वभाव का-शान्त प्रवृत्ति का होता है।

    भावार्थ

    हम अत्यन्त प्रबल 'काम' के नियमन के द्वारा ऊपर उठें। देव, बृहन्, राजा व सौम बनें-'दिव्यगुणोंवाले, प्रवृद्ध शक्तियोंवाले, व्यवस्थित जीवनवाले व सौम्य'। ऐसा बनने पर हमारे मस्तिष्क में सात छन्दों में बद्ध इन वेदवाणियों का प्रकाश होगा। गतमन्त्र के अनुसार वेदवाणियों का प्रकाश होने पर यह प्रभु-स्तोत्रों का उच्चारण करता है और अज्ञानान्धकार को निगल जाता है-सो 'गर्ग' कहलाता है [गिरति]। इसी पर बल देने के लिए कहते हैं कि यह गर्ग का पुत्र 'गार्य' बन गया है। यह गार्य ही अगले शूक्त का ऋषि है। इस ज्ञानी गार्ग्य का सब नक्षत्र [लोक-लोकान्तर] कल्याण ही करनेवाले होते हैं -

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    भाषार्थ

    (पुरुषात् अधि) परिपूर्ण परमेश्वर से (जातस्य) उत्पन्न हुए (मूर्ध्नः) सौरमण्डल के शिरोमणि, (देवस्य) प्रकाशमान, (बृहतः) सौरमण्डल में सब से बड़े सूर्य की (सप्ततीः सप्त) ७० सप्तक (अंशवः) रश्मियाँ (राज्ञः) प्रदीप्त (सोमस्य) चन्द्रमा की भी (अजायन्त) हो जाती हैं।

    टिप्पणी

    [देवस्य= देवो द्योतनात् (निरु० ७।४।१५)। अंशवः= किरणें, रश्मियाँ। राज्ञः=राजृ दीप्तौ। सोमस्य= चन्द्रमसः। सप्त सप्ततीः=सूर्य की किरणें, जो भूमि पर पड़ती हैं, वे श्वेत होती हैं। इन्हें जब Prism अर्थात् स्फटिक-मणि में से गुजारा जाता है, तो सूर्य की श्वेत किरणें ७ रंगोंवाली हो जाती हैं। इन्हें Prismatic colours कहते हैं। ये ७ रंगोंवाली किरणें क्रमशः निम्नलिखित हैं—Violet (बैंगनी), indigo (नील-रंगी), blue (आकाश जैसी नीली), green (हरी), yellow (पीली), orange (नारङ्गी रंगवाली), red (लाल)। इन सात प्रकार की किरणों के मेल से श्वेत किरण बनती है। इन सात किरणों को मन्त्र में सप्त (सप्तक) कहा है। सम्भवतः भिन्न-भिन्न स्तरों से गुजर कर आने के कारण सूर्य की किरणों के कई सप्तक होते हों, और ये सप्तति अर्थात् ७० होते हों। कतिपय सम्भवतः Violet से लघु-लघुतर तरङ्गोंवाले, और कतिपय red की अपेक्षा बृहत्-बृहत्तर लम्बी तरङ्गोंवाले। यह कल्पनामय विचार है। इस पर वैज्ञानिक अनुसंधान की आवश्यकता है। सूर्य की ही किरणें चन्द्रमा को प्रकाशित करती हैं, इसलिए चन्द्रमा पर पड़ी सौर-किरणें भी सम्भवतः सप्त सप्तती हों। वर्षा ऋतु में “इन्द्रधनुष” में ये सातरंगी किरणें स्पष्ट दिखाई देती हैं। सायणाचार्य “सप्तसप्ततीः” का अर्थ करते हैं ७×७०=४९०; और लिखते हैं कि सूर्य सहस्रांसु है, तो भी उसकी ४९० किरणें ही चन्द्रमा पर पड़ती हैं। तथा यह भी सम्भव है कि सूर्य से पृथक् हुआ रश्मिसप्तक, मार्ग में ७० स्तरों से गुजर कर चन्द्र पर पहुँचता हो, और प्रत्येक स्तर पर रश्मिसप्तक के गुणधर्मों में परिवर्तन हो जाने से ७० सप्तक कहे गये हों। तथा—परिपूर्ण परमेश्वर से उत्पन्न हुये (देवस्य) प्रकाश अर्थात् ज्ञानप्रकाश के आधारभूत मूर्धा अर्थात् सिर की ७० सप्तक या ७×७० अर्थात् ४९० रश्मियाँ अर्थात् ज्ञानतन्तु, शिरोगत सुषुम्णानाड़ी के ज्ञानतन्तु ज्ञानप्रकाश से प्रकाशित (सोमस्य) चित्त में प्रकट होते हैं। योगदर्शन के अनुसार चित्त की संविद् अर्थात् अनुभूति हृदय में होती है। यथा “हृदये चित्तसंवित्” (३.३४)। सम्भवतः शिरोगत ७० सप्तक हृदय में भी प्रकट होकर चित्त को प्रकाशित करते हों। सोम अर्थात् चन्द्रमा का सम्बन्ध मन के साथ दर्शाया गया है। यथा “चन्द्रमा मनसो जातः” (यजु० ३१.१२)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purusha, the Cosmic Seed

    Meaning

    Seven times seventy are the rays of the self- refulgent radiance of the sun on top born of the self- manifested Purusha, and so are the rays of the moon, light of the night, and so are the inspiring energies of soma, king of life-giving herbs.

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    Translation

    From the-head of the great, divine and shining moon, born of the Cosmic Man, seven times seventy rays are born.

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    Translation

    Come forth seven and seventy units of Soma. The world in form of virat which is the container of the parts of grossness which is great, which is mysterious, which is splendid and emerged from the Purusha, the matter under the control of PUrusha.

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    Translation

    Seven fold seventy i.e., four hundred and ninety subtle elements were produced from the great, shining, topmost and radiant Soma, the source of all energy and motion, created by the All-pervading God.

    Footnote

    The creation of 490 subtle elements from Soma is worth thorough research by the scientists of the modern age even.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र अन्य वेदों में नहीं है ॥ १६−(मूर्ध्नः) मस्तकस्य (देवस्य) प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (बृहतः) पृथिव्यादिलोकेभ्यो महतः (अंशवः) किरणाः (सप्त) अ० ९।५।१५ सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। षप समवाये-कनिन् तुट् च। शुक्लनीलपीतादिसप्तवर्णाः (सप्ततीः) वहिवस्यर्त्तिभ्यश्चित्। उ० ४।६०। षप समवाये-अति प्रत्ययः, चित् तुट् च, यथा वेतसशब्देऽपि−उ० ३।११८। छान्दसं रूपम्। सप्ततयः। नित्यपरस्परसम्बद्धाः। अथवा (सप्त सप्ततीः) सप्त सप्ततयः सप्तगुणितसप्ततिसंख्याका दशोनपञ्चशतसंख्याकाः। असंख्या इत्यर्थः (राज्ञः) दीप्यमानस्य (सोमस्य) चन्द्रलोकस्य (अजायन्त) प्रादुरभवन् (जातस्य) उत्पन्नस्य (पुरुषात्) पूर्णात् परमेश्वरात् (अधि) अधिकारपूर्वकम् ॥

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