अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी स॒द्य आ॑य॒मुपा॑तिष्ठे प्रथम॒जामृ॒तस्य॑। वाच॑मिव व॒क्तरि॑ भुवने॒ष्ठा धा॒स्युरे॒ष न॒न्वे॑३षो अ॒ग्निः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । स॒द्य: । आ॒य॒म् । उप॑ । आ॒ऽति॒ष्ठे॒ । प्र॒थ॒म॒ऽजाम् । ऋ॒तस्य॑ ।वाच॑म्ऽइव । व॒क्तरि॑ । भु॒व॒ने॒ऽस्था: । धा॒स्यु: । ए॒ष: । न॒नु । ए॒ष: । अ॒ग्नि: ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
परि द्यावापृथिवी सद्य आयमुपातिष्ठे प्रथमजामृतस्य। वाचमिव वक्तरि भुवनेष्ठा धास्युरेष नन्वे३षो अग्निः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । द्यावापृथिवी इति । सद्य: । आयम् । उप । आऽतिष्ठे । प्रथमऽजाम् । ऋतस्य ।वाचम्ऽइव । वक्तरि । भुवनेऽस्था: । धास्यु: । एष: । ननु । एष: । अग्नि: ॥१.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म के मिलने का उपदेश।
पदार्थ
(सद्यः) अभी (द्यावापृथिवी=०–व्यौ) सूर्य और पृथिवीलोक में (परि=परीत्य) घूमता हुआ (आयम्) मैं [प्राणी] आया हूँ (ऋतस्य) सत्यनियम के (प्रथमजाम्) पहिले से उत्पन्न करनेवाले [परमेश्वर] को (उप+आतिष्ठे) मैं प्राप्त होता हूँ, (इव) जैसे [श्रोता गण] (वक्तरि) वक्ता में [वर्त्तमान] (वाचम्) वाणी को [प्राप्त होते हैं।] (भुवनेष्ठाः) सम्पूर्ण जगत् में स्थित (एषः) यह परमेश्वर (धास्युः) पोषण करनेवाला और (ननु) अवश्य करके (एषः) यह (अग्निः) अग्नि [सदृश उपकारी वा व्यापक परमात्मा] है ॥४॥
भावार्थ
तत्त्ववेत्ता पुरुष सूर्य और पृथिवी आदि प्रत्येक कार्यरूप पदार्थ के आकर्षण, धारणादि का यथार्थज्ञान प्राप्त करके परमात्मा को साक्षात् करता है, जैसे श्रोता लोग वक्ता के बोलने पर उसकी वाणी के अभिप्राय को अपने आत्मा में ग्रहण करते हैं। वही ईश्वर वेदरूप सत्यनियम की सृष्टि के पहिले प्रकट करता और सब जगत् का धारण और पोषण करता रहता है, जैसे सूर्य का ताप अन्न आदि को परिपक्व करके और जाठर अग्नि भोजन को पचाकर और उससे रुधिर आदि को उत्पन्न करके शरीर को पुष्ट करता है ॥४॥ पातञ्जल योगदर्शन में वर्णन है–पाद ३ सूत्र २५। भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ॥ सूर्य में संयम से लोकों का ज्ञान [योगी को] होता है। अर्थात् वह सूर्य को केन्द्र मानकर सूर्य से लोकों का सम्बन्ध और परमेश्वर से सूर्य का सम्बन्ध अपनी विद्या द्वारा जान लेता है ॥
टिप्पणी
४–द्यावापृथिवी। दिवो द्यावा। पा० ६।३।२९। इति दिव् शब्दस्य द्यावा इत्यादेशः। देवताद्वन्द्वे। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।२।१४१। इत्युभयपदप्रकृतिस्वरत्वम्। द्यौश्च–पृथिवी च द्यावापृथिव्यौ। सूर्यभूमी। तदुपलक्षितं कृत्स्नं जगत्। सद्यः। सद्यः परुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। इति समान–द्यस् प्रत्ययो दिनार्थे, समानस्य सभावः। समानेऽहनि। सपदि। तत्क्षणे। तत्त्वज्ञानसमकालमेव। आयम्। इण् गतौ–लङ् उत्तमैकवचने गुणायादेशयोः अडागमः। अहं प्राप्तवानस्मि। उपातिष्ठे। उप+आ–तिष्ठे। उपेत्य स्थितोऽस्मि। नमस्करोमि। प्रथमजाम्। जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति जनी प्रादुर्भावजननयोः–विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्त्वम्। प्रथमं जनयतीति प्रथमजाः। सृष्टेः पूर्वं जनयितारम्, उत्पादकम्। ऋतस्य। ऋ गतौ–क्त। सत्यस्य। यथार्थज्ञानस्य। वेदविज्ञानस्य। वाचम्। क्विब् वचिप्रच्छिश्रिस्रुद्रुप्रुज्वां दीर्घोऽसंप्रसारणं च। उ० २।५७। इति वच कथने–क्विप्। दीर्घोऽसम्प्रसारणं च। वाणीम्। वाक्यम्। वक्तरि। वच कथने तृच्। उपदेशके। प्रयोक्तरि वर्तमानां वाचं श्रोतारो यथा प्रयोगसमकाले जानन्ति। भुवनेष्ठाः। भूसूधूभ्रस्जिभ्यश्छन्दसि। उ० २।८०। इति भू–क्युन्। भवन्त्यस्मिन् भूतानीति भुवनं जगत् ! आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति भुवन+ष्ठा गति निवृत्तौ–विच्। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इति सप्तम्या अलुक्। सर्वलोके परिपूर्णः परमात्मा। धास्युः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति डुधाञ् धारणपोषणयोः–असुन्। छन्दसि। परेच्छायामपि। वा० पा० ३।१।८। इति धास् क्यच्। क्याच् छन्दसि। पा० ३।२।१७०। इति उ प्रत्ययः। धा धारणं पोषणं जगत इच्छतीति धास्युः सर्वपोषणेच्छुः। अग्निः। अ० १।६।२। सर्वव्यापकः सर्वज्ञः परमेश्वरः। अग्निवत् पोषकः ॥
विषय
'धास्यु व अग्नि' प्रभु
पदार्थ
१. मैं (सद्य:) = शीघ्र (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक में (परि आयम्) = चारों ओर भ्रमण कर आया हूँ। इन द्युलोक एवं पृथिवीलोक के पदार्थों का मैंने निरीक्षण किया है। मैंने इनके अन्दर प्रभु की महिमा को देखने का प्रयत्न किया है। इसके अतिरिक्त (ऋतस्य) = उस पूर्ण सत्य प्रभु की (प्रथमजाम्) = सृष्टि के आरम्भ में आविर्भूत हुई-हुई वाणी को (उपातिष्ठे) = मैंने उपासित किया है। सृष्टि के आरम्भ में दिये गये वेदज्ञान का मैंने अध्ययन किया है। २. संसार के देखने से तथा वेदवाणी के अध्ययन से मैं इसी परिणाम पर पहुँचा है कि (वक्तरि वाचम् इव) = वक्ता में वाणी की भाँति (भुवनेष्ठा:) = ये प्रभु सम्पूर्ण भुवनों में स्थित हैं। जैसे वक्ता में सूक्ष्मरूप से वाणी का निवास है, उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उस सूक्ष्माति-सूक्ष्म प्रभु का निवास है। (एषः धास्यु:) = ये प्रभु ही इस ब्रह्माण्ड को धारण करनेवाले हैं। (नु) = निश्चय से (एष:) = ये प्रभु ही (अग्नि:) = अग्रणी हैं, सारे ब्रह्माण्ड को अग्रगति देनेवाले हैं।
भावार्थ
संसार का निरीक्षण व वेदज्ञान का परीक्षण हमें एक ही परिणाम पर पहुँचाता है कि वे सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रभु ही इसके धारक व अग्रणी हैं।
भाषार्थ
(द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक की (परि) परिक्रमा [मानसिक] करके (सदयः) शीघ्र ( आया ) मैं आया हूँ, (ऋतस्य) सत्य के (प्रथमजाम्) प्रथमोत्पादक परमेश्वर का (उपातिष्ठे) मैंने उपरथान किया है, उसकी उपासना की है । (वक्तरि) वक्ता में स्थित (वाचम् इव) वाणी को जैसे मनुष्य जान लेता है, वैसे मुझमें स्थित परमेश्वर को मैंने जान लिया है, (भुवनेष्ठाः) वह भुवन, अर्थात उत्पन्न ब्रह्माण्ड में स्थित है, अतः मुझमें भी स्थित है। (एष:) यह परमेश्वर (ननु) निश्चय से (अग्नि: ) सर्वाग्रणी है। (धास्युः) वह सबके धारण-पोषण को चाहता है। धा +असुन् + क्यच् ।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि व्यक्ति कहता है कि मैंने द्युलोक और पृथिवीलोक की मानसिक परिक्रमा कर शीघ्र जान लिया है कि वस्तुत: सारतत्व, जगत में एक ईश्वर ही है, अतः मैंने ईश्वर की ही उपासना की है। परमेश्वर मुझ में भी स्थित है, अतः मुझमें वह प्राप्त है। अतः इसकी उपासना के लिए मुझे अन्यत्र मन्दिर आदि में जाना नहीं होता, और न किसी अन्य देव की उपासना करनी पड़ती है, यतः परमेश्वर ही सर्वाग्रणी है।]
विषय
परमात्मदर्शन ।
भावार्थ
( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और पृथिवी लोक का (परि) परित्याग कर मैं (सद्यः) शीघ्र ही (आयम्) इस ब्रह्म की ओर आया हूँ और (ऋतस्य) सत्य नियमों के (प्रथमजाम्) प्रथमोत्पादक का (उपातिष्ठे) उपस्थान अर्थात् उपासना करता हूँ। (वक्तरि) वक्ता में (वाचम् इव) वाणी जैसे अव्यक्तरूप से स्थित रहती है वैसे ही यह ब्रह्म (भुवनेष्ठः) सब भुवनों में स्थित है, (एषः) यह ब्रह्म (धास्युः) जगद्धारण की इच्छा से भुवनों में स्थित है, ( ननु ) निश्चय से (एषः) यह ब्रह्म (अग्निः) अग्नि नाम वाला है ।
टिप्पणी
परिविश्वा भुवनान्ययमुपाचष्टे प्रथमजामृतस्य। वाचमिव यत्परिभुवनेष्ठः धास्रंनेषण [नन्वे] त्वेषो अग्निः। इति पैप्प० सं०। परिद्यावा पृथिवी सद्य इत्वा (यजु० ३२। १२ प्र०) उपस्थाय प्रथमजामृतस्य (यजुः ३२। ११ तृ०)
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वेन ऋषिः । ब्रह्मात्मा देवता । १, २, ४ त्रिष्टुभः | ३ जगती । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Supreme Abode
Meaning
I have gone round heaven and earth (in meditation and in the cycle of existence), and now I have come to stay by the first self-manifested of the order of creative evolution, that is, Hiranyagarbha, soul of the golden blue-print of the universe, who, like the Word existing at the heart of the speaker, abides all round and at the centre of the universe. This is the spirit, the light, the loving sustainer of existence, all pervasive Agni.
Translation
I have gone round the heaven and earth just now to approach the first born of the truth. This sustainer one stays within all the beings just as speech within the speaker. Surely, this one is adorable Lord.
Translation
I, the worldly soul (wandering in various localities in the series of birth) having traversed in the heavenly region and earth, now come across and have access to the first product of the law eternal like a voice in the speaker. The all Supporting Lord is the upholder of the worlds and surely He is the Agni, the self-refulgent God.
Translation
Having renounced the Earth and Heaven, I have come towards God. I worship the First Creator of true laws, just as voice remains hidden in the speaker, so does God stand unseen in the world. He is the Sustainer and Protector of all. He, verily is Agni. [1]
Footnote
[1] A learned sage renounces worldly objects for the attainment of God. God is the first Revealer of the Vedas, the encyclopedia of true laws. God is Refulgent like Agni, or just as fire is hidden in fuel, so is God hidden in all objects.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४–द्यावापृथिवी। दिवो द्यावा। पा० ६।३।२९। इति दिव् शब्दस्य द्यावा इत्यादेशः। देवताद्वन्द्वे। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णदीर्घः। देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।२।१४१। इत्युभयपदप्रकृतिस्वरत्वम्। द्यौश्च–पृथिवी च द्यावापृथिव्यौ। सूर्यभूमी। तदुपलक्षितं कृत्स्नं जगत्। सद्यः। सद्यः परुत्परार्यैषमः०। पा० ५।३।२२। इति समान–द्यस् प्रत्ययो दिनार्थे, समानस्य सभावः। समानेऽहनि। सपदि। तत्क्षणे। तत्त्वज्ञानसमकालमेव। आयम्। इण् गतौ–लङ् उत्तमैकवचने गुणायादेशयोः अडागमः। अहं प्राप्तवानस्मि। उपातिष्ठे। उप+आ–तिष्ठे। उपेत्य स्थितोऽस्मि। नमस्करोमि। प्रथमजाम्। जनसनखनक्रमगमो विट्। पा० ३।२।६७। इति जनी प्रादुर्भावजननयोः–विट्। विड्वनोरनुनासिकस्यात्। पा० ६।४।४१। इति आत्त्वम्। प्रथमं जनयतीति प्रथमजाः। सृष्टेः पूर्वं जनयितारम्, उत्पादकम्। ऋतस्य। ऋ गतौ–क्त। सत्यस्य। यथार्थज्ञानस्य। वेदविज्ञानस्य। वाचम्। क्विब् वचिप्रच्छिश्रिस्रुद्रुप्रुज्वां दीर्घोऽसंप्रसारणं च। उ० २।५७। इति वच कथने–क्विप्। दीर्घोऽसम्प्रसारणं च। वाणीम्। वाक्यम्। वक्तरि। वच कथने तृच्। उपदेशके। प्रयोक्तरि वर्तमानां वाचं श्रोतारो यथा प्रयोगसमकाले जानन्ति। भुवनेष्ठाः। भूसूधूभ्रस्जिभ्यश्छन्दसि। उ० २।८०। इति भू–क्युन्। भवन्त्यस्मिन् भूतानीति भुवनं जगत् ! आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति भुवन+ष्ठा गति निवृत्तौ–विच्। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इति सप्तम्या अलुक्। सर्वलोके परिपूर्णः परमात्मा। धास्युः। सर्वधातुभ्योऽसुन्। उ० ४।१८९। इति डुधाञ् धारणपोषणयोः–असुन्। छन्दसि। परेच्छायामपि। वा० पा० ३।१।८। इति धास् क्यच्। क्याच् छन्दसि। पा० ३।२।१७०। इति उ प्रत्ययः। धा धारणं पोषणं जगत इच्छतीति धास्युः सर्वपोषणेच्छुः। अग्निः। अ० १।६।२। सर्वव्यापकः सर्वज्ञः परमेश्वरः। अग्निवत् पोषकः ॥
बंगाली (3)
पदार्थ
(সদ্যঃ) এখনই (দ্যাবা পৃথিবী) সূর্য ও পৃথিলোকে (পরি) পরিভ্রমণ করিয়া (আয়ং) আমি আসিয়াছি (ঋতস্য) সত্য নিয়মের (প্রথমজাং) প্রথম হইতেই উৎপাদক পরমেশ্বরকে (উপ আ তিষ্ঠ) আমি প্রাপ্ত হই (ইব) যেমন শ্রোতারা (বক্তরি) বক্তাতে (বাচম্) বাণীকে প্রাপ্ত হয়। (ভূবনেষ্ঠাঃ) সম্পূর্ণ জগতে স্থিত (এষঃ) এই পরমেশ্বর (ধাস্যুঃ) পুষ্টিদাতা ও (ননু) অবশ্যই (এষঃ) এই (অগ্নিঃ) অগ্নি সদৃশ উপকারী ।।
भावार्थ
আমি প্রাণী এখনই সূর্য ও পৃথিবীলোক পরিভ্রমণ করিয়া আসিয়াছি। আমি হইতেই যিনি সত্য নিয়মের উৎপাদক সেই পরমেশ্বরকে শ্রোতারা যেমন বক্তার বাণীকে প্রাপ্ত হয় সেই রূপ প্রাপ্ত হই। সম্পূর্ণ জগতে অধিষ্ঠিত এই পরমেম্বর পুষ্ঠিদাতা ও অবশ্যই অগ্নি সদৃশ উপকারী।।
मन्त्र (बांग्ला)
পরি দ্যাবাপৃথিবী সদ্য আয়মুপাতিষ্ঠে প্রথমজামৃতস্য। বাচমিব বক্তরি ভুবনেষ্ঠা ধাস্যুরেষ নন্বে৩সো অগ্নিঃ।।
ऋषि | देवता | छन्द
বেনঃ। ব্রহ্ম, আত্মা। ত্রিষ্টুপ্
भाषार्थ
(দ্যাবাপৃথিবী) দ্যুলোক এবং পৃথিবীলোকের (পরি) পরিক্রমা [মানসিক] করে (সদ্যঃ) শীঘ্র (আয়ম্) আমি এসেছি/উপনীত হয়েছি, (ঋতস্য) সত্যের (প্রথমজাম্) প্রথমোৎপাদক পরমেশ্বরের (উপাতিষ্ঠে) নিকটে আমি উপস্থিত হয়েছি, উনার উপাসনা করেছি। (বক্তরি) বক্তার মধ্যে স্থিত (বাচম ইব) বাণীকে যেভাবে মনুষ্য জেনে নেয়/জ্ঞাত হয়, সেভাবেই আমার মধ্যে স্থিত পরমেশ্বরকে আমি জেনে নিয়েছি/জ্ঞাত হয়েছি, (ভুবনেষ্ঠাঃ) তিনি ভুবন, অর্থাৎ উৎপন্ন ব্রহ্মাণ্ডে স্থিত রয়েছেন, অতঃ আমার মধ্যেও স্থিত আছেন। (এষঃ) এই পরমেশ্বর (ননু) নিশ্চিতরূপে (অগ্নিঃ) সর্বাগ্রণী। (ধাস্যুঃ) তিনি সকলের ধারণ-পোষণ করেন। ধা+ অসুন্+ক্যচ ।
टिप्पणी
[উদ্দেশ্য হলো যে, ব্যক্তি বলছে, আমি দ্যুলোক এবং পৃথিবী-লোকের মানসিক পরিক্রমা করে শীঘ্রই জেনে নিয়েছি যে বস্তুতঃ সারতত্ত্ব, জগতে এক ঈশ্বর রয়েছেন, অতঃ আমি ঈশ্বরের উপাসনা করেছি। পরমেশ্বর আমার মধ্যেও স্থিত রয়েছেন, অতঃ আমার মধ্যেও তিনি প্রাপ্ত। অতঃ উনার উপাসনার জন্য আমাকে অন্যত্র মন্দির আদিতে যেতে হয় না, এবং না কোনো অন্য দেবতার উপাসনা করতে হয়, যতঃ পরমেশ্বরই সর্বাগ্রণী।]
मन्त्र विषय
ব্রহ্মপ্রাপ্ত্যুপদেশঃ
भाषार्थ
(সদ্যঃ) এখন (দ্যাবাপৃথিবী=০–ব্যৌ) সূর্য ও পৃথিবীলোকে (পরি=পরীত্য) পরিভ্রমণ করে (আয়ম্) আমি [প্রাণী] এসেছি (ঋতস্য) সত্যনিয়মের (প্রথমজাম্) প্রথম থেকে উৎপন্নকারী [পরমেশ্বর]কে (উপ+আতিষ্ঠে) আমি প্রাপ্ত হই, (ইব) যেমন [শ্রোতাগণ] (বক্তরি) বক্তার মধ্যে [বর্ত্তমান] (বাচম্) বাণীকে [প্রাপ্ত হয়।] (ভুবনেষ্ঠাঃ) সম্পূর্ণ জগতে স্থিত (এষঃ) এই পরমেশ্বর (ধাস্যুঃ) পোষণকারী এবং (ননু) অবশ্য (এষঃ) এই/ইনি (অগ্নিঃ) অগ্নি [সদৃশ উপকারী বা ব্যাপক পরমাত্মা] ॥৪॥
भावार्थ
তত্ত্ববেত্তা পুরুষ সূর্য ও পৃথিবী আদি প্রত্যেক কার্যরূপ পদার্থের আকর্ষণ, ধারণাদির যথার্থজ্ঞান প্রাপ্ত করে পরমাত্মার সাক্ষাৎ করে, যেমন শ্রোতাগণ বক্তার বক্তব্যে তাঁর বাণীর অভিপ্রায় নিজের আত্মায় গ্রহণ করে। সেই ঈশ্বর বেদরূপ সত্যনিয়মের সৃষ্টির প্রারম্ভে প্রকট করেন এবং সকল জগতের ধারণ ও পোষণ করতে থাকেন, যেমন সূর্যের তাপ অন্ন আদিকে পরিপক্ব করে এবং জাঠরাগ্নি ভোজনকে পরিপাক এবং তা থেকে রক্ত আদি উৎপন্ন করে শরীরকে পুষ্ট করে॥৪॥ পাতঞ্জল যোগদর্শনে বর্ণনা হয়েছে –পাদ ৩ সূত্র ২৬। ভুবনজ্ঞানং সূর্যে সংযমাৎ ॥ সূর্যে সংযমের মাধ্যমে লোক-সমূহের জ্ঞান [যোগীর] হয়। অর্থাৎ সে সূর্যকে কেন্দ্র মেনে সূর্যের সাথে লোক-সমূহের সম্বন্ধ ও পরমেশ্বরের সাথে সূর্যের সম্বন্ধ নিজের বিদ্যা দ্বারা জেনে নেয় ॥
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