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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 115 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 115/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वत्सः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-११५
    2

    ये त्वामि॑न्द्र॒ न तु॑ष्टु॒वुरृष॑यो॒ ये च॑ तुष्टु॒वुः। ममेद्व॑र्धस्व॒ सुष्टु॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । त्वाम् । इ॒न्द्र॒ । न । तु॒स्तु॒वु: । ऋष॑य: । ये । च॒ । तु॒स्तु॒वु: । मम॑ । इत् । व॒र्ध॒स्व॒ । सुऽस्तु॑त: ॥११५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये त्वामिन्द्र न तुष्टुवुरृषयो ये च तुष्टुवुः। ममेद्वर्धस्व सुष्टुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । त्वाम् । इन्द्र । न । तुस्तुवु: । ऋषय: । ये । च । तुस्तुवु: । मम । इत् । वर्धस्व । सुऽस्तुत: ॥११५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 115; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमेश्वर के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मन्] (ये) जिन [नास्तिकों] ने (त्वाम्) तुझको (न) नहीं (तुष्टुवुः) सराहा है, (च) और (ये) जिन (ऋषयः) ऋषियों [ज्ञानी महात्माओं] ने (तुष्टुवुः) सराहा है, [इन दोनों में] (सुष्टुतः) अच्छे प्रकार स्तुति किया हुआ तू (मम) मेरी (इत्) भी (वर्धस्व) वृद्धि कर ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमात्मा की भक्ति करके ऐसे प्रिय आचरण करें कि नास्तिक भी आस्तिक होवें और वेदज्ञानी आस्तिक रहकर उपकार करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(ये) नास्तिकाः (त्वाम्) (इन्द्र) परमेश्वर (न) निषेधे (तुष्टुवुः) स्तुतवन्तः (ऋषयः) साक्षात्कृतधर्माणि (ये) (च) समुच्चये (तुष्टुवुः) स्तुतवन्तः (मम) (इत्) एव (वर्धस्व) वृद्धिं कुरु (सुष्टुतः) शोभनं स्तुतः सन् ॥

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    विषय

    "ऋषि' नकि 'प्राकृत' [ प्रकृति में फंसा हुआ]

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! ऐसे भी लोग हैं (ये) = जो (त्वाम्) = आपको (न तुष्टवः) = स्तुत नहीं करते। प्रकृति के भोगों में फंसे हुए, उन्हीं के जुटाने में यत्नशील वे 'जगदाहुरनीश्वरम्' संसार को ईश्वररहित ही कहते हैं। वे आपकी सत्ता से ही इनकार करते हैं (च) = और इनके विरीत वे (ऋषभ) = तत्त्वद्रष्टा पुरुष भी हैं (ये) = जोकि आपका (तुष्टुवुः) = स्तवन करते हैं-सब कार्यों को आपसे ही होता हुआ जानते हैं। २. इसप्रकार विविध लोगों को देखता हुआ मैं तो आपका स्तवन करनेवाला ही बनें। (मम) = मेरी तो (इत्) = निश्चय से (सुष्टुत:) = उत्तमता से स्तुत हुए-हुए आप (वर्धस्व) = [वर्धयस्व]-वृद्धि का कारण बनें। आपका स्तवन करता हुआ मैं आप-जैसा ही बनने का यत्न करूँ। आपका स्तवन मेरी वृद्धि का कारण बने।

    भावार्थ

    प्राकृतिक भोगों में फंसे हुए लोग ईश्वर का स्मरण नहीं करते। तत्वद्रष्टा ऋषि प्रभु की स्तुति करते हैं। प्रभु-स्तवन करता हुआ मैं वृद्धि को प्राप्त करें। प्रभु-स्तवन करता हुआ यह पवित्र प्रभु को अपना अतिथि बनाता है अथवा निरन्तर प्रभु की ओर चलता है [अत सातत्यगमने] और इसप्रकार 'मेध्यातिथि' नामवाला होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (ये) जो अज्ञानी लोग (इन्द्र) हे परमेश्वर! (त्वाम्) आपकी (न तुष्टुवुः) स्तुतियाँ नहीं करते, आपका गुण-गान नहीं करते, (च) और (ये) जो (ऋषयः) ऋषि लोग (तुष्टुवुः) आपकी स्तुतियाँ करते हैं, उन सब में से (मम) मेरी स्तुतियों द्वारा (सुष्टुतः) आप यथार्थ स्तुतियाँ पाकर (इत्) ही, (वर्धस्व) आप वास्तव में गुणों में बढ़े हुए प्रतीत होते हैं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में अनृषि, ऋषि, और महर्षि का वर्णन है। अनृषि तो परमेश्वर के गुणों को जानते ही नहीं, इसलिए वे परमेश्वर की स्तुतियाँ नहीं करते। ऋषि-कोटि के व्यक्तियों में भी आर्षदृष्टि का तारतम्य अर्थात् न्यूनाधिकभाव होता है। परन्तु महर्षि-कोटि के व्यक्ति में आर्षदृष्टि निरतिशयरूप में होती है। परमेश्वर के गुण निःसीम हैं, निरतिशय हैं। इसलिए महर्षि कोटि का व्यक्ति ही परमेश्वर के गुणों और स्वरूप को यथार्थरूप में वर्णन कर सकता है। ऐसे व्यक्ति द्वारा ही परमेश्वर “सुष्टुत” (सु+स्तुत) हो सकता है। महर्षि द्वारा परमेश्वर के गुणों का वर्णन सुनकर ही ज्ञात हो सकता है कि परमेश्वर परमेश्वरीय प्रत्येक गुण में, सब से बढ़ा हुआ है, वह महतो महान् है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    There are men who do not adore you, and there are sages who adore you, (both ways you are acknowledged and adored by praise or protest). O lord thus adored by me and pleased, pray accept my adoration and let us rise.

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    Translation

    O Almighty God, you invoked lead to progress to me among those who do not praise you and these seers who do praise you.

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    Translation

    O Almighty God, you invoked Iead to progress to me among those who do not praise you and these seers who do praise you.

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    Translation

    O Mighty Lord of Unconquerable Power, we may never be, through thy kindness, like the helpless and downtrodden, the powerless and the unhappy nor like the totally rejected trees, quite unfit for burning even.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(ये) नास्तिकाः (त्वाम्) (इन्द्र) परमेश्वर (न) निषेधे (तुष्टुवुः) स्तुतवन्तः (ऋषयः) साक्षात्कृतधर्माणि (ये) (च) समुच्चये (तुष्टुवुः) स्तुतवन्तः (मम) (इत्) एव (वर्धस्व) वृद्धिं कुरु (सुष्टुतः) शोभनं स्तुतः सन् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    পরমেশ্বরগুণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম্ ঐশ্বর্যবান পরমাত্মা] (যে) যারা [নাস্তিকরা] (ত্বাম্) তোমার (ন) না (তুষ্টুবুঃ) স্তুতি/প্রশংশা করে, (চ) এবং (যে) যে (ঋষয়ঃ) ঋষিগণ [জ্ঞানী মহাত্মাগণ] (তুষ্টুবুঃ) স্তুতি/প্রশংসা করেছে, [এই দুইয়ের মধ্যে] (সুষ্টুতঃ) উত্তম প্রকার স্তুত্য তুমি (মম) আমার (ইৎ)(বর্ধস্ব) বৃদ্ধি করো।।৩॥

    भावार्थ

    পরমাত্মার প্রতি ভক্তি করে মনুষ্য এরূপ প্রিয় আচরণ করুক যাতে নাস্তিকও আস্তিক হয় এবং বেদজ্ঞানী আস্তিক হয়ে উপকার করে॥৩॥

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    भाषार्थ

    (যে) যে অজ্ঞানী লোক (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ত্বাম্) আপনার (ন তুষ্টুবুঃ) স্তুতি করে না, আপনার গুণ-গান করে না, (চ) এবং (যে) যে (ঋষয়ঃ) ঋষিগণ (তুষ্টুবুঃ) আপনার স্তুতি করে, সেই সকলের মধ্য থেকে (মম) আমার স্তুতি দ্বারা (সুষ্টুতঃ) আপনি যথার্থ স্তুতি প্রাপ্ত করে (ইৎ) ই, (বর্ধস্ব) আপনি বাস্তবে গুণে বর্ধিত প্রতীত হন।

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