अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 4
ऋषिः - अङ्गिराः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विश्वकर्मा सूक्त
1
घो॒रा ऋष॑यो॒ नमो॑ अस्त्वेभ्य॒श्चक्षु॒र्यदे॑षां॒ मन॑सश्च स॒त्यम्। बृह॒स्पत॑ये महिष द्यु॒मन्नमो॒ विश्व॑कर्म॒न्नम॑स्ते पा॒ह्यस्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठघो॒रा: । ऋष॑य: । नम॑: । अ॒स्तु॒ । ए॒भ्य॒: । चक्षु॑: । यत् । ए॒षा॒म् । मन॑स: । च॒ । स॒त्यम् । बृह॒स्पत॑ये । म॒हि॒ष॒ । द्यु॒ऽमत् । नम॑: । विश्व॑ऽकर्मन् । नम॑: । ते॒ । पा॒हि॒ । अ॒स्मान् ॥३५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
घोरा ऋषयो नमो अस्त्वेभ्यश्चक्षुर्यदेषां मनसश्च सत्यम्। बृहस्पतये महिष द्युमन्नमो विश्वकर्मन्नमस्ते पाह्यस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठघोरा: । ऋषय: । नम: । अस्तु । एभ्य: । चक्षु: । यत् । एषाम् । मनस: । च । सत्यम् । बृहस्पतये । महिष । द्युऽमत् । नम: । विश्वऽकर्मन् । नम: । ते । पाहि । अस्मान् ॥३५.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
पाप के त्याग से सुखलाभ है, इसका उपदेश।
पदार्थ
(ऋषयः) सूक्ष्मदर्शी पुरुष (घोराः) [पाप कर्मों पर] क्रूर होते हैं, (एभ्यः) उन [ऋषियों] को (नमः) अन्न वा नमस्कार (अस्तु) होवे, (यत्) क्योंकि (एषाम्) उन [ऋषियों] के (मनसः) मन की (चक्षुः) आँख (च) निश्चय करके (सत्यम्) यथार्थ [देखनेवाली] है। (महिष) हे पूजनीय परमेश्वर ! (बृहस्पतये) सब बड़े-बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी [आप] को (द्युमत्) स्पष्ट (नमः) नमस्कार है, (विश्वकर्मन्) हे संसार के रचनेवाले ! (नमस्ते) तेरेलिये नमस्कार है, (अस्मान्) हमारी (पाहि) रक्षा कर ॥४॥
भावार्थ
जिन महात्मा आप्त ऋषियों के मानसिक, वाचिक और कायिक कर्म, संसार को दुःख से मुक्त करने के लिये होते हैं, उनके उपदेशों को सब मनुष्य प्रीतिपूर्वक ग्रहण करें और जो परमेश्वर समस्त सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता है, उसके उपकारों को हृदय में धारण करके उसकी उपासना करें और सदा पुरुषार्थ करके श्रेष्ठों की रक्षा करते रहें ॥४॥ (महिष) के स्थान पर सायणभाष्य में [महि सत्] दो पद हैं ॥
टिप्पणी
४–घोराः। अ० १।१८।३। हन–अच्, घुरादेशः। यद्वा। घुर ध्वनौ, भीमभवने–अच्। भयानकाः। भीमाः। ऋषयः। म० २। मुनयः। आप्तपुरुषाः। नमः। अ० १।१०।२। णमु शब्दनत्योः असुन्। अन्नम्–निघ० ३।७। सत्कारः। अस्तु। भवतु। एभ्यः। ऋषिभ्यः। चक्षुः। अ० १।३३।४। दृष्टिः। नेत्रम्। एषाम्। ऋषीणाम्। मनसः। अ० १।१।२। अन्तःकरणस्य। सत्यम्। अ० २।१४।४। तथ्यम्। यथार्थम्। बृहस्पतये। अ० १।८।२। बृहतां महतां लोकानां पत्ये स्वामिने। महिष। अविमह्योष्टिषच्। उ० १।४४। इति मह पूजायाम्–टिषच्। महिषाः=महान्तः–निरु० ७।२६। मह्यते पूज्यते सर्वैः, यद्वा, महति पूजयति शुभगुणानिति। हे महन्–निघ० ३।३। पूजनीय। द्युमत्। सम्पदादित्वात् क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। इति द्यु अभिगमने, यद्वा, द्युत दीप्तौ–क्विप्। मतुपि तलोपः पृषोदरादित्वात्, पा० ६।३।१०९। यद्वा, दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु–विच्। द्योतनं दिव्। दिव उत्। पा० ६।१।१३१। इति मतुपि उत्त्वम्। दीप्तिमत्। कान्तियुक्तम्। स्पष्टम्। नमः। सत्कारः। विश्वकर्मन्। म० १। हे सर्वजनक परमात्मन्। पाहि। त्वं रक्ष। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
विषय
विनीतता, नमस्कार
पदार्थ
१. (ऋषयः) = ये तत्त्वद्रष्टा लोग घोरा:-[Venerable, awful, sublime] बड़े उत्कृष्ट हैं, (एभ्य:) = इनके लिए (नमः अस्तु) = हमारा नमस्कार हो। इनके लिए हम इसलिए नतमस्तक होते हैं (यत्) = चूँकि (एषां चक्षुः) = इनकी दृष्टि महत्त्वपूर्ण है-ये प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को देखते हैं (च) = और (मनसः सत्यम्) = इनके मन में सत्य है। २. (बृहस्पतये) = ज्ञान के पति के लिए हम (नमः) = नमस्कार करते हैं। हे (महिष) = पूज्य, (धमत्) = ज्योतिर्मय विश्वकर्मन्-सब कर्मों को करनेवाले प्रभो! ते नमः-आपके लिए हमारा नमस्कार हो। (अस्मान् पाहि) = हम अहंकारशून्य व विनीत पुरुषों की आप रक्षा कीजिए।
भावार्थ
हम ऋषियों, ज्ञानियों का आदर करें, प्रभु के प्रति प्रणत हों। यह अहंकारशून्यता नम्रता ही कल्याण का मार्ग है।
भाषार्थ
(ऋषयः) ऋषि लोग (घोराः) घोर तपस्वी हैं, (एभ्य:) इनके लिये (नमः) नमस्कार हो, (एषाम्) इनकी (यत् चक्षुः) जो दिव्यदृष्टि है, (च) और (मनसः) मन की दृष्टि है, (सत्यम्) वह सत्य होती है। (महिष) हे महान् प्रभो ! (बृहस्पतये) बड़े ब्रह्माण्ड के पति तेरे लिये (द्युमत् नमः) द्युतिसम्पन्न नमस्कार हो, (विश्वकर्मन्) हे विश्व-के-कर्ता ! (ते नमः) तुझे नमस्कार हो, (अस्मान् पाहि) हमारी रक्षा कर।
टिप्पणी
[मन्त्र (२) में ऋषयः का वर्णन हुआ है और मन्त्र (४) में उनके स्वरूपों का कथन किया है। बृहस्पति परमेश्वर महा-ऋषि है [महिष] , उसके लिये "द्युमत् नमः" कहा है, "द्युमत् नमः" है ज्ञानदीप्तिसम्पन्न नमस्कार, अर्थात् उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कर उसके प्रति नमस्कार। "मनसः च" में "च" द्वारा चक्षुः पद का उपसंहार हुआ है। इससे यह दर्शाया है कि ऋषियों की मानसिक-चक्षुः भी चक्षु के सदृश सत्य की ज्ञापिका है। मानसिक-चक्षु है मानसिक विचार या संकल्प।]
विषय
मोक्षमार्ग का उपदेश ।
भावार्थ
(ऋषयः) यथार्थ मन्त्रों के द्रष्टा, विद्वान् वस्तुतः (घोराः) घोर तपस्वी होते हैं। (एभ्यः) इनके लिये हमारा सदा (नमः अस्तु) नमस्कार हो । (यद्) क्योंकि (एषां) इनकी (चक्षुः) आंख या यथार्थ दर्शन और (मनसः च) मन का मनन दोनों (सत्यम्) सत्य होते हैं। हे (महिष) पूजनीय पद के दातः ! हे विश्वकर्मन् ! सबके उत्पादक ! (ते) तुझ (बृहस्पतये) महान् संसार के परिपालक, प्रभु के लिये (द्युमत्) सब से अधिक (नमः) नमस्कार है, (नमः ते) तुझे बार २ नमस्कार है। तू ही (अस्मान् पाहि) हमारी रक्षा कर । सायण सम्मत पदपाठ—(महि षत् धुमत् नमः) प्रभो ! आपका बड़ा भारी प्रकाशमय ‘सत्’ स्वरूप है। अथवा—अध्यात्म पक्ष में—चक्षु आदि ये प्राण ही घोर ऋषि हैं। इनको (नमः) अन्न प्रात हो। इन प्राणों और मन के बीच में से चक्षु का देखा ही सत्य है । हे महिष ! आत्मन् ! बृहती वाणी के पति ! इस तुझ आत्मा या आसन्य प्राण के लिये (द्युमत् नमः) तेजोमय, ज्ञानमय सोमरूप अन्न हैं । हे विश्वकर्मन् प्रभो ! आपको भी नमस्कार है । आप हमारी रक्षा करें ।
टिप्पणी
(द्वि०)‘चक्षुष एषां मनसश्च सन्धौ’, (तृ०) ‘महिषद’ (च०)‘नमोविश्वकर्मणे स उपां त्व’ इति तै०सं०। (प्र० द्वि०) ‘भीमा ऋषयो’ ‘नमोस्तु’(द्वि०)‘मनसश्च संदृक्’ (तृ०) ‘बृहस्पते महिषाय दिवे विश्व’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अंगिरा ऋषि। विश्वकर्मा देवता। १ विराड् गर्भा त्रिष्टुप्। २, ३ त्रिष्टुप्। ४, ५ भुरिग्। पञ्चर्चं सूकम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Freedom and Surrender
Meaning
Blazing brilliant are the Rshis, highly venerable. Salutations to them. Truly, their vision is truth, and truth abides in the depths of their mind and soul. Salutations to Almighty Brhaspati, loud and bold and sincere. Salutations to you, Vishvakarman, pray save us, protect us, advance us in life.
Translation
The Seers in exterior appear to be awful (ghora). Homage to them, because their vision and the mind penetrates into the depths of truth. Our homage be to you, O Supreme Architect. May you protect us.
Translation
The seers of high intuitive penetration are dreadfully inimical to evils as their eye and mind is full of truthfulness. We offer our homage to them. O’ All-creating divinity; you are self-effulgent and only object of our worship. I bow down to you my Lord, the Master of Vedic speech, please guard me.
Translation
A learned person, who neither knows the science of Yajna [sacrifice] nor displays wisdom and calmness at the proper time and through arrogance considers the spiritually advanced persons as unfit for gift, thereby commits a sin, may God, the Creator of the universe release him from that sin, for the sake of his welfare. [1]
Footnote
[1] A learned person, who through pride considers himself superior to other contemplative souls commits a sin. Pride of piety and knowledge is a vice and not a virtue.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४–घोराः। अ० १।१८।३। हन–अच्, घुरादेशः। यद्वा। घुर ध्वनौ, भीमभवने–अच्। भयानकाः। भीमाः। ऋषयः। म० २। मुनयः। आप्तपुरुषाः। नमः। अ० १।१०।२। णमु शब्दनत्योः असुन्। अन्नम्–निघ० ३।७। सत्कारः। अस्तु। भवतु। एभ्यः। ऋषिभ्यः। चक्षुः। अ० १।३३।४। दृष्टिः। नेत्रम्। एषाम्। ऋषीणाम्। मनसः। अ० १।१।२। अन्तःकरणस्य। सत्यम्। अ० २।१४।४। तथ्यम्। यथार्थम्। बृहस्पतये। अ० १।८।२। बृहतां महतां लोकानां पत्ये स्वामिने। महिष। अविमह्योष्टिषच्। उ० १।४४। इति मह पूजायाम्–टिषच्। महिषाः=महान्तः–निरु० ७।२६। मह्यते पूज्यते सर्वैः, यद्वा, महति पूजयति शुभगुणानिति। हे महन्–निघ० ३।३। पूजनीय। द्युमत्। सम्पदादित्वात् क्विप्। वा० पा० ३।३।९४। इति द्यु अभिगमने, यद्वा, द्युत दीप्तौ–क्विप्। मतुपि तलोपः पृषोदरादित्वात्, पा० ६।३।१०९। यद्वा, दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु–विच्। द्योतनं दिव्। दिव उत्। पा० ६।१।१३१। इति मतुपि उत्त्वम्। दीप्तिमत्। कान्तियुक्तम्। स्पष्टम्। नमः। सत्कारः। विश्वकर्मन्। म० १। हे सर्वजनक परमात्मन्। पाहि। त्वं रक्ष। अन्यद् व्याख्यातम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(ঋষয়ঃ) ঋষিগণ (ঘোরাঃ) ঘোর তপস্বী, (এভ্যঃ) এঁদের জন্য (নমঃ) নমস্কার হোক, (এষাম্) এঁদের (যৎ চক্ষুঃ) যে দিব্য দৃষ্টি রয়েছে (চ) এবং (মনসঃ) মনের দৃষ্টি রয়েছে, (সত্যম্) তা সত্য। (মহিষ) হে মহান্ প্রভো! (বৃহস্পতয়ে) বৃহৎ ব্রহ্মাণ্ডের পতি তোমার জন্য (দুমৎ নমঃ) দ্যুতিসম্পন্ন নমস্কার হোক, (বিশ্বকর্মন্) হে বিশ্বের কর্তা ! (তে নমঃ) তোমাকে নমস্কার হোক, (অস্মান্ পাহি) আমাদের রক্ষা করো।
टिप्पणी
[মন্ত্র (২) এ ঋষয়ঃ এর বর্ণনা হয়েছে এবং মন্ত্র (৪) এ তার স্বরূপের কথন হয়েছে বৃহস্পতি পরমেশ্বর মহা-ঋষি [মহিষ], তার জন্য "দ্যুমৎ নমঃ" বলা হয়েছে, "দ্যুমৎ নমঃ" হল জ্ঞানদীপ্তিসম্পন্ন নমস্কার, অর্থাৎ তার প্রত্যক্ষ জ্ঞান করে তার প্রতি নমস্কার। "মনসঃ চ" এ "চ" দ্বারা চক্ষুঃ পদ এর উপসংহার হয়েছে। এর দ্বারা দর্শানো হয়েছে যে, ঋষিদের মানসিক-চক্ষুও চক্ষুর সদৃশ সত্যের জ্ঞাপক। মানসিক-চক্ষু হল মানসিক বিচার বা সংকল্প।]
मन्त्र विषय
পাপত্যাগাৎ সুখলাভ ইত্যুপদিশ্যতে
भाषार्थ
(ঋষয়ঃ) সূক্ষ্মদর্শী পুরুষ (ঘোরাঃ) [পাপ কর্মের প্রতি] ক্রূর হয়, (এভ্যঃ) সেই [ঋষিগণের] (নমঃ) অন্ন বা নমস্কার (অস্তু) হোক, (যৎ) কারণ (এষাম্) সেই [ঋষিগণের] (মনসঃ) মনের (চক্ষুঃ) চক্ষু (চ) নিশ্চিতরূপে (সত্যম্) যথার্থ [দর্শনকারী]। (মহিষ) হে পূজনীয় পরমেশ্বর ! (বৃহস্পতয়ে) সকল বৃহৎ-বৃহৎ ব্রহ্মাণ্ডের স্বামী [আপনাকে] (দ্যুমৎ) স্পষ্ট (নমঃ) নমস্কার, (বিশ্বকর্মন্) হে সংসারের রচয়িতা ! (নমস্তে) আপনার জন্য নমস্কার, (অস্মান্) আমাদের (পাহি) রক্ষা করুন ॥৪॥
भावार्थ
যে মহাত্মা আপ্ত ঋষিদের মানসিক, বাচিক ও কায়িক কর্ম, সংসারকে দুঃখ থেকে মুক্ত করার জন্য হয়, তাঁদের উপদেশ সকল মনুষ্য প্রীতিপূর্বক গ্রহণ করুক এবং যে পরমেশ্বর সমস্ত সৃষ্টির কর্ত্তা-ধর্ত্তা, তার উপকার হৃদয়ে ধারণ করে তার উপাসনা করুক এবং সদা পুরুষার্থ করে শ্রেষ্ঠদের রক্ষা করতে থাকুক ॥৪॥ (মহিষ) এর স্থানে সায়ণভাষ্যে [মহি সৎ] দুটি পদ আছে ॥
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