अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 141/ मन्त्र 2
यदिन्द्रे॑ण स॒रथं॑ या॒थो अ॑श्विना॒ यद्वा॑ वा॒युना॒ भव॑थः॒ समो॑कसा। यदा॑दि॒त्येभि॑रृ॒भुभिः॑ स॒जोष॑सा॒ यद्वा॒ विष्णो॑र्वि॒क्रम॑णेषु॒ तिष्ठ॑थः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । इन्द्रे॑ण । स॒ऽरथ॑म् । या॒थ: । अ॒श्वि॒ना॒ । यत् । वा॒ । वा॒युना॑ । भव॑थ: । सम्ऽओ॑कसा ॥ यत् । आ॒दि॒त्येभि॑: । ऋ॒भुऽभि॑: । स॒ऽजोष॑सा । यत् । वा॒ । विष्णो॑: । वि॒ऽक्रम॑णेषु । तिष्ठ॑थ: ॥१४१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदिन्द्रेण सरथं याथो अश्विना यद्वा वायुना भवथः समोकसा। यदादित्येभिरृभुभिः सजोषसा यद्वा विष्णोर्विक्रमणेषु तिष्ठथः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । इन्द्रेण । सऽरथम् । याथ: । अश्विना । यत् । वा । वायुना । भवथ: । सम्ऽओकसा ॥ यत् । आदित्येभि: । ऋभुऽभि: । सऽजोषसा । यत् । वा । विष्णो: । विऽक्रमणेषु । तिष्ठथ: ॥१४१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थ
(अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-राति] (यत्) चाहे (इन्द्रेण) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सूर्य] के साथ (सरथम्) एक रथ में चढ़कर (याथः) तुम चलते हो, (वा) अथवा (यत्) चाहे (वायुना) पवन के साथ (समोकसा) एक घरवाले (भवथः) होते हो। (यत्) चाहे (आदित्येभिः) अखण्ड व्रतधारी (ऋभुभिः) बुद्धिमानों के साथ (सजोषसा) एक सी प्रीति करते हुए, (वा) अथवा (यत्) चाहे (विष्णोः) सर्वव्यापक परमात्मा के (विक्रमणेषु) पराक्रमों में (तिष्ठथः) ठहरते हो [वहाँ से दोनों आओ-म० १] ॥२॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सर्वत्र व्यापी दिन-राति अर्थात् काल को सूर्यविद्या, वायुविद्या, विद्वानों के सत्सङ्ग और परमेश्वर की भक्ति आदि में लगाकर अपना पुरुषार्थ बढ़ावें ॥२॥
टिप्पणी
२−(यत्) यदि। सम्भावनायाम् (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता सूर्येण सह (सरथम्) समानमेकं रथमास्थाय (याथः) गच्छथः (अश्विना) सू० १४०। म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (यत्) यदि (वा) अथवा (वायुना) पवनेन (भवथः) (समोकसा) समानगृहौ (यत्) (आदित्येभिः) अखण्डव्रतिभिः (ऋभुभिः) अथ० १।२।३। मेधाविभिः-निघ० ३।१। (सजोषसा) समानप्रीयमाणौ (यत्) (वा) (विष्णोः) सर्वव्यापस्य परमेश्वरस्य (विक्रमणेषु) शौर्यातिशयेषु। पराक्रमेषु (तिष्ठथः) वर्तेथे। सर्वस्मादपि स्थानादागच्छतम्-इति पूर्वमन्त्रेण सह अन्वयः ॥
विषय
इन्द्र, वायु, आदित्य, विष्णु
पदार्थ
१. 'प्राणसाधना हमें जितेन्द्रिय बनाती है' इस बात को इस रूप में कहते हैं कि हे (अश्विना) = प्राणापानो! आपकी साधना होने पर समय आता है (यत्) = जबकि (इन्द्रेण) = जितेन्द्रिय पुरुष के साथ (सरथं याथः) = समान रथ में गति करते हो। शरीर ही रथ है। इसमें जितेन्द्रिय पुरुष का प्राणों के साथ निवास होता है। (यद् वा) = अथवा आप (वायुना) = वायु के साथ [वा गती] गतिशील पुरुष के साथ (सम् ओकसा) = समान गृहवाले (भवथ) = होते हो, अर्थात् प्राणसाधना हमारे जीवनों को बड़ा क्रियाशील बनाती है। २. हे प्राणापानो! (यत्) = अब आप (ऋभुभिः) = [उरुभान्ति, ऋतेन भान्ति]-ज्ञानज्योति से खूब दीप्त होनेवाले (आदत्येभिः) = सब ज्ञानों का आदान करनेवाले पुरुषों के साथ (सजोषसा) = प्रीतियुक्त होते हो। (यद् वा) = अथवा आप (विष्णो:) = व्यापक उन्नति करनेवाले पुरुष के (विक्रमणेषु) = विक्रमणों में-तीन कदमों में (तिष्ठथ:) = स्थित होते हो। शरीर को "तैजस्' बनाना ही इस विष्णु का पहला कदम है। मन को वैश्वानर' बनाना-सब मनुष्यों के हित की कामनावाला बनाना दूसरा कदम है। मस्तिष्क को 'प्राज्ञ' बनाना तीसरा-ये सब कदम प्राणसाधना से ही रक्खे जाते हैं।
भावार्थ
प्राणसाधना हमें 'जितेन्द्रिय, क्रियाशील, ज्ञानदीस व व्यापक' उन्नतिवाला [विष्णु] बनाती है।
भाषार्थ
(अश्विना) हे दोनों अश्वियो! नागरिक प्रजा तथा सेना के अधिपतियो! (यद्) जो आप (इन्द्रेण) सम्राट् के साथ (सरथम्) एक रथ में बैठकर (याथः) प्रजाजनों के निरीक्षण के लिए जाते हो, (यद् वा) अथवा (वायुना) वायुयानों के अध्यक्ष के साथ (समोकसा=समोकसौ) अन्तरिक्ष-गृह में (भवथः) जाते हो, (यद्) और जो आप (आदित्येभिः) आदित्य कोटि में विद्वानों, तथा (ऋभुभिः) राष्ट्र के कारीगरों के साथ (सजोषसा) मिलकर उनके साथ प्रेमप्रदर्शन तथा उनकी सेवाएँ करते हो, (यद् वा) और जो आप (विष्णोः) यज्ञ-यागों की (विक्रमणेषु) पद्धतियों में विद्यमान होकर (तिष्ठथः) आकर बैठते हो,
टिप्पणी
[इन्द्रः=सम्राट्; यथा “इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा” (यजुः০ ८.३७)। वायुना=वायुशब्द द्वारा वायुयानों का अध्यक्ष लक्षित है। अथवा—वायु के साथ तुम दोनों एक अन्तरिक्ष में गति करते हो। वायु अन्तरिक्ष में वास करती हैं, दोनों अश्वी भी वायुयानों द्वारा अन्तरिक्ष में गति करते हैं। समोकसा=सम्=साथ, ओकस्=स्थानम् (उणादि कोष ४.११७, बाहुलकात्); ॥ house (आप्टे)। ऋभुभिः=शिल्पिभिः। यथा “ऋभू रथस्येवाङ्गानि सं दधत् परुषा परुः” (अथर्व০ ४.१२.७)। सजोषसा=स (सह)+जुष् (प्रीतिसेवनयोः)। विष्णुः=यज्ञः (निघं০ ३.१७)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Whether you move with the cosmic force on the same chariot or abide with the wind in the same region, or you move across the sun’s zodiacs or with the cosmic makers, or you move and abide with the vibrance of the omnipresent, wherever you be, pray come to us too.
Translation
These day and night (Ashvinau) move with the sun in the same sphere or range, they become ċo-dweller of air (in firmament) they have their contact with twelve months and Ribhus, the cosmic rays and they also rest in the cosmic arrangements or the adventures of Divinity, i.e, the worlds.
Translation
These day and night (Ashvinau) move with the sun in the same sphere or range, they become co-dweller of air in firmament) they have their contact with twelve months and Ribhus, the cosmic rays and they also rest in the cosmic arrangements or the adventures of Divinity, i.e., the worlds.
Translation
O Asvins, the two powerful forces, as you move along with the same vehicle as the sun, as you share the same space with the strong wind, as youpulsate and invigorate with the magnetic forces of cosmic rays during all the twelve months of the year, as you find a place in the circular motion of the all-pervading ether.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यत्) यदि। सम्भावनायाम् (इन्द्रेण) परमैश्वर्यवता सूर्येण सह (सरथम्) समानमेकं रथमास्थाय (याथः) गच्छथः (अश्विना) सू० १४०। म० २। हे व्यापकौ। अहोरात्रौ (यत्) यदि (वा) अथवा (वायुना) पवनेन (भवथः) (समोकसा) समानगृहौ (यत्) (आदित्येभिः) अखण्डव्रतिभिः (ऋभुभिः) अथ० १।२।३। मेधाविभिः-निघ० ३।१। (सजोषसा) समानप्रीयमाणौ (यत्) (वा) (विष्णोः) सर्वव्यापस्य परमेश्वरस्य (विक्रमणेषु) शौर्यातिशयेषु। पराक्रमेषु (तिष्ठथः) वर्तेथे। सर्वस्मादपि स्थानादागच्छतम्-इति पूर्वमन्त्रेण सह अन्वयः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
অহোরাত্রসুপ্রয়োগোপদেশঃ
भाषार्थ
(অশ্বিনা) হে উভয় অশ্বী! [ব্যাপক দিন-রাত] (যৎ) যেহেতু (ইন্দ্রেণ) ইন্দ্রের [মহান ঐশ্বর্যবান সূর্যের] সাথে (সরথম্) এক রথে (যাথঃ) তোমরা গমন করো, (বা) অথবা (যৎ) এমন (বায়ুনা) পবনের সাথে (সমোকসা) এক ঘরযুক্ত (ভবথঃ) হও। (যৎ) এমন (আদিত্যেভিঃ) অখণ্ড ব্রতধারী (ঋভুভিঃ) বুদ্ধিমানদের সাথে (সজোষসা) সমান প্রীতি করো, (বা) অথবা (যৎ) এমন (বিষ্ণোঃ) সর্বব্যাপক পরমাত্মার (বিক্রমণেষু) পরাক্রমে (তিষ্ঠথঃ) অবস্থান করো [সেখান থেকে উভয়ই এসো-ম০ ১] ॥২॥
भावार्थ
মনুষ্যের উচিৎ, সর্বত্র ব্যাপী দিবা-রাত্রি অর্থাৎ কাল/সময়কে সূর্যবিদ্যা, বায়ুবিদ্যা, বিদ্বানদের সৎসঙ্গ এবং পরমেশ্বরে ভক্তি আদিতে নিয়োজিত করে নিজেদের পুরুষার্থ বৃদ্ধি করা ॥২॥
भाषार्थ
(অশ্বিনা) হে উভয় অশ্বিগণ! নাগরিক প্রজা তথা সেনাদের অধিপতিগণ! (যদ্) যে আপনারা (ইন্দ্রেণ) সম্রাটের সাথে (সরথম্) এক রথে বসে (যাথঃ) প্রজাদের নিরীক্ষণের জন্য যাও/গমন করো, (যদ্ বা) অথবা (বায়ুনা) বায়ুযানের অধ্যক্ষের সাথে (সমোকসা=সমোকসৌ) অন্তরিক্ষ-গৃহে (ভবথঃ) যাও, (যদ্) এবং যে আপনারা (আদিত্যেভিঃ) আদিত্য কোটির বিদ্বানগণ, তথা (ঋভুভিঃ) রাষ্ট্রের কারিগরদের সাথে (সজোষসা) মিলে তাঁদের সাথে প্রেমপ্রদর্শন তথা তাঁদের সেবা করো, (যদ্ বা) এবং যে আপনারা (বিষ্ণোঃ) যজ্ঞ-যাগের (বিক্রমণেষু) পদ্ধতিতে বিদ্যমান হয়ে (তিষ্ঠথঃ) এসে বসো/স্থিত হও।
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