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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 138 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 138/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वत्सः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त १३८
    1

    प्र॒जामृ॒तस्य॒ पिप्र॑तः॒ प्र यद्भर॑न्त॒ वह्न॑यः। विप्रा॑ ऋ॒तस्य॒ वाह॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ऽजाम् । ऋ॒तस्य॑ । पिप्र॑त: । प्र । यत् । भर॑न्त । वह्न॑य: ॥ विप्रा॑: । ऋ॒तस्य॑ । वाह॑सा ॥१३८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजामृतस्य पिप्रतः प्र यद्भरन्त वह्नयः। विप्रा ऋतस्य वाहसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽजाम् । ऋतस्य । पिप्रत: । प्र । यत् । भरन्त । वह्नय: ॥ विप्रा: । ऋतस्य । वाहसा ॥१३८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 138; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा और प्रजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऋतस्य) सत्य धर्म का (पिप्रतः) पालन करते हुए (वह्नयः) ले चलनेवाले [नेता लोग] (प्रजाम्) प्रजा को (यत्) जब (प्र) भले प्रकार (भरन्त) पुष्ट करते हैं, [तब] (विप्राः) बुद्धिमान् लोग (ऋतस्य) सत्य धर्म के (वाहसा) प्राप्त करानेवाले [होते हैं] ॥२॥

    भावार्थ

    नेता गण सत्यव्रती होकर प्रजा को सुख देकर विद्वानों द्वारा सत्य धर्म का प्रचार करें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(प्रजाम्) राज्यजनान् (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (पिप्रतः) पालनं कुर्वन्तः (प्र) प्रकर्षेण (यत्) यदा (भरन्त) भरन्ति। पुष्णन्ति (वह्नयः) वोढारः। नेतारः पुरुषाः (विप्राः) मेधाविनः (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (वाहसा) वहियुभ्यां णित्। स० ३।११९। वह प्रापणे-असच्, स च णित्, विसर्गलोपः। वाहसाः। वोढारः प्रापयितारः सन्ति ॥

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    विषय

    विप्र

    पदार्थ

    १. (ऋतस्य) = ऋत का-सत्य वेदज्ञान का (पिप्रत:) = अग्नि आदि ऋषियों के हदयों में पूरण करनेवाले प्रभु की (प्रजाम्) = प्रजा को (यत्) = जब (प्रभरन्त) = प्रकर्षेण धारण करनेवाले होते हैं तब ये (वह्नयः) = इस प्रजा के पोषण के भार का वहन करनेवाले लोग (ऋतस्य वाहसा) = स्वयं अपने अन्दर ऋत का वहन करने के कारण (विप्राः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले-ज्ञानी-कहलाते हैं। २. एवं विनों के दो मुख्य लक्षण है[क] प्रभु की प्रजा का ये पालन करते हैं [ख] और इस पालन की क्रिया को सम्यक् कर सकने के लिए ये सत्य वेदज्ञान को धारण करते हुए अपना विशेषरूप से पूरण करते हैं।

    भावार्थ

    विन वे हैं जो प्रभु की आज्ञा का पालन करें और ज्ञान के धारण से अपनी न्यूनताओं को दूर करें।

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    भाषार्थ

    (वह्नयः) उपासना-यज्ञ की धुरा का वहन करनेवाले उपासक-नेता, (यद्) जब (पिप्रतः) जीवनपालक और जीवनों को पूर्ण बनानेवाले, (ऋतस्य) सत्यनियमों के (प्रजाम्) प्रथम-जन्मदाता परमेश्वर का (प्र भरन्त) अपने जीवनों में प्रकर्षरूप में वहन करने लगते हैं, तब (विप्राः) वे मेधावी उपासक, (ऋतस्य) सत्य-नियमों के भी (वाहसा) वाहक हो जाते है।

    टिप्पणी

    [अभिप्राय यह कि जिनके जीवनों में परमेश्वर मार्गदर्शक हो जाता है, उनके जीवन सत्यमय हो जाते हैं। पिप्रतः=पॄ पालनपूरणयोः।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    When the forces of nature carry on the laws of divinity and sustain the children of creation through evolution, and the enlightened sages too carry on the yajna of divine law of truth in their adorations, Indra, immanent divinity, waxes with pleasure.

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    Translation

    When the men holding and carrying out the responsibility of state obeying the command of truth strengthen the subject the persons of wisdom become the guardians of truth.

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    Translation

    When the men holding and carrying out the responsibility of state obeying the command of truth strengthen the subject the persons of wisdom become the guardians of truth.

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    Translation

    When the persons, responsible for carrying out the administration of state-affairs, fulfilling the laws of nature and the state, feed and nourish the subjects, like the husbands looking after the welfare of their wives, the learned and the intelligent people become the custodian of the rules and regulations of the state.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(प्रजाम्) राज्यजनान् (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (पिप्रतः) पालनं कुर्वन्तः (प्र) प्रकर्षेण (यत्) यदा (भरन्त) भरन्ति। पुष्णन्ति (वह्नयः) वोढारः। नेतारः पुरुषाः (विप्राः) मेधाविनः (ऋतस्य) सत्यधर्मस्य (वाहसा) वहियुभ्यां णित्। स० ३।११९। वह प्रापणे-असच्, स च णित्, विसर्गलोपः। वाहसाः। वोढारः प्रापयितारः सन्ति ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজপ্রজাকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ঋতস্য) সত্য ধর্মের (পিপ্রতঃ) পালন করে (বহ্নয়ঃ) বহনকারী [নেতাগণ] (প্রজাম্) প্রজাদের (যৎ) যখন (প্র) ভালভাবে (ভরন্ত) পুষ্ট করে, [তখন] (বিপ্রাঃ) বুদ্ধিমান লোক (ঋতস্য) সত্য ধর্মের (বাহসা) প্রদানকারী [হয়] ॥২॥

    भावार्थ

    নেতাগণ সত্যব্রতী হয়ে প্রজাদের সুখ প্রদান করে বিদ্বানদের দ্বারা সত্য ধর্মের প্রচার করুক ॥২॥

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    भाषार्थ

    (বহ্নয়ঃ) উপাসনা-যজ্ঞের ধুরা বহনকারী উপাসক-নেতা, (যদ্) যখন (পিপ্রতঃ) জীবনপালক এবং জীবন পূর্ণকারী, (ঋতস্য) সত্যনিয়মের (প্রজাম্) প্রথম-জন্মদাতা পরমেশ্বরকে (প্র ভরন্ত) নিজের জীবনে প্রকর্ষরূপে বহন করে, তখন (বিপ্রাঃ) সেই মেধাবী উপাসক, (ঋতস্য) সত্য-নিয়মেরও (বাহসা) বাহক হয়ে যায়।

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