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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    ऋषिः - चातनः देवता - वनस्पतिः पृश्नपर्णी छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - पृश्नपर्णी सूक्त
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    गि॒रिमे॑नाँ॒ आ वे॑शय॒ कण्वा॑ञ्जीवित॒योप॑नान्। तांस्त्वं दे॑वि॒ पृश्नि॑पर्ण्य॒ग्निरि॑वानु॒दह॑न्निहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गि॒रिम् । ए॒ना॒न् । आ । वे॒श॒य॒ । कण्वा॑न् । जी॒वि॒त॒ऽयोप॑नान् । तान् । त्वम् । दे॒व‍ि॒ । पृ॒श्नि॒ऽप॒र्णि॒ । अ॒ग्नि:ऽइ॑व । अ॒नु॒ऽदह॑न् । इ॒हि॒ ॥२५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गिरिमेनाँ आ वेशय कण्वाञ्जीवितयोपनान्। तांस्त्वं देवि पृश्निपर्ण्यग्निरिवानुदहन्निहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गिरिम् । एनान् । आ । वेशय । कण्वान् । जीवितऽयोपनान् । तान् । त्वम् । देव‍ि । पृश्निऽपर्णि । अग्नि:ऽइव । अनुऽदहन् । इहि ॥२५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के नाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (देवि) हे दिव्य गुणवाली (पृश्निपर्णि) सूर्य वा पृथिवी की पालनेवाली [अथवा सूर्य वा पृथिवी जैसे पत्तेवाली ओषधिरूप परमेश्वरशक्ति] (एनान्) इन (जीवितयोपनान्) प्राणों के मोहनेवाले [व्याकुल करनेवाले] (कण्वान्) पाप रोगों को (गिरिम्) पहाड़ [अगम्य स्थान] में (आ वेशय) गाड़ दे। और (त्वम्) तू, (अनुदहन्) क्रम से दाह करती हुई (अग्निः इव) आग के समान (तान्) उन पर (इहि) पहुँच ॥४॥

    भावार्थ

    जिन (कण्वान्) आत्मदोषों से मनुष्य का जीवन द्विविधा में पड़े और विघ्नों में फँसकर अपकीर्त्ति मिले, उन दुःखदायी दोषों को परमेश्वर का सहाय लेकर सर्वथा नाश करे ॥४॥ टिप्पणी–पातञ्जलयोगदर्शन, पाद १ सूत्र ३० में ये विघ्न वर्णित किये हैं। व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः ॥ १–(व्याधि) रोग, २–(स्त्यान) भारीपन, ३–(संशय) द्विविधा, ४–(प्रमाद) भूल, ५–(आलस्य) ढीलापन, ६–(अविरति) जंजाल में फँस जाना, ७–(भ्रान्तिदर्शन) भ्रम वा अज्ञान से कुछ का कुछ देखना, ८–(अलब्धभूमिकत्व) ठिकाने का न पाना और ९–(अनवस्थितत्वानि) अदृढ़ता, (चित्तविक्षेपाः) चित्त की हलचलें हैं और (ते अन्तरालाः) वे विघ्न हैं ॥

    टिप्पणी

    ४–गिरिम्। कॄगॄशॄपॄकुटि०। उ० ४।१४३। इति गॄ निगरणे, अथवा गृणातिः स्तुतिकर्मा–निरु० ३।५। इप्रत्ययः, किच्च, गिरति धारयति पृथिवी ग्रियते स्तूयते गुरुत्वाद्वा। पर्वतम्। अगम्यस्थानम्। एनान्। समीपस्थान्, प्रसिद्धान्। आ+वेशय। द्विकर्मकः। प्रवेशय। स्थापय। कण्वान्। म० ३। दुःखकरान् दोषान्। जीवितयोपनान्। जीव प्राणे–भावे क्त। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति युप विमोहने–कर्तरि ल्युट्। जीवनस्य विमोहकान्। अनुदहन्। अनुक्रमेण भस्मीकुर्वन्। इहि। इण् गतौ–लोट्। गच्छ। प्राप्नुहि। आक्रमस्व। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    अव्याकुल जीवन

    पदार्थ

    १. (एनान्) = इन (जीवितयोपनान्) = [युप विमोहने] जीवन के (विमोहक) = व्याकुल करनेवाले (कण्वान्) = रोगबीजों को (गिरिम्) = पर्वतों में (आवेशय) = गाड़ दो। हे पृश्निपणे! तू इन रोगों को इसप्रकार दूर कर दे कि ये लौटकर फिर हमारे पास न आ सकें। तू इन्हें पर्वतशिलाओं के नीचे गाड़ दे। २. हे (देवि पृश्निपर्णि) = रोगों को जीतनेवाली पृश्निपणे ! (त्वम्) = तू (तान्) = उन कण्वों को (अनि: इव) = अग्नि की भाँति (अनुदहन्) = क्रमश: जलाती हुई (इहि) = हमें प्राप्त हो।

    भावार्थ

    पृश्निपर्णी का सेवन रोगबीजों को भस्म करके हमारे जीवनों को व्याकुलता-रहित कर दे।

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    भाषार्थ

    (एनान्) इन (जीवितयोपनान्) जीवनापहारी (कण्वान्) कणसदृश सूक्ष्म रोगकीटाणुओं को (गिरिम् आवेशय) तू निगीर्ण१ कर। ( देवि पृश्निपर्णि) हे दिव्य गुणोंवाली पृश्निपर्णी ! (त्वम्) तू (तान्) उन कण्वों को (अग्निः इव) अग्नि के सदृश (अनु दहन्) निरन्तर दहन करती हुई (इहि) जा।

    टिप्पणी

    [गिरिम्= गृ निगरणे (तुदादिः)। अथवा "गिरिम् आवेशय= पर्वतं स्वसंचाररहितं प्रवेशय (सायण)] [१. खा जा, बिनष्ट कर ।]

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    विषय

    पृश्निनपर्णी ओषधि का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (देवि पृश्निपर्णि) दिव्य गुणों से युक्त पृश्निपर्णि ओषधे तू (एनान्) इन (कण्वान्) पापमूलक, जीवन को मिटा देने वाले या उदास कर देने वाले (जीवितयोपनान्) जीवन को संदेह में डालने वालै रोगों को (गिरि) पर्वतों पर (आवेशय) भेजदे अर्थात् परे करदे । और (त्वं) तू (तान्) उनको (अग्निः इव) अग्नि के समान (अनुदहन्) जलाती हुई (इहि) प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    चातन ऋषिः । वनस्पतिर्देवता । पृश्निपर्णीस्तुतिः । १,३,५ अनुष्टुभः। ४ भुरिगनुष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Destruction of Anti-Life

    Meaning

    O divine Prshniparni, bury these life consuming, life destroying diseases in the depths of mountains, burning them all here as fire burns dirt to ash.

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    Translation

    May you chase these life-destroying germs away to the mountains and then, O pršniparņī with divine qualities, may you come here burning them like fire.

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    Translation

    Let the wonderful Prishniparni drive away these fatal disease germs to mountains and let it be effective on them like the fire which catches the combustible thing in this world.

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    Translation

    O Divine Power of God, drive and imprison in an inaccessible place, these sins, the harassers of life; follow them, consuming them like fire. [1]

    Footnote

    [1] In the case of Prishniparni as a medicine, कण्वाञ् will mean diseases.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४–गिरिम्। कॄगॄशॄपॄकुटि०। उ० ४।१४३। इति गॄ निगरणे, अथवा गृणातिः स्तुतिकर्मा–निरु० ३।५। इप्रत्ययः, किच्च, गिरति धारयति पृथिवी ग्रियते स्तूयते गुरुत्वाद्वा। पर्वतम्। अगम्यस्थानम्। एनान्। समीपस्थान्, प्रसिद्धान्। आ+वेशय। द्विकर्मकः। प्रवेशय। स्थापय। कण्वान्। म० ३। दुःखकरान् दोषान्। जीवितयोपनान्। जीव प्राणे–भावे क्त। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति युप विमोहने–कर्तरि ल्युट्। जीवनस्य विमोहकान्। अनुदहन्। अनुक्रमेण भस्मीकुर्वन्। इहि। इण् गतौ–लोट्। गच्छ। प्राप्नुहि। आक्रमस्व। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (এনান্) এই (জীবিতযোপনান্) জীবনাপহারী (কণ্বান্) কণাসদৃশ সূক্ষ্ম রোগ জীবাণুকে (গিরিম্ আবেশয়) তুমি নিগীর্ণ/গ্রাস১ করো। (দেবী পৃশ্নিপর্ণি) হে দিব্যগুণযুক্ত পৃশ্নিপর্ণী ! (ত্বম্) তুমি (তান্) সেই কণ্বগুলোকে (অগ্নিঃ ইব) অগ্নির সদৃশ (অনু দহন্) নিরন্তর দহন করে (ইহি) যাও।

    टिप्पणी

    [গিরিম্=গৄ নিগরণে (তুদাদিঃ)। অথবা "গিরিম্ আবেশয়= পর্বতং স্বসংচাররহিতং প্রবেশয় (সায়ণ)]। [১. খেয়ে নাও, বিনষ্ট করো।]

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    मन्त्र विषय

    শত্রুনাশায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (দেবি) হে দিব্য গুণান্বিত (পৃশ্নিপর্ণি) সূর্য বা পৃথিবীর পালনকারী [অথবা সূর্য বা পৃথিবীর সদৃশ পত্রবিশিষ্ট ঔষধিরূপ পরমেশ্বরশক্তি] (এনান্) এই (জীবিতযোপনান্) প্রাণের ব্যাকুলকারী (কণ্বান্) পাপ রোগকে (গিরিম্) পাহাড় [অগম্য স্থানে] (আ বেশয়) প্রবিষ্ট করাও/স্থাপিত করো। এবং (ত্বম্) তুমি, (অনুদহন্) ক্রমান্বয়ে দহনকারী (অগ্নিঃ ইব) অগ্নির সমান (তান্) তার প্রতি (ইহি) পৌঁছাও ॥৪॥

    भावार्थ

    যে (কণ্বান্) আত্মদোষের কারণে মনুষ্যের জীবন দ্বিবিধায় পতিত হয়ে এবং বিঘ্নে পতিত হয়ে অপকীর্ত্তি পায়, সেই দুঃখদায়ী দোষকে পরমেশ্বরের আশ্রয় নিয়ে সর্বদা নাশ করুক ॥৪॥টিপ্পণী–পাতঞ্জলযোগদর্শন, পাদ ১ সূত্র ৩০ এ এই বিঘ্ন বর্ণিত করা হয়েছে। ব্যাধিস্ত্যানসংশয়প্রমাদালস্যাবিরতিভ্রান্তিদর্শনালব্ধভূমিকত্বানবস্থিতৎবানি চিত্তবিক্ষেপাস্তেঽন্তরায়াঃ ॥ ১–(ব্যাধি) রোগ, ২–(স্ত্যান) স্থূলতা, ৩–(সংশয়) দ্বিবিধা, ৪–(প্রমাদ) ভূল, ৫–(আলস্য) আলস্য, ৬–(অবিরতি) জঞ্জালে আবদ্ধ হওয়া, ৭–(ভ্রান্তিদর্শন) ভ্রম বা অজ্ঞানবশত কোনো কিছুকে অন্য কিছু দেখা, ৮–(অলব্ধভূমিকত্ব) লক্ষ্যের অপ্রাপ্তি এবং ৯–(অনবস্থিতত্বানি) অদৃঢ়তা, (চিত্তবিক্ষেপাঃ) চিত্তের চঞ্চলতা এবং (তে অন্তরালাঃ) এগুলোই বিঘ্ন ॥

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