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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मेध्यातिथिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१०१
    1

    अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह जज्ञा॒नो वृ॒क्तब॑र्हिषे। असि॒ होता॑ न॒ ईड्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । ज॒ज्ञा॒न: । वृ॒क्तऽब॑र्हिषे ॥ असि॑ । होता॑ । न॒: । ईड्य॑: ॥१०१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे। असि होता न ईड्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । देवान् । इह । आ । वह । जज्ञान: । वृक्तऽबर्हिषे ॥ असि । होता । न: । ईड्य: ॥१०१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 101; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! [आग, बिजुली और सूर्य] (जज्ञानः) प्रकट होता हुआ तू (देवान्) दिव्य पदार्थों को (इह) यहाँ (वृक्तबर्हिषे) हिंसा छोड़नेवाले विद्वान् के लिये (आ वह) ला। तू (नः) हमारे लिये (होता) धन देनेवाला और (ईड्यः) खोजने योग्य (असि) है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य अग्नि, बिजुली और सूर्य की विद्या को खोज करके अनेक प्रकार उपयोग करें और उत्तम-उत्तम पदार्थ प्राप्त करके सुखी होवें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अग्ने) हे विद्युत्सूर्यपार्थिवाग्निरूप (देवान्) दिव्यपदार्थान् (इह) (आ वह) प्रापय (जज्ञानः) प्रादुर्भूतः सन् (वृक्तबर्हिषे) अ० २०।२।१। त्यक्तहिंसाय विदुषे (असि) (होता) धनस्य दाता (नः) अस्मभ्यम् (ईड्यः) अध्येष्टव्यः ॥

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    विषय

    देवों का आह्वान

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = हमारी सम्पूर्ण अग्रगति के साधक प्रभो! (इह) = इस जीवन में (वृक्तबर्हिषे) = जिसने अपने हृदय को वासनाओं से वर्जित [वृक्त] किया है, उस पवित्र हृदय पुरुष के लिए देवान सब दिव्यगुणों को (आवह) = प्राप्त कराइए। हे प्रभो! (जज्ञान:) = प्रादुर्भूत होते हुए आप हमारे जीवनों में दिव्यगुणों को उत्पन्न करते ही हैं। 'महादेव' के आने पर क्या 'देव' न आएंगे। २. हे प्रभो! आप ही (होता) = सब दिव्यगुणों को पुकारनेवाले हैं अथवा सब अच्छाइयों को आप ही देनेवाले (असि) = हैं, अतः आप ही (न:) = हमारे लिए (ईडयः) = स्तुति के योग्य हैं। आपका यह स्तवन हमारे सामने भी उन दिव्यगुणों की प्रासिरूप लक्ष्य को उपस्थित करता है।

    भावार्थ

    हे प्रभो! हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत होते हुए आप सब दिव्यगुणों को प्रादुर्भूत करते हैं। आप ही हमारे लिए सब अच्छाइयों को प्राप्त कराते हैं। आप ही स्तुति के योग्य हैं। यह प्रभु का स्तोता किसी के साथ द्वेष न करता हुआ सभी का मित्र बनता है। यह “विश्वामित्र' ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे जगन्नेता परमेश्वर! (जज्ञानः) प्रकट हुए सर्वज्ञ आप, (वृक्तबर्हिषे) बाह्य-अग्नि का परित्याग कर अध्यात्माग्नि के उपासक के लिए, (इह) इसी जीवन में (देवान्) दिव्यशक्तियाँ (आ वह) प्राप्त कराइए। (होता) शक्तिप्रदाता आप ही (नः) हमारे अब (ईड्यः असि) स्तुत्य और उपास्य हैं।

    टिप्पणी

    [संन्यास में अग्निहोत्र आदि ब्राह्म अग्नियों का परित्याग कर देना होता है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    India Devata

    Meaning

    Agni, omniscient and omnipresent power, bring us here the brilliant divine gifts of yajna for the pure at heart. You alone are the chief priest and performer of the yajna of creation. You alone are adorable.

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    Translation

    Let this fire bring the forces receipient of the oblatory substances and this is born for him who spreads the Yajna. This is giver as well as consumer of the world and deserves our praise.

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    Translation

    Let this fire bring the forces recipient of the oblatory substances and this is born for him who spreads the Yajna. This is giver as well as consumer of the world and deserves our praise.

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    Translation

    The Effulgent God, king, the learned person, leader or fire (light) the Showerer of peace and blessings, Beautiful to look at, Praise-worthy, Deserving our obeisance, Dispelling the darkness of ignorance, fully shines forth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अग्ने) हे विद्युत्सूर्यपार्थिवाग्निरूप (देवान्) दिव्यपदार्थान् (इह) (आ वह) प्रापय (जज्ञानः) प्रादुर्भूतः सन् (वृक्तबर्हिषे) अ० २०।२।१। त्यक्तहिंसाय विदुषे (असि) (होता) धनस्य दाता (नः) अस्मभ्यम् (ईड्यः) अध्येष्टव्यः ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    ভৌতিকাগ্নিগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে অগ্নি! [অগ্নি, বিদ্যুৎ এবং সূর্য] (জজ্ঞানঃ) প্রাদুর্ভূত তুমি (দেবান্) দিব্য পদার্থসমূহকে (ইহ) এখানে (বৃক্তবর্হিষে) হিংসা পরিত্যাগকারী বিদ্বানের জন্য (আ বহ) নিয়ে এসো/আনয়ন করো। তুমি (নঃ) আমাদের জন্য (হোতা) ধন দাতা এবং (ঈড্যঃ) অন্বেষণ যোগ্য (অসি) হও ॥৩॥

    भावार्थ

    মানুষ অগ্নি, বিদ্যুৎ, সূর্য বিদ্যার অন্বেষণ করে অনেক প্রকারে প্রয়োগ করুক এবং উত্তম-উত্তম পদার্থ প্রাপ্ত করে সুখী হোক ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে জগন্নেতা পরমেশ্বর! (জজ্ঞানঃ) প্রকটিত সর্বজ্ঞ আপনি, (বৃক্তবর্হিষে) বাহ্য-অগ্নির পরিত্যাগ করে আধ্যাত্মাগ্নির উপাসকের জন্য, (ইহ) এই জীবনে (দেবান্) দিব্যশক্তি (আ বহ) প্রাপ্ত করান। (হোতা) শক্তিপ্রদাতা আপনিই (নঃ) আমাদের এখন (ঈড্যঃ অসি) স্তুত্য এবং উপাস্য।

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