अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 5
य॒ज्ञैरथ॑र्वा प्रथ॒मः प॒थस्त॑ते॒ ततः॒ सूर्यो॑ व्रत॒पा वे॒न आज॑नि। आ गा आ॑जदु॒शना॑ का॒व्यः सचा॑ य॒मस्य॑ जा॒तम॒मृतं॑ यजामहे ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञै: । अथ॑र्वा । प्र॒थ॒म: । प॒थ: । त॒ते॒ । तत॑: । सूर्य॑: । व्र॒त॒पा: । वे॒न: ।आ । अ॒ज॒नि॒ ॥ आ । गा: । आ॒ज॒त् । उ॒शना॑ । का॒व्य: ।सचा॑ । य॒मस्य॑ । जा॒तम् । अ॒मृत॑म् । य॒जा॒म॒हे॒ ॥२५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते ततः सूर्यो व्रतपा वेन आजनि। आ गा आजदुशना काव्यः सचा यमस्य जातममृतं यजामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञै: । अथर्वा । प्रथम: । पथ: । तते । तत: । सूर्य: । व्रतपा: । वेन: ।आ । अजनि ॥ आ । गा: । आजत् । उशना । काव्य: ।सचा । यमस्य । जातम् । अमृतम् । यजामहे ॥२५.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(प्रथमः) सबसे पहिले वर्तमान (अथर्वा) निश्चल परमात्मा ने (यज्ञैः) संगति कर्मों [परमाणुओं के मेलों] से (पथः) मार्गों को (तते) फैलाया, (ततः) फिर (व्रतपाः) नियम पालनेवाला, (वेनः) पियारा (सूर्यः) सूर्यलोक (आ) सब ओर (अजनि) प्रकट हुआ। (उशना) पियारे, (काव्यः) बड़ाई योग्य उस [सूर्य] ने (गाः) पृथिवियों [चलते हुए लोकों] को (आ) सब ओर (आजत्) खींचा हैं, (यमस्य) उस नियमकर्ता परमेश्वर के (सचा) मेल से (जातम्) उत्पन्न हुए (अमृतम्) अमरण [मोक्षसुख वा जीवनसामर्थ्य] को (यजामहे) हम पाते हैं ॥॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने आकाश, सूर्य, पृथिवी आदि लोक बनाकर हमें जीवन दिया है, उस बड़े जगदीश्वर की उपासना से विद्वान् लोग आत्मिक बल बढ़ाकर मोक्षसुख भोगें ॥॥
टिप्पणी
−(यज्ञैः) संगतिकरणैः। परमाणूनां संगमैः (अथर्वा) अ० ४।१।७। नञ्+थर्व चरणे-गतौ-वनिप्, वलोपः। निश्चलः परमेश्वरः (प्रथमः) सर्वेषामादिः (पथः) मार्गान् (तते) तनु विस्तारे-लिट्, छान्दसं रूपम्। तेने। विस्तारितवान् (सूर्यः) सवितृलोकः (व्रतपाः) नियमपालकः (वेनः) कमनीयः (आ) समन्तात् (अजनि) जनी प्रादुर्भावे-लुङ्। प्रादुरभूत् (आ) समन्तात् (गाः) गमनशीलान् पृथिव्यादिलोकान् (आजत्) अज गतिक्षेपणयोः-लङ्। प्रक्षिप्तवान्। आकर्षणे धारितवान् (उशना) वशेः क्नसि। उ० ४।२३९। वश कान्तौ-क्नसि, सम्प्रसारणं च। ऋदुशनस्पुरदंशोऽनेहसां च। पा० ७।१।९४। अनङ् आदेशः। सर्वनामस्थाने चा०। पा० ६।४।८। उपधादीर्घः। हल्ङ्याञ्भ्यो०। पा० ६।१।६८। सुलोपः। नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य। पा० ८।२।७। नलोपः। कमनीयः (काव्यः) अ० ४।१।६। कवृ स्तुतौ-ण्यत्। स्तुत्यः सूर्यः (सचा) षच समवाये-क्विप्। सम्मेलनेन (यमस्य) सर्वनियन्तुः परमेश्वरस्य (जातम्) उत्पन्नम्। प्रसिद्धम् (अमृतम्) अमरणम्। मोक्षसुखं जीवनसामर्थ्यं वा (यजामहे) संगच्छामहे। प्राप्नुमः ॥
विषय
अथर्वा-सूर्यः-व्रतपाः
पदार्थ
१. (अथर्वा) = संसार के विषयों में डांवाडोल न होनेवाला व्यक्ति (प्रथम:) = सर्वप्रथम होता है वह सबका अग्नणी होता है। (यज्ञैः) = यज्ञों के द्वारा पथ: मार्गों को तते-विस्तृत करता है। तत: तब ऐसा करने पर, यह सूर्य:-[सरति] निरन्तर क्रियाशील व सूर्य के समान चमकनेवाला बनता है। व्रतपा: यह व्रतों का पालन करता है और वेन: आजनि-विचारशील हो जाता है-प्रत्येक काम को सोच-समझकर विचारपूर्वक करता है। २. यह गा: इन्द्रियों को आ आजत्-समन्तात् अपने-अपने कर्मों में प्रेरित करता है। उशना:-प्रभु-प्राप्ति की कामनावाला होता है। काव्यः ज्ञानी बनता है। इस यमस्य-सर्वनियन्ता प्रभु के सचा-साथ जातम् प्रादुर्भूतशक्तिवाले अमृतम्-विषय वासनाओं के पीछे न मारनेवाले पुरुष को यजामहे-हम आदर देते हैं और इसका संग करने का यत्न करते हैं।
भावार्थ
हम स्थिरवृत्ति बनकर यज्ञमय जीवनवाले बनें। सूर्य के समान व्रतों का पालन करनेवाले हों। इन्द्रियों को कर्तव्य-कर्मों में प्रेरित करें। प्रभु के सम्पर्क में रहनेवाले लोगों का संसर्ग करें।
भाषार्थ
(प्रथमः) सर्वश्रेष्ठ अनादि तथा (अथर्वा) सदा एकरस में स्थित कूटस्थ परमेश्वर ने (यज्ञैः) यज्ञस्वरूप कर्त्तव्य कर्मों के उपदेश द्वारा (पथः) वर्णाश्रमियों के जीवन-मार्गों का (तते) विस्तार से वर्णन किया। और एतदर्थ (उशना) प्रजा के सुख और कल्याण की कामनावाले परमेश्वर ने (सचा) एक साथ (गाः) वेदवाणियों को (आ) पूर्णरूप में (आजत्) प्रकट किया। (काव्यः) परमेश्वर सर्वश्रेष्ठ कवि है, (ततः) उसी परमेश्वर से (व्रतपाः) व्रतपति (वेनः) और कान्तिमान् (सूर्यः) सूर्य (आजनि) उत्पन्न हुआ। (यमस्य) सर्वनियन्ता परमेश्वर के (जातम्) सुप्रसिद्ध (अमृतम्) अमृतस्वरूप का (यजामहे) हम यजन करते हैं, उस स्वरूप के साथ हम अपना संग करते हैं।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह है कि परमेश्वर ज्ञान-प्रदाता, सृष्टि रचयिता, तथा सर्वनियन्ता है। अतः उसी की उपासना करके अमृतत्व की प्राप्ति होती है। (व्रतपाः) अग्नि वायु सूर्य तथा ग्रह आदि अपने-अपने नियत कर्मों में सदा स्थित रहते हैं, अतः ये व्रतपति हैं, व्रतपा हैं। उशनाः=वष्टि कामयते]।
इंग्लिश (4)
Subject
Self-integration
Meaning
As Atharva, scholar of sustained constancy like energy in stasis, discovers and creates the prime path of motion by yajnic research, the noble solar scientist brilliant as the sun dedicated to his vow rises in knowledge and discovers the path of the earth. Then the poetic sage prophetically inspired sings of the beauty of Venus and satellites born of the sun. And we meditate and pray for immortality of the state of moksha.
Translation
The Supreme power who is firm in His thought and will paves the ways through integration, disentagration and regulation of material atoms. Then the luminous sun who is the guardian of natural law springs up. This brilliant praiseworthy sun attracts and supports the words in motion. United together we may attain the bliss (Amritam) which is produced by God controlling the cosmic order.
Translation
The Supreme power who is firm in His thought and will paves the ways through integration, disentagration and regulation of material atoms. Then the luminous sun who is the guardian of natural Jaw springs up. This brilliant praiseworthy sun attracts and supports the words in motion. United together we may attain the bliss (Amritam) which is produced by God controlling the cosmic order.
Translation
The non-violent Lord, who was present even before the creation of the universe, spread far and wide, the various courses for innumerable spheres to run, by His powers of synthesis and analysis. Thence came to light the refulgent sun, working according to the set laws by the Ordainer. The same radiant sun, the store-house oftransmission of light all around, sets in motion all the planets, like the earth, all around itself. Then we, the people of the world, all together, get the everlasting creation of the Controller of the universe for our working here.
Footnote
अमृतं- Everlasting-Blasting for a very, very long period till प्रलय. Ushna Kanya is no Rishi as Sayana or Griffith says.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(यज्ञैः) संगतिकरणैः। परमाणूनां संगमैः (अथर्वा) अ० ४।१।७। नञ्+थर्व चरणे-गतौ-वनिप्, वलोपः। निश्चलः परमेश्वरः (प्रथमः) सर्वेषामादिः (पथः) मार्गान् (तते) तनु विस्तारे-लिट्, छान्दसं रूपम्। तेने। विस्तारितवान् (सूर्यः) सवितृलोकः (व्रतपाः) नियमपालकः (वेनः) कमनीयः (आ) समन्तात् (अजनि) जनी प्रादुर्भावे-लुङ्। प्रादुरभूत् (आ) समन्तात् (गाः) गमनशीलान् पृथिव्यादिलोकान् (आजत्) अज गतिक्षेपणयोः-लङ्। प्रक्षिप्तवान्। आकर्षणे धारितवान् (उशना) वशेः क्नसि। उ० ४।२३९। वश कान्तौ-क्नसि, सम्प्रसारणं च। ऋदुशनस्पुरदंशोऽनेहसां च। पा० ७।१।९४। अनङ् आदेशः। सर्वनामस्थाने चा०। पा० ६।४।८। उपधादीर्घः। हल्ङ्याञ्भ्यो०। पा० ६।१।६८। सुलोपः। नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य। पा० ८।२।७। नलोपः। कमनीयः (काव्यः) अ० ४।१।६। कवृ स्तुतौ-ण्यत्। स्तुत्यः सूर्यः (सचा) षच समवाये-क्विप्। सम्मेलनेन (यमस्य) सर्वनियन्तुः परमेश्वरस्य (जातम्) उत्पन्नम्। प्रसिद्धम् (अमृतम्) अमरणम्। मोक्षसुखं जीवनसामर्थ्यं वा (यजामहे) संगच्छामहे। प्राप्नुमः ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
বিদ্বৎকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(প্রথমঃ) সর্বপ্রথম বর্তমান (অথর্বা) নিশ্চল পরমাত্মা (যজ্ঞৈঃ) সঙ্গতি কর্মসমূহ [পরমাণুসমূহের বন্ধন] দ্বারা (পথঃ) পথসমূহকে (ততে) বিস্তৃত করেছেন, (ততঃ) তদনন্তর (ব্রতপাঃ) নিয়ম পালনকারী, (বেনঃ) প্রিয় (সূর্যঃ) সূর্যলোক (আ) সকল দিকে (অজনি) প্রকট হয়েছে। (উশনা) প্রিয়, (কাব্যঃ) প্রশংসাযোগ্য সেই [সূর্য] (গাঃ) পৃথিবীকে [তথা গমনশীল লোকসমূহকে] (আ) সকল দিক হতে (আজৎ) আকর্ষণপূর্বক ধারণ করেছে, (যমস্য) সেই নিয়মকর্তা পরমেশ্বরের (সচা) মিলনে (জাতম্) উৎপন্ন (অমৃতম্) অমরণ [মোক্ষসুখ বা জীবন সামর্থ্য] কে (যজামহে) আমরা প্রাপ্ত হই ॥৫॥
भावार्थ
যে পরমাত্মা আকাশ, সূর্য, পৃথিবীআদি লোক রচনা করে আমাদের জীবন প্রদান করেছেন, সেই জগদীশ্বরের উপাসনা দ্বারা বিদ্বানগণ আত্মিক বল বৃদ্ধি করে মোক্ষসুখ ভোগ করে/করুক ॥৫॥
भाषार्थ
(প্রথমঃ) সর্বশ্রেষ্ঠ অনাদি তথা (অথর্বা) সদা একরসে স্থিত কূটস্থ পরমেশ্বর (যজ্ঞৈঃ) যজ্ঞস্বরূপ কর্ত্তব্য কর্মের উপদেশ দ্বারা (পথঃ) বর্ণাশ্রমীদের জীবন-মার্গের (ততে) বিস্তারিত বর্ণনা করেছেন। এবং এতদর্থ (উশনা) প্রজাদের সুখ এবং কল্যাণের কামনাকারী পরমেশ্বর (সচা) একসাথে (গাঃ) বেদবাণী-কে (আ) পূর্ণরূপে (আজৎ) প্রকট করেছেন। (কাব্যঃ) পরমেশ্বর সর্বশ্রেষ্ঠ কবি, (ততঃ) সেই পরমেশ্বর দ্বারা (ব্রতপাঃ) ব্রতপতি (বেনঃ) এবং কান্তিমান্ (সূর্যঃ) সূর্য (আজনি) উৎপন্ন হয়েছে। (যমস্য) সর্বনিয়ন্তা পরমেশ্বরের (জাতম্) সুপ্রসিদ্ধ (অমৃতম্) অমৃতস্বরূপের (যজামহে) আমরা যজন/স্তুতি করি, সেই স্বরূপের সাথে আমরা নিজেদের সঙ্গ করি।
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