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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-११
    2

    इन्द्रो॑ वृ॒त्रम॑वृणो॒च्छर्ध॑नीतिः॒ प्र मा॒यिना॑ममिना॒द्वर्प॑णीतिः। अह॒न्व्यंसमु॒शध॒ग्वने॑ष्वा॒विर्धेना॑ अकृणोद्रा॒म्याणा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । वृ॒त्रम्‌ । अ॒वृ॒णो॒त् । शर्ध॑ऽनीति: । प्र । मा॒यिना॑म् । अ॒मि॒ना॒त् । वर्प॑ऽनीति॑: ॥ अह॑न् । विऽअं॑सम् । उ॒शध॑क् । वने॑षु । आ॒वि: । धेना॑: । अ॒कृ॒णो॒त् । रा॒म्याणा॑म् ॥११.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वृत्रमवृणोच्छर्धनीतिः प्र मायिनाममिनाद्वर्पणीतिः। अहन्व्यंसमुशधग्वनेष्वाविर्धेना अकृणोद्राम्याणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । वृत्रम्‌ । अवृणोत् । शर्धऽनीति: । प्र । मायिनाम् । अमिनात् । वर्पऽनीति: ॥ अहन् । विऽअंसम् । उशधक् । वनेषु । आवि: । धेना: । अकृणोत् । राम्याणाम् ॥११.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (शर्धनीतिः) सेना के नायक (इन्द्रः) इन्द्र [प्रतापी राजा] ने (वृत्रम्) शत्रु को (अवृणोत्) घेर लिया, (मायिनाम्) कपटी लोगों का (वर्पनीतिः) कपटी नेता (प्र अमिनात्) अत्यन्त घबराया। (उशधक्) हिंसकों के जलानेवाले ने (वनेषु) वनों में [छिपे] (व्यंसम्) विविध पीड़ा देनेवाले को (अहन्) मारा, और (राम्याणाम्) आनन्द देनेवाले पुरुषों की (धेनाः) वाणियों को (आविः अकृणोत्) प्रकट किया ॥३॥

    भावार्थ

    जब शूर सेनापति दुष्टों को मारकर प्रजा को सुखी करता है, तब लोग आनन्द मनाते हुए विविध प्रकार उन्नति करते हैं ॥३॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र यजुर्वेद में भी है-३३।२६ ॥ ३−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (वृत्रम्) शत्रुम् (अवृणोत्) आच्छादितवान् (शर्धनीतिः) शर्धतिरुत्साहार्थः-घञ्+णीञ् प्रापणे-क्तिच्। शर्धो बलनाम-निघ० २।९। बलस्य सैन्यस्य नायकः (प्र) प्रकर्षेण (मायिनाम्) कपटिनाम् (अमिनात्) मीञ् हिंसायाम्-लङ्। कर्तृप्रयोगः कर्मण्यर्थे। हिंसितो दुःखितोऽभूत् (वर्पनीतिः) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। वृञ् आच्छादने-पप्रत्ययः+णीञ् प्रापणे-क्तिच्। वर्प आवरकः कपटी नीतिर्नेता (अहन्) अवधीत् (व्यंसम्) अमेः सन्। उ० ।२१। अम पीडने-सन्। विविधपीडकम् (उशधक्) उष वधे-क+दह दाहे-क्विप्, षस्य शः। हिंसकानां दाहकः (वनेषु) जङ्गलेषु (आविः) प्राकट्ये (धेनाः) वाचः (अकृणोत्) कृवि हिंसाकरणयोः-लङ्। अकरोत् (राम्याणाम्) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। रमु क्रीडायाम्, ण्यर्थाद् ण्यत्। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति कर्तृप्रत्ययः। रमयन्ति आनन्दयन्ति तेषाम्-दयानन्दभाष्ये, यजु० ३३।२६। रमयितॄणां रामाणाम् आनन्दयितॄणां पुरुषाणाम् ॥

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    विषय

    शर्धनीति-वर्पणीति

    पदार्थ

    १. (शर्धनीति:) = शत्रु-हिंसक बल को प्राप्त करानेवाला (इन्द्रः) = शत्रु-ट्रावक प्रभु (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (अवृणोत्) = रोक देता है। यह (वर्पणीति:) = तेजस्वीरूप को प्राप्त करानेवाला प्रभु (मायिनाम्) = मायावाले आसुरभावों को (प्र अमिनात्) = प्रकर्षेण हिंसित करता है। प्रभु का उपासक माया का शिकार नहीं होता। ४. यह उशधक-युद्ध की कामनावाले शत्रुओं का दाहक प्रभु (वनेषु) = उपासकों में वृत्र को (वि अंसम्) = विगत स्कन्ध करके अहन नष्ट कर डालता है। इसप्रकार वासना को विनष्ट करके (राम्याणाम्) = प्रभु में रमण करनेवाले उपासकों के हदयों में (धेना:) = ज्ञान की वाणियों को (आवि: अकृणोत्) = प्रकट करता है।

    भावार्थ

    प्रभु उपासकों को शत्रुसंहारक व तेजस्वी बनानेवाला बल प्राप्त कराते हैं। इनकी वासनाओं को विनष्ट करके इनके हृदयों में ज्ञान की वाणियों को प्रकट करते हैं।

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    भाषार्थ

    (शर्धनीतिः) बलप्रयोग की नीतिवाले (इन्द्रः) परमेश्वर ने (वृत्रम्) पाप-वृत्र पर (अवृणोत्) घेरा डाल दिया है; (वर्पणीतिः) प्रजा को रूपवान् करने की नीतिवाले परमेश्वर ने (मायिनाम्) छलकपटोंवाले प्रजाजनों के छलकपटरूपी वृत्रों का (अमिनात्) हनन किया है; (उशधग्) केवल निज कामना द्वारा दहन कर देनेवाले परमेश्वर ने कामादि के (व्यंसम्) अङ्ग-प्रत्यङ्ग का (अहन्) हनन कर दिया है; और (वनेषु राम्याणाम्) वनों में रहनेवाले प्रसादनीय वानप्रस्थ-उपासकों के प्रति परमेश्वर ने (धेनाः) अपनी वेदवाणियाँ (आविः अकृणोत्) प्रकट की हैं, उनके रहस्यार्थ प्रकट किये हैं।

    टिप्पणी

    [शर्धः=बलम् (निघं০ २.९)। वर्प=रूपम् (निघं০ ३.७)। (व्यंसम्=अंसों अर्थात् कन्धों को काटकर हाथों से रहित कर देना। उश=वश कान्तौ=इच्छा। परमेश्वरीय दण्ड-विधान की नीति का प्रयोजन है—प्रजा की दुर्भावनाओं को हटाकर उन्हें सुन्दर सात्त्विकरूप का कर देना। मन्त्र में राजव्यवस्था के राजनैतिक कर्त्तव्यों का भी वर्णन साथ-साथ हुआ है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indr a Devata

    Meaning

    Indra, heroic warrior of exploits, master of tactics, overwhelms the demon of darkness and, passionate for action, counters the magical moves of the crafty enemies and overthrows the crippled monster. Thus does he set free the cows confined in the forests, voices suppressed in silence, and the streams of water locked up in the cloud and sunrays.

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    Translation

    This mighty fire whose way of function depends on power encompasses the cloud. Among clouds that which tends towards the way of over-casting becomes weak. The fire which fiercely inflames in the cloud waters dispels Vyansam, the troubling cloud and issue forth the sound of the night.

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    Translation

    This mighty fire whose way of function depends on power encompasses the cloud. Among clouds that which tends towards the way of over-casting becomes weak. The fire which fiercely inflames in the cloud waters dispels Vyansam, the troubling cloud and issue forth the sound of the night.

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    Translation

    God, the Evil-Destroyer, utilising His mighty power, effaces all traces of ignorance and darkness, and revealing His deftness in various forms, completely puts an end to all the machinations of the deceitful persons. He shatters all evil to pieces, just as the fire in the jungle reduces everything to ashes. It is He, Who reveals the Vedic Richas through the sages, who revel in Him in the beginning of the creation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र यजुर्वेद में भी है-३३।२६ ॥ ३−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (वृत्रम्) शत्रुम् (अवृणोत्) आच्छादितवान् (शर्धनीतिः) शर्धतिरुत्साहार्थः-घञ्+णीञ् प्रापणे-क्तिच्। शर्धो बलनाम-निघ० २।९। बलस्य सैन्यस्य नायकः (प्र) प्रकर्षेण (मायिनाम्) कपटिनाम् (अमिनात्) मीञ् हिंसायाम्-लङ्। कर्तृप्रयोगः कर्मण्यर्थे। हिंसितो दुःखितोऽभूत् (वर्पनीतिः) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। वृञ् आच्छादने-पप्रत्ययः+णीञ् प्रापणे-क्तिच्। वर्प आवरकः कपटी नीतिर्नेता (अहन्) अवधीत् (व्यंसम्) अमेः सन्। उ० ।२१। अम पीडने-सन्। विविधपीडकम् (उशधक्) उष वधे-क+दह दाहे-क्विप्, षस्य शः। हिंसकानां दाहकः (वनेषु) जङ्गलेषु (आविः) प्राकट्ये (धेनाः) वाचः (अकृणोत्) कृवि हिंसाकरणयोः-लङ्। अकरोत् (राम्याणाम्) ऋहलोर्ण्यत्। पा० ३।१।१२४। रमु क्रीडायाम्, ण्यर्थाद् ण्यत्। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति कर्तृप्रत्ययः। रमयन्ति आनन्दयन्ति तेषाम्-दयानन्दभाष्ये, यजु० ३३।२६। रमयितॄणां रामाणाम् आनन्दयितॄणां पुरुषाणाम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (শর্ধনীতিঃ) সেনানায়ক (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [প্রতাপশালী রাজা] ই (বৃত্রম্) শত্রুকে (অবৃণোৎ) আচ্ছাদিত করেছে, (মায়িনাম্) কপট লোকদের (বর্পনীতিঃ) কপট নেতা (প্র অমিনাৎ) অত্যন্ত বিব্রত হয়েছে। (উশধক্) হিংসুককে পীড়াপ্রদায়ী (বনেষু) বনের মধ্যে [লুকিয়ে] (ব্যংসম্) বিবিধ পীড়া প্রদায়ীকে (অহন্) হনন করেছে, এবং (রাম্যাণাম্) আনন্দ প্রদানকারী পুরুষদের (ধেনাঃ) বাণীসমূহ (আবিঃ অকৃণোৎ) প্রকট করেছে ॥৩॥

    भावार्थ

    যখন বীর সেনাপতি দুষ্টদের বধ করে প্রজাদের খুশি করেন, তখন মানুষ আনন্দিত হয়ে বিবিধ উন্নতি করে ॥৩॥ এই মন্ত্র যজুর্বেদেও আছে- ৩৩।২৬

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    भाषार्थ

    (শর্ধনীতিঃ) বলপ্রয়োগের নীতিসম্পন্ন (ইন্দ্রঃ) পরমেশ্বর (বৃত্রম্) পাপ-বৃত্রের ওপর (অবৃণোৎ) আবরণ করে দিয়েছেন; (বর্পণীতিঃ) প্রজাকে রূপবান্ করার নীতিসম্পন্ন পরমেশ্বর (মায়িনাম্) ছলনাকারী-কপট প্রজাদের ছলকপটরূপী বৃত্রের (অমিনাৎ) হনন করেছেন; (উশধগ্) কেবল নিজ কামনা দ্বারা দহনকারী পরমেশ্বর কামাদির (ব্যংসম্) অঙ্গ-প্রত্যঙ্গের (অহন্) হনন করেছেন; এবং (বনেষু রাম্যাণাম্) বনের নিবাসী প্রসাদনীয় বানপ্রস্থ-উপাসকদের প্রতি পরমেশ্বর (ধেনাঃ) নিজের বেদবাণী (আবিঃ অকৃণোৎ) প্রকট করেছেন।

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