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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - विश्वकर्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विश्वकर्मा सूक्त
    1

    अ॑दा॒न्यान्त्सो॑म॒पान्मन्य॑मानो य॒ज्ञस्य॑ वि॒द्वान्त्स॑म॒ये न धीरः॑। यदेन॑श्चकृ॒वान्ब॒द्ध ए॒ष तं वि॑श्वकर्म॒न्प्र मु॑ञ्चा स्व॒स्तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒दा॒न्यान् । सो॒म॒ऽपान् । मन्य॑मान: । य॒ज्ञस्य॑ । वि॒द्वान् । स॒म्ऽअ॒ये । न । धीर॑: । यत् । एन॑: । च॒कृ॒वान् । ब॒ध्द: । ए॒ष: । तम् । वि॒श्व॒क॒र्म॒न् । प्र । मु॒ञ्च । स्वस्तये॑ ॥३५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदान्यान्त्सोमपान्मन्यमानो यज्ञस्य विद्वान्त्समये न धीरः। यदेनश्चकृवान्बद्ध एष तं विश्वकर्मन्प्र मुञ्चा स्वस्तये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदान्यान् । सोमऽपान् । मन्यमान: । यज्ञस्य । विद्वान् । सम्ऽअये । न । धीर: । यत् । एन: । चकृवान् । बध्द: । एष: । तम् । विश्वकर्मन् । प्र । मुञ्च । स्वस्तये ॥३५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पाप के त्याग से सुखलाभ है, इसका उपदेश।

    पदार्थ

    (अदान्यान्) दान के अयोग्य पुरुषों को (सोमपान्) अमृतपान करनेवाले (मन्यमानः) मानता हुआ पुरुष, (यज्ञस्य) शुभ कर्म का (विद्वान्) जाननेवाला और (समये) समय पर (धीरः) धीर (न) नहीं होता। (एषः) इस पुरुष ने (बद्धः) [अज्ञान में] बन्ध होकर (यत्) जो (एमः) पाप (चकृवान्) किया है, (विश्वकर्मन्) हे संसार के रचनेवाले परमेश्वर ! (तम्) उस पुरुष को (स्वस्तये) आनन्द भोगने के लिये (प्र मुञ्च) मुक्त कर दे ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य अविवेक के कारण मूढ़ होकर अपनी और संसार की हानि कर डालता है। वह पुरुष अपने प्रमाद पर पश्चात्ताप करके और पाप कर्म छोड़कर ईश्वराज्ञा का पालन करके आनन्द भोगे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३–अदान्यान्। छन्दसि च। पा० ५।१।६७। इति अदान–य प्रत्ययः। दानानर्हान्। सोमपान्। गापोष्टक् च। पा० ३।२।८। सोम+पा पाने–टक्। अमृतपानशीलान् पण्डितान्। मन्यमानः। मन बोधे दिवादिः–शानच्। जानन् सन्। यज्ञस्य। अ० १।९।४। प्रशस्यकर्मणः। विद्वान्। विदेः शतुर्वसुः। पा० ७।१।३६। इति विद ज्ञाने–शतृ, वसुरादेशः प्राज्ञः। पण्डितः। समये। सम्+इण् गतौ–पचाद्यच्। उचितकाले, अवसरे। न। निषिधे। धीरः। सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। इति धाञ् धारणपोषणयोः–क्रन्। घुमास्थागापा०। पा० ६।४।६६। इति ईत्वम्। यद्वा। धीः प्रज्ञा कर्म वा, रो मत्वर्थीयः। यद्वा। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। इति धी+ईर प्रेरणे–अण्। धियम् ईरयतीति। यद्वा। धी+रा–क। धियं राति ददाति गृह्णातीति वा। मेधावी–निघ० ३।१५। धैर्यवान्। पण्डितः। एनः। म० २। अपराधम्। चकृवान्। कृञ्–लिटः क्वसुः। कृतवान्। बद्धः। बध्यते स्म। बन्ध–क्त। बन्धनयुक्तः। विश्वकर्मन्। हे सर्वकृत्। प्र+मुञ्च। प्रमोचय। स्वस्तये। अ० १।३०।२। क्षेमाय। कुशलाय ॥

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    विषय

    यज्ञों में निरहंकारता

    पदार्थ

    १. (यज्ञस्य विद्वान्) = यज्ञा का ज्ञाता (समये) = [सम् आयन्ति संगच्छन्ते यत्र] एकत्र होने के स्थान में सभास्थल में (न धीर:) = धीरता से काम न लेनेवाला-अहंकारवश कुछ-का-कुछ बोल-देनेवाला (सोमपान्) = सोम का शरीर में रक्षण करनेवाले संयमी पुरुषों को भी (अदान्यान) = दान के अयोग्य (मन्यमान:) = मानता हुआ (यत्) = जो (एनः) = पाप (चकृवान्) = कर बैठता है, (एषः) = यह (बद्धः) = अहंकार के बन्धन में बंधा हुआ है। यज्ञ के विषय में ज्ञान रखता हुआ भी यह अभी अहंकार से ऊपर नहीं उठ पाया, तभी अपनी तुलना में औरों को हीन समझता है, उनका निरादर भी कर बैठता है। २. हे (विश्वकर्मन्) = कर्मों को सम्पूर्णता से करनेवाले प्रभो! आप (तम्) = उसे इस अंहकार से (प्रमुञ्च) = मुक्त कीजिए, जिससे (स्वस्तये) = उसका कल्याण हो। यह अहंकार उसके पतन का कारण न बन जाए।

    भावार्थ

    वस्तुतः ज्ञानी व यज्ञशील वही है जो अहंकार रहित हो गया है। अहंकारयुक्त तो अभी बद्ध ही है।

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    भाषार्थ

    (अदान्यान्) दान ग्रहण कर सकने में अयोग्यों को (सोमपान्) सोमपायी (मन्यमानः) मानता हुआ पुरुष, (यज्ञस्य विद्वान्) गृहस्थ-यज्ञ सम्बन्धी कर्मों को जानता हुआ भी, (समये) गृहस्थ काल के उपस्थित हो जाने पर, (न धीरः) जो धी-रहित अर्थात् विचाररहित हो जाता है । (एष) इसने अर्थात् (बद्धः) शरीर में बँधे हुए जीवात्मा ने (यत्) जो (एन: चकार) पाप कर्म किया है, (तम्) उस पुरुष को (विश्वकर्मन्) हे विश्व-के-कर्ता ! (प्रमुञ्च) उस पाप कर्म से मुक्त कर दे, (स्वस्तये) उसके कल्याण के लिये।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह कि जो पुरुष गृहस्थ-यज्ञ में किये जानेवाले पञ्चमहायज्ञों और भूतयज्ञ को जानता हुआ भी, इन महायज्ञों और भूतयज्ञ के करने में असमर्थ को गृहस्थ-यज्ञ के लिये प्रेरित करता या अनुज्ञा देता है और वह गृहस्थ में यदि प्रविष्ट हो जाता है, तो यह मानो उसने पाप कर्म किया है। पाप कर्म इसलिये कि वह गृहस्थ-यज्ञ के कर्मों को निभा नहीं सकता। यह भी समझना चाहिए कि वह गृहस्थ में रहता हुआ सोमपायी रह भी सकता है या नहीं। मनु के अनुसार पत्नी के ऋतुकाल में गमन कर, अन्य कालों में भोगरहित होता है, वह भी ब्रह्मचारी ही गिना जाता है, अर्थात् सोमपायी ही समझा जाता१ है। सोम =वीर्य (अथर्व० १४।१।३, ५) अथर्ववेदभाष्य, संस्कृत।] [१. वह ब्रह्मचर्यकाल में भी पूर्ण-ब्रह्मचर्य का पालन करता रहा है या नहीं, इसका भी ध्यान करना चाहिए। "अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्"।]

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    विषय

    मोक्षमार्ग का उपदेश ।

    भावार्थ

    (धीरः न) धीर, प्रतिभावान् पुरुष के समान (विद्वान्) विद्वान्, विधासम्पन्न पुरुष भी (यज्ञस्य) यज्ञ के (समये) समय अर्थात् सत्संग के अवसर पर (सोमपान्) ब्रह्मानन्द रस का पान करने हारे अन्तर्ज्ञानी पुरुषों को भी (अदान्यान्) दान दक्षिणा देने के अयोग्य (मन्यमानः) समझता हुआ गर्व में आकर (बद्धः) मोह अविधा में बद्ध (एष) यह जीव (यद्) जो (एनः) पाप या अनुचित कर्म (चकृवान्) कर देता है, हे (विश्वकर्मन्) समस्त संसार के उत्पादक प्रभो ! आप (तं) उस जीव को (स्वस्तये) उसके कल्याण के लिये (प्र मुंच) उसे पाप से मुक्त करो ।

    टिप्पणी

    (प्र०)‘अनन्यान्त्सोमपान्’ (तृ०)‘एनश्चकृवानमहिबद्ध एषां इति तै०सं०। ‘अयज्ञियान् यज्ञियान् मन्यमानो’ इति मै०सं०। (द्वि०) ‘प्राणस्य विद्वान्समरे’ (तृ०) ‘एनोमइच्चकृवान् बद्धं’ इति मै०सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अंगिरा ऋषि। विश्वकर्मा देवता। १ विराड् गर्भा त्रिष्टुप्। २, ३ त्रिष्टुप्। ४, ५ भुरिग्। पञ्चर्चं सूकम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom and Surrender

    Meaning

    One who believes that the performers of soma yajna are not worthy of yajnic gift or that they are misers neither knows what yajna is, nor does he attain to it, nor is he patient and undisturbed at the time of a crisis in life. Self-suffering in bondage, this man is a sinner. Hey Vishvakarma, redeem this man of what he has committed, for the sake of his well being and salvation.

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    Translation

    Whosoever considers the drinkers of divine bliss (Somapān) unworthy of gifts is neither wise nor correct, though he may be skilled in the trade of sacrificial performances. Whatever sin this man has committed (under pressure) in bondage, release him from that O Supreme: Architect for his wellbeing.

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    Translation

    The man regarding un-philanthropic men as the men of drinking nectar of knowledge does not become ever firm in the principles of righteous deed and thus born in ignorance whatever sin he would commit in future or has intention to commit be kept away from him, O All-creating Divinity, for his prosperity.

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    Translation

    The Rishis describe the soul, full of attachment to its progeny, as immersed in infatuation. May God unite our soul with those objects, affording pleasure to the mind, which it shuns. [1]

    Footnote

    [1] Rishis=Learned seers. It refers to the soul.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३–अदान्यान्। छन्दसि च। पा० ५।१।६७। इति अदान–य प्रत्ययः। दानानर्हान्। सोमपान्। गापोष्टक् च। पा० ३।२।८। सोम+पा पाने–टक्। अमृतपानशीलान् पण्डितान्। मन्यमानः। मन बोधे दिवादिः–शानच्। जानन् सन्। यज्ञस्य। अ० १।९।४। प्रशस्यकर्मणः। विद्वान्। विदेः शतुर्वसुः। पा० ७।१।३६। इति विद ज्ञाने–शतृ, वसुरादेशः प्राज्ञः। पण्डितः। समये। सम्+इण् गतौ–पचाद्यच्। उचितकाले, अवसरे। न। निषिधे। धीरः। सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। इति धाञ् धारणपोषणयोः–क्रन्। घुमास्थागापा०। पा० ६।४।६६। इति ईत्वम्। यद्वा। धीः प्रज्ञा कर्म वा, रो मत्वर्थीयः। यद्वा। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। इति धी+ईर प्रेरणे–अण्। धियम् ईरयतीति। यद्वा। धी+रा–क। धियं राति ददाति गृह्णातीति वा। मेधावी–निघ० ३।१५। धैर्यवान्। पण्डितः। एनः। म० २। अपराधम्। चकृवान्। कृञ्–लिटः क्वसुः। कृतवान्। बद्धः। बध्यते स्म। बन्ध–क्त। बन्धनयुक्तः। विश्वकर्मन्। हे सर्वकृत्। प्र+मुञ्च। प्रमोचय। स्वस्तये। अ० १।३०।२। क्षेमाय। कुशलाय ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অদান্যান্) দান গ্রহণ করার ক্ষেত্রে অযোগ্যদের (সোমপান্) সোমপায়ী (মন্যমানঃ) মান্যকারী পুরুষ, (যজ্ঞস্য বিদ্বান্) গৃহস্থ-যজ্ঞ সম্বন্ধী কর্মকে জেনেও/জ্ঞাত হয়েও, (সময়ে) গৃহস্থ-কাল উপস্থিত হলে, (ন ধীরঃ) যে ধী-রহিত অর্থাৎ বিচাররহিত হয়ে যায়। (এষঃ) সেই পুরুষ অর্থাৎ (বদ্ধঃ) শরীরে বদ্ধ জীবাত্মা (যত) যে (এনঃ চকার) পাপ কর্ম করেছে, (তম্) সেই পুরুষকে (বিশ্বকর্মন্) হে বিশ্বের কর্তা ! (প্রমুঞ্চ) সেই পাপ কর্ম থেকে মুক্ত করুন, (স্বস্তয়ে) তাঁর কল্যাণের জন্য।

    टिप्पणी

    [অভিপ্রায় এটাই যে, পুরুষ গৃহস্থ-যজ্ঞে কৃত পঞ্চ মহাযজ্ঞ এবং ভূতযজ্ঞ জেনেও, এই মহাযজ্ঞ এবং ভূতযজ্ঞ করার ক্ষেত্রে অসমর্থকে গৃহস্থ-যজ্ঞ এর জন্য প্রেরিত করে বা অনুজ্ঞা দেয় এবং সে গৃহস্থে যদি প্রবিষ্ট হয়ে যায়, তবে এটা মানো সে পাপ কর্ম করেছে। পাপ কর্ম এইজন্য যে, সে গৃহস্থ-যজ্ঞ এর কর্মকে পূর্ণ করতে পারেনি। এটাও বোঝা উচিত যে, সে গৃহস্থে থেকে সোমপায়ী হতেও পারে বা হতে পারে না। মনু-এর অনুসারে পত্নীর ঋতুকালে গমন করে, অন্য কালে ভোগরহিত হয়, সেও ব্রহ্মচারী হিসেবে গণ্য হবে, সোমপায়ী মনে করা হয়১। সোম=বীর্য (অথর্ব০ ১৪।১।৩,৫) অথর্ববেদ ভাষ্য, সংস্কৃত।] [১. সে ব্রহ্মচর্য কালেও পূর্ণ-ব্রহ্মচর্য এর পালন করছে বা করেনি, এটাও মনে রাখা উচিত। "অবিপ্লুতব্রহ্মচর্যো গৃহস্থাশ্রমমাবিশেৎ"।]

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    मन्त्र विषय

    পাপত্যাগাৎ সুখলাভ ইত্যুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    (অদান্যান্) দানের অযোগ্য পুরুষদের (সোমপান্) অমৃত পানকর্তা (মন্যমানঃ) মান্যকারী পুরুষ, (যজ্ঞস্য) শুভ কর্মের (বিদ্বান্) জ্ঞাতা/বিদ্বান এবং (সময়ে) সময়ে (ধীরঃ) ধীর (ন) হয় না। (এষঃ) এই পুরুষ (বদ্ধঃ) [অজ্ঞানে] বদ্ধ হয়ে (যৎ) যে (এমঃ) পাপ (চকৃবান্) করেছে, (বিশ্বকর্মন্) হে সংসারের রচয়িতা পরমেশ্বর ! (তম্) সেই পুরুষকে (স্বস্তয়ে) আনন্দ ভোগ করার জন্য (প্র মুঞ্চ) মুক্ত করো ॥৩॥

    भावार्थ

    মনুষ্য অবিবেকের কারণে মূঢ় হয়ে নিজের ও সংসারের ক্ষতি করে। সেই পুরুষ নিজের প্রমাদির প্রতি দুঃখ করে এবং পাপ কর্ম ত্যাগ করে ঈশ্বরাজ্ঞার পালন করে আনন্দ ভোগ করুক ॥৩॥

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