अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 135/ मन्त्र 13
ऋषिः -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
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अ॑रंग॒रो वा॑वदीति त्रे॒धा ब॒द्धो व॑र॒त्रया॑। इरा॑मह॒ प्रशं॑स॒त्यनि॑रा॒मप॑ सेधति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र॒म्ऽग॒र: । वा॑वदीति । त्रे॒धा । ब॒द्ध: । व॑र॒त्रया॑ ॥ इ॑राम् । अह॒ । प्रशं॑स॒ति । अनि॑रा॒म् । अप॑ । से॒ध॒ति॒ ॥१३५.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अरंगरो वावदीति त्रेधा बद्धो वरत्रया। इरामह प्रशंसत्यनिरामप सेधति ॥
स्वर रहित पद पाठअरम्ऽगर: । वावदीति । त्रेधा । बद्ध: । वरत्रया ॥ इराम् । अह । प्रशंसति । अनिराम् । अप । सेधति ॥१३५.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अरंगरः) पूरा विज्ञानी पुरुष (त्रेधा) तीन प्रकार से [स्थान, नाम और मनुष्य आदि जन्म से] (वरत्रया) रस्सी से (बद्धः) बँधा हुआ (वावदीति) बार-बार कहता है। (इराम्) लेने योग्य अन्न को (अह) ही (प्रशंसति) वह सराहता है और (अनिराम्) निन्दित अन्न को (अप सेधति) हटाता है ॥१३॥
भावार्थ
विद्वान् आप्त पुरुष अपना स्थान, नाम और जन्म सुधारने के लिये अधर्म को छोड़कर धर्म से अन्न आदि पदार्थ ग्रहण करें ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(अरंगरः) अलम्+गॄ विज्ञाने−अप्। पूर्णविज्ञानी पुरुषः (वावदीति) पुनः पुनर्वदति (त्रेधा) धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरु० ९।२८। स्थाननामजन्मभिस्त्रिप्रकारेण (बद्धः) (वरत्रया) वृञश्चित्। उ० ३।१०७। वृञ् वरणे−अत्रन् चित्। रज्ज्वा (इराम्) ऋज्रेन्द्रा−अ०। उ० २।२८। इण् गतौ−रन्, गुणाभावः। इरा अन्ननाम−निघ० २।७। प्रापणीयमन्नम् (अह) अवश्यम् (प्रशंसति) स्तौति (अनिराम्) निन्दितमन्नम् (अप सेधति) अपगमयति निवारयति ॥
विषय
त्रिदण्डी परिव्राजक का ज्ञानोपदेश
पदार्थ
१. (अरंगरः) = खूब ही ज्ञानोपदेश करनेवाला [अरं गृणाति] यह परिव्राजक (वावदीति) = लोगों के लिए ज्ञान का उपदेश करता है। यह स्वयं (वरत्रया) = व्रतबन्धनरूप रज्जु से (त्रेधा बद्धः) = तीन प्रकार से बँधा होता है-यह वाणी, मन व शरीर' तीनों में संयत होता है 'वाग्दण्डोऽथ मनोदण्ड कायदण्डस्तथैव च । इस संन्यस्त के मुख से कोई अपशब्द उच्चारित नहीं होता, किसी के प्रति मन में द्वेष नहीं होता, इसकी सब शारीरिक क्रियाएँ बड़ी संयत होती हैं तभी तो इसके ज्ञान के उपदेश का प्रभाव होगा। ४. यह (अह) = निश्चय से (इराम्) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता सरस्वती का (प्रशंसति) = शंसन करता है। लोगों को ज्ञान की रुचिवाला बनने की प्रेरणा देता है। (अनिराम्) = जो ज्ञान के प्रतिकूल है उसका (अपसेधति) = वर्जन करता है। स्वयं ज्ञान के प्रतिकूल बातों से दूर रहता हुआ लोगों को भी वैसा बनने के लिए कहता है।
भावार्थ
'वाणी, मन व शरीर' को व्रतबन्धनों से बाँधकर यह त्रिदण्डी लोगों को खूब ही जान का उपदेश करता है। ज्ञान के प्रतिकूल प्रत्येक भाव से दूर रहता है।
भाषार्थ
परन्तु संसारी मनुष्य, (अरंगरः) जो कि सांसारिक-भोगों के विषों का पर्याप्त सेवन करता रहता है, और जो (वरत्रया) अविद्या की रस्सी द्वारा (त्रेधा) तीन अर्थात् आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक दुःखों में या स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों में (बद्धः) बन्धा हुआ है, वह (वावदीति) सांसारिक-भोगों की ही बार-बार चर्चा करता है, तथा (इराम्) सांसारिक खान-पान की (अह) ही (आ प्रशंसति) पूर्णतया प्रशंसा करता, और (अनिराम्) सांसारिक खान-पान से विपरीत आध्यात्मिक-तत्त्वों का (अप सेधति) निराकरण करता रहता है।
टिप्पणी
[अरंगरः=अरम्=अलम्, पर्याप्त+गरम्=विष। इरा=अन्न (निघं০ २.७); इरा=उदक (उणादि कोष २.२९); इरा=मद्य (उणादि कोष २.२९)। अन्न, जल, मद्य आदि सांसारिक-भोग।]
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
The man of mere praise, without discrimination, thrice bound by worldly snares of body, mind and soul, extols mere food that is delicious for the body and rejects what is no good food to his taste.
Translation
The perfectly wise mån traped in thrice (in name, birth and locality, with the string of worldly bondage speaks frequently he commends the good corn and deprecates the grain of scorn.
Translation
The perfectly wise man traped in thrice (in name, birth and locality, with the string of worldly bondage speaks frequently—he commends the good corn and deprecates the grain of scorn.
Translation
Even the best preacher, when obliged by gifts worthy of acceptance as if tied down with a rope, goes on preaching and sings the praises of the donor of food etc., and leaves alone the non-giver.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(अरंगरः) अलम्+गॄ विज्ञाने−अप्। पूर्णविज्ञानी पुरुषः (वावदीति) पुनः पुनर्वदति (त्रेधा) धामानि त्रयाणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति−निरु० ९।२८। स्थाननामजन्मभिस्त्रिप्रकारेण (बद्धः) (वरत्रया) वृञश्चित्। उ० ३।१०७। वृञ् वरणे−अत्रन् चित्। रज्ज्वा (इराम्) ऋज्रेन्द्रा−अ०। उ० २।२८। इण् गतौ−रन्, गुणाभावः। इरा अन्ननाम−निघ० २।७। प्रापणीयमन्नम् (अह) अवश्यम् (प्रशंसति) स्तौति (अनिराम्) निन्दितमन्नम् (अप सेधति) अपगमयति निवारयति ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(অরঙ্গরঃ) পূর্ণ বিজ্ঞানী পুরুষ (ত্রেধা) তিন প্রকারে [স্থান, নাম এবং মনুষ্য আদি জন্ম দ্বারা] (বরত্রয়া) দড়ি দ্বারা (বদ্ধঃ) বদ্ধ (বাবদীতি) বার-বার বলে। (ইরাম্) প্রাপণীয় অন্নের (অহ) ই (প্রশংসতি) সে প্রশংসা করে এবং (অনিরাম্) নিন্দিত অন্নকে (অপ সেধতি) দূর করে ॥১৩॥
भावार्थ
বিদ্বান আপ্ত পুরুষ নিজের স্থান, নাম এবং জন্ম সংশোধনের জন্য অধর্ম ত্যাগ করে ধর্মের সহিত অন্নাদি পদার্থ গ্রহণ করুক ॥১৩॥
भाषार्थ
কিন্তু সাংসারিক মনুষ্য, (অরঙ্গরঃ) যে সাংসারিক-ভোগের বিষের পর্যাপ্ত সেবন করতে থাকে, এবং যে (বরত্রয়া) অবিদ্যার রজ্জু দ্বারা (ত্রেধা) তিন অর্থাৎ আধিভৌতিক, আধিদৈবিক এবং আধ্যাত্মিক দুঃখে বা স্থূল, সূক্ষ্ম এবং কারণ শরীরের মধ্যে (বদ্ধঃ) আবদ্ধ, সে (বাবদীতি) সাংসারিক-ভোগেরই বার-বার চর্চা করে, তথা (ইরাম্) সাংসারিক খাদ্য-পানীয়ের (অহ) ই (আ প্রশংসতি) পূর্ণরূপে প্রশংসা করে, এবং (অনিরাম্) সাংসারিক খাদ্য-পানীয় থেকে বিপরীত আধ্যাত্মিক-তত্ত্বের (অপ সেধতি) নিরাকরণ করতে থাকে।
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