अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 3
ऋषिः - चातनः
देवता - वनस्पतिः पृश्नपर्णी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पृश्नपर्णी सूक्त
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अ॒राय॑मसृ॒क्पावा॑नं॒ यश्च॑ स्फा॒तिं जिही॑र्षति। ग॑र्भा॒दं कण्वं॑ नाशय॒ पृश्नि॑पर्णि॒ सह॑स्व च ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒राय॑म् । अ॒सृ॒क्ऽपावा॑नम् । य: । च॒ । स्फा॒तिम् । जिही॑र्षति । ग॒र्भ॒ऽअ॒दम् । कण्व॑म् । ना॒श॒य॒ । पृश्नि॑ऽपर्णि । सह॑स्व । च॒ ॥२५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अरायमसृक्पावानं यश्च स्फातिं जिहीर्षति। गर्भादं कण्वं नाशय पृश्निपर्णि सहस्व च ॥
स्वर रहित पद पाठअरायम् । असृक्ऽपावानम् । य: । च । स्फातिम् । जिहीर्षति । गर्भऽअदम् । कण्वम् । नाशय । पृश्निऽपर्णि । सहस्व । च ॥२५.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं के नाश के लिये उपदेश।
पदार्थ
(पृश्निपर्णि) हे सूर्य वा पृथिवी की पालनेवाली [अथवा सूर्य वा पृथिवी जैसे पत्तेवाली ओषधिरूप परमेश्वरशक्ति] (अरायम्) निर्धनता को, (च) और (यः) जो [रोग] (स्फातिम्) बढ़वार को (जिहीर्षति) छीनना चाहे, [उस] (असृक्पावानम्) रक्त पीनेवाले और (गर्भादम्) गर्भ खानेवाले [गर्भाधानशक्ति नाश करनेवाले] (कण्वम्) पाप [रोग] को (सहस्व) जीत ले (च) और (नाशय) मिटा दे ॥३॥
भावार्थ
जिन आलस्यादि दोषों और ब्रह्मचर्यादि खण्डनरूप कुकर्मों से हम धनहीन, तनक्षीण, मनमलीन होकर वंशच्छेद करें, ऐसे दोषों को हम सर्वथा त्यागें और उस (पृश्निपर्णी) सूर्यादि जगत् के रक्षक, पोषक, अखण्डव्रत परमात्मा का ध्यान करके विद्यावृद्धि, धनवृद्धि और कुलवृद्धि करके आनन्द भोगें ॥३॥
टिप्पणी
३–अरायम्। रा दानादानयोः–घञ् युक् आगमः। नञ्समासः। निर्धनताम्। असृक्पावानम्। असु क्षेपे, यद्वा असञ् दीप्तिग्रहणगतिषु–ऋजिप्रत्ययः। अस्यते क्षिप्यते नाडीभिः। यद्वा असति शरीरं येन, यद्वा गृह्णाति गच्छति वा यत्तद् असृक्, रक्तम्। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति पा पाने वनिप्। रुधिरस्य पानशीलं नाशकम्। स्फातिम्। स्फायी वृद्धौ–क्तिन्। वृद्धिम्। जिहीर्षति। हृञ् हरणे–सनि लट्। हर्तुं नाशयितुमिच्छति उपक्रमते। गर्भादम्। अदोऽनन्ने। पा० ३।२।६८। इति गर्भ+अद भक्षणे–विट्। गर्भस्य भक्षकम्। कण्वम्। व्याख्यातम् (कण्वजम्भनी) इति शब्दे–म० १। कण्यते अपोद्यते इति कण्वं पापम्। अर्शआदिभ्योऽच् पा० ४।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। पापयुक्तं दुःखकरं रोगम्। नाशय। मारय। पृश्निपर्णि। म० १। सहस्व। अभिभव ॥
विषय
रक्तदोष निवारण
पदार्थ
१. हे (पृश्निपर्णि) = चित्रपर्णि ओषधे! तू उस (कण्वम्) = रोगबीज व पाप को (नाशय) = लुस कर दे [णश अदर्शने] (सहस्वच) = तथा कुचल डाल (यः) = जो (स्फातिम्) = वृद्धि को (जिहीर्षति) = हर लेना. चाहता है-शरीर की वृद्धि को रोक देता है। (अरायम्) = शरीर की शोभा को नष्ट करनेवाला जो कुष्ठ आदि रोग है, उसे नष्ट कर तथा (असूक्पावानम्) = रुधिर को पी लेनेवाले कामला आदि रोगों को भी नष्ट कर । २. इनके साथ (गर्भादम्) = गर्भ को खा जानेवाले रोगवीज को तू नष्ट करनेवाला हो। ३. आयुर्वेद के अनुसार यह पृश्निपर्णि'दाह,ज्वर, श्वास, रक्त-अतिसार, तृषा व वमन को दूर करती है। यहाँ (अरायं असक्पावानं नाशय) = शब्दों से रक्तदोष को दूर करने का उल्लेख है। रक्तदोष को दूर करके यह वृद्धि का कारण बनती है। माता के रक्तदोष के दूर होने पर गर्भस्थ बालक के शरीर का भी ठीक से पोषण होता है।
भावार्थ
पृश्निपर्णी रक्तदोष को दूर करती है।
भाषार्थ
(असृक् पावानम् ) शरीर के रक्त को पीनेवाले, (अरायम्) अराति अर्थात् शत्रुरोग को, (य: च ) और जो (स्फातिम्) शरीर की वृद्धि का (जिहीर्षति) अपहरण करना चाहता है, (गर्भादम्) गर्भ के भक्षक ( कण्वम् ) कण्व का (नाशय) नाश कर (पृश्निपर्णि) हे पृश्निपर्णी ! (सहस्व च ) और उसका पराभव कर ।
टिप्पणी
[कण्व, गर्भ का भक्षण करता है,-- इससे ज्ञात होता है कि कण्व रोगकीटाणु हैं।]
विषय
पृश्निनपर्णी ओषधि का वर्णन।
भावार्थ
हे पृश्निपर्णि ! ओषधे ! तू (गर्भादं) गर्भ के विनाशक (कण्वं) जीवन को मिटा देने वाले रोग को (नाशय) मिटादे और (सहस्व च) उसके बुरे प्रभाव को रोक जो रोग (अरायम्) देह की पुष्टि, कान्ति और लक्ष्मी का नाशक (असृक्पावानं) रक्त का पीजाने वाला, रक्त को विकृत कर देने वाला और (यः च) जो (स्फातिं) शरीर की वृद्धि कों (जिहीर्षति) नाश करता है ।
टिप्पणी
‘जिहीरिषति’ इति क्कचित् पाठः । (च०) ‘सहस्वति’ इति पेप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
चातन ऋषिः । वनस्पतिर्देवता । पृश्निपर्णीस्तुतिः । १,३,५ अनुष्टुभः। ४ भुरिगनुष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Destruction of Anti-Life
Meaning
O Prshniparni, challenge, cure and root out that life threatening disease which robs life of its beauty, vitality and longevity, which sucks up the blood and which kills the foetus in the womb.
Translation
O prénipami may you destroy the evil germ that sucks blood, and that wants to impede development, and the one that eats the embryo up, and may you be victorious. -
Translation
This Prishniparni destroy Knva, the germ which eats up embryo and overcomes the disease which mars the beauty of the body, sucks the blood and takes away the growth.
Translation
O Divine Power of God, destroy and quell the disease, that brings abortion, takes away the beauty of the body, sucks our blood and wants to retard our development. [1]
Footnote
[1] The verse may be applied to the medicine Prishniparni.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३–अरायम्। रा दानादानयोः–घञ् युक् आगमः। नञ्समासः। निर्धनताम्। असृक्पावानम्। असु क्षेपे, यद्वा असञ् दीप्तिग्रहणगतिषु–ऋजिप्रत्ययः। अस्यते क्षिप्यते नाडीभिः। यद्वा असति शरीरं येन, यद्वा गृह्णाति गच्छति वा यत्तद् असृक्, रक्तम्। आतो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च। पा० ३।२।७४। इति पा पाने वनिप्। रुधिरस्य पानशीलं नाशकम्। स्फातिम्। स्फायी वृद्धौ–क्तिन्। वृद्धिम्। जिहीर्षति। हृञ् हरणे–सनि लट्। हर्तुं नाशयितुमिच्छति उपक्रमते। गर्भादम्। अदोऽनन्ने। पा० ३।२।६८। इति गर्भ+अद भक्षणे–विट्। गर्भस्य भक्षकम्। कण्वम्। व्याख्यातम् (कण्वजम्भनी) इति शब्दे–म० १। कण्यते अपोद्यते इति कण्वं पापम्। अर्शआदिभ्योऽच् पा० ४।२।१२७। इति मत्वर्थे अच्। पापयुक्तं दुःखकरं रोगम्। नाशय। मारय। पृश्निपर्णि। म० १। सहस्व। अभिभव ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(অসৃক্ পাবানম্) শরীরের রক্ত পানকারী, (অরায়ম্) অরাতি অর্থাৎ শত্রুরোগকে, (যঃ চ) এবং যে (স্ফাতিম্) শরীরের বৃদ্ধির (জিহীর্ষতি) অপহরণ করতে চায়, (গর্ভাদম্) গর্ভের ভক্ষক (কণ্ব) কণ্ব-এর (নাশয়) নাশ করো (পৃশ্নিপর্ণি) হে পৃশ্নিপর্ণী ! (সহস্ব চ) এবং তাকে পরাজিত করো।
टिप्पणी
[কণ্ব, গর্ভের ভক্ষণ করে- এখান থেকে জ্ঞাত হয় যে কণ্ব হল রোগ জীবাণু।]
मन्त्र विषय
শত্রুনাশায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(পৃশ্নিপর্ণি) হে সূর্য বা পৃথিবীর পালনকারী [অথবা সূর্য বা পৃথিবী সদৃশ পত্রবিশিষ্ট ঔষধিরূপ পরমেশ্বরশক্তি] (অরায়ম্) নির্ধনতাকে, (চ) ও (যঃ) যে [রোগ] (স্ফাতিম্) বৃদ্ধি (জিহীর্ষতি) নাশ করতে চায়, [সেই] (অসৃক্পাবানম্) রক্ত পানকারী এবং (গর্ভাদম্) গর্ভ ভক্ষণকারী/ভক্ষক [গর্ভাধানশক্তি নাশক] (কণ্বম্) পাপ [রোগ]কে (সহস্ব) জয় করুক (চ) এবং (নাশয়) নাশ করুক ॥৩॥
भावार्थ
যে আলস্যাদি দোষ ও ব্রহ্মচর্যাদি খণ্ডনরূপ কুকর্ম দ্বারা আমরা ধনহীন, তনুক্ষীণ, মনমলীন হয়ে বংশচ্ছেদ করি, এমন দোষ আমরা সর্বদা ত্যাগ করি এবং সেই (পৃশ্নিপর্ণী) সূর্যাদি জগতের রক্ষক, পোষক, অখণ্ডব্রত পরমাত্মার ধ্যান করে বিদ্যাবৃদ্ধি, ধনবৃদ্ধি ও কুলবৃদ্ধি করে আনন্দ ভোগ করি ॥৩॥
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