Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 35 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५
    2

    अ॒स्मा इदु॒ त्यमु॑प॒मं स्व॒र्षां भरा॑म्याङ्गू॒षमा॒स्येन। मंहि॑ष्ठ॒मच्छो॑क्तिभिर्मती॒नां सु॑वृ॒क्तिभिः॑ सू॒रिं वा॑वृ॒धध्यै॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । इत् । ऊं॒ इति॑ । त्यम् । उ॒प॒ऽमम् । स्व॒:ऽसाम् । भरा॑मि । आ॒ङ्गू॒षम् । आ॒स्ये॑न ॥ मंहि॑ष्ठम् । अच्छो॑क्तिऽभि: । म॒तो॒नाम् । सु॒वृ॒क्तिऽभि॑: । सू॒रिम् । व॒वृ॒धध्यै॑ ३५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा इदु त्यमुपमं स्वर्षां भराम्याङ्गूषमास्येन। मंहिष्ठमच्छोक्तिभिर्मतीनां सुवृक्तिभिः सूरिं वावृधध्यै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । इत् । ऊं इति । त्यम् । उपऽमम् । स्व:ऽसाम् । भरामि । आङ्गूषम् । आस्येन ॥ मंहिष्ठम् । अच्छोक्तिऽभि: । मतोनाम् । सुवृक्तिऽभि: । सूरिम् । ववृधध्यै ३५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सभापति के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अस्मै) इस [संसार] के हिते के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (त्यम्) उस (उपमम्) उपमायोग्य, (स्वर्षाम्) सुख देनेवाली, (आङ्गूषम्) प्राप्तियोग्य स्तुति को (आस्येन) [अपने] मुख से (मतीनाम्) बुद्धिमानों में (अच्छोक्तिभिः) अच्छे वचनोंवाली (सुवृक्तिभिः) सुन्दर ग्रहणयोग्य क्रियाओं के साथ (मंहिष्ठम्) उस अत्यन्त उदार, (सूरिम्) प्रेरक विद्वान् के (वावृधध्यै) बढ़ाने के लिये (भरामि) मैं धारण करता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अपने शुभ लक्षणों से सबमें श्रेष्ठ गुणी विद्वान् हो, उसको आदरपूर्वक सभापति बनावें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अस्मै) (इत्) (उ) म०१। (त्यम्) तम् (उपमम्) दृष्टान्तयोग्यम् (स्वर्षाम्) अ०।२।८। स्वः+षणु दाने-विट्। सुखस्य दातारम् (भरामि) धरामि (आङ्गूषम्) म०२। प्रापणीयं स्तोमम् (मंहिष्ठम्) अ०२०।१।१। दातृतमम् (अच्छोक्तिभिः) श्रेष्ठवचनयुक्ताभिः (मतीनाम्) मेधाविनाम्-निघ०३।१। (सुवृक्तिभिः) म०२। सुष्ठु ग्राह्याभिः क्रियाभिः (सूरिम्) अ०२।११।४। प्रेरकं विद्वांसम् (वावृधध्यै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३।४।९। वृधु वृद्धौ-कध्यैप्रत्ययः, अन्तर्गतण्यर्थः, कित्वाद् गुणाभावः, द्विर्भावश्छान्दसः। वर्धयितुम्। स्तोतुम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उपमं स्वर्षा आंगूषम्

    पदार्थ

    १. (अस्मै इत् उ) = इस प्रभु के लिए निश्चय से (त्यम्) = उस (उपमम्) = [उपमीयते अनेन] समीपता से मापनेवाले, अर्थात् यद्यपि प्रभु का पूर्ण मापन सम्भव नहीं, तो भी बहुत कुछ प्रभु के गुणों का प्रतिपादन करनेवाले (स्वर्षाम्) = सुख व प्रकाश को प्राप्त करानेवाले (आंगषम) = स्तोत्र को (आस्येन) = मुख से (भरामि) = सम्पादित करता हूँ। २. उस (मंहिष्ठम् दातृतम) = सर्वाधिक देनेवाले (सूरिम्) = ज्ञानी प्रभु को (मतीनाम् अच्छ उक्तिभिः) = मननपूर्वक की गई स्तुतियों के स्वच्छ वचनों से तथा (सुवृक्तिभिः) = सम्यक् पापों के वर्जन से (वावृधध्यै) = अपने में बढ़ाने के लिए होता हूँ।

    भावार्थ

    प्रभु-स्तवन से प्रकाश की प्राप्ति होती है। स्तुति व पापवर्जन के द्वारा हम प्रभु की भावना को अपने में बढ़ा पाते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (वावृधध्यै) सर्वतोन्मुखी वृद्धि के लिए—(महिष्ठम्) पूजनीय, महादानी (सूरिम्) तथा सर्वप्रेरक परमेश्वर के प्रति—(मतीनाम्) मतिमान् स्तोताओं की (सुवृक्तिभिः) सर्वथा दोषवर्जित (अच्छोक्तिभिः) अच्छी सूक्तियों द्वारा (भरामि) मैं स्तुतियाँ भेंट करता हूँ। और (वावृधध्यै) सबकी वृद्धि के निमित्त, मैं उपासक, (अस्मै इत् उ) इस ही परमेश्वर के प्रति (उपमम्) उपमा के योग्य, (स्वर्षाम्) तथा सुखदायक, (त्यम्) उस प्रसिद्ध (आङ्गूषम्) घोषयुक्त सामगान को, (आस्येन) मुखोच्चारण द्वारा (भरामि) भेंट करता हूं।

    टिप्पणी

    [मुखोच्चारण द्वारा स्तुति करने से श्रोतााओं की भी अध्यात्म-वृद्धि हो सकती है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    For the sake of the advancement of Agni, the ruler, and of the people of knowledge and wisdom, I speak noble and powerfully persuasive words in support of this exemplary, generous, revered and magnanimous hero, a great man of wisdom and piety of conduct.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    To this Almighty Divinity alone I offer with my lips the suitable pleasant eulogy aud for magnifying His glories. I with adorations befitting and agreeable praise Him who is most exalted one and inspirer of good intent and precept.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    To This Almighty Divinity alone I offer with my lips the suitable pleasant eulogy and for magnifying His glories. I with adorations befitting and agreeable praise Him who is most exalted one and inspirer of good intent and precept.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    For this Mighty God alone, I offer the happy, pleasant praise-songs by my mouth, for the enhancement of the glory of the Wisest and the most Refulgent God, Who is the most Adorable among the thoughtful people, well-spoken words, capable of removing all troubles and vexations,

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अस्मै) (इत्) (उ) म०१। (त्यम्) तम् (उपमम्) दृष्टान्तयोग्यम् (स्वर्षाम्) अ०।२।८। स्वः+षणु दाने-विट्। सुखस्य दातारम् (भरामि) धरामि (आङ्गूषम्) म०२। प्रापणीयं स्तोमम् (मंहिष्ठम्) अ०२०।१।१। दातृतमम् (अच्छोक्तिभिः) श्रेष्ठवचनयुक्ताभिः (मतीनाम्) मेधाविनाम्-निघ०३।१। (सुवृक्तिभिः) म०२। सुष्ठु ग्राह्याभिः क्रियाभिः (सूरिम्) अ०२।११।४। प्रेरकं विद्वांसम् (वावृधध्यै) तुमर्थे सेसेनसे०। पा०३।४।९। वृधु वृद्धौ-कध्यैप्रत्ययः, अन्तर्गतण्यर्थः, कित्वाद् गुणाभावः, द्विर्भावश्छान्दसः। वर्धयितुम्। स्तोतुम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সভাপতিলক্ষণোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অস্মৈ) এই [সংসার] এর হিতের জন্য (ইৎ)(উ) বিচারপূর্বক (ত্যম্) সেই (উপমম্) উপমাযোগ্য, (স্বর্ষাম্) সুখদানকারী, (আঙ্গূষম্) প্রাপ্তিযোগ্য স্তুতিকে (আস্যেন) [নিজের] মুখ দ্বারা (মতীনাম্) বুদ্ধিমানদের মধ্যে (অচ্ছোক্তিভিঃ) শ্রেষ্ঠ বচনযুক্ত (সুবৃক্তিভিঃ) সুন্দর গ্রহণযোগ্য ক্রিয়াসমূহের সাথে (মংহিষ্ঠম্) সেই অত্যন্ত উদার, (সূরিম্) প্রেরক বিদ্বানকে (বাবৃধধ্যৈ) বর্ধিত করার জন্য (ভরামি) আমি ধারণ করি ॥৩॥

    भावार्थ

    যে মনুষ্য নিজের শুভলক্ষণ দ্বারা সকলের মধ্যে শ্রেষ্ঠ গুণী বিদ্বান হয়, তাঁকে আদরপূর্বক সভাপতি বানাবে/করুক/করবে/করা উচিত ॥৩॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (বাবৃধধ্যৈ) সর্বতোন্মুখী বৃদ্ধির জন্য—(মহিষ্ঠম্) পূজনীয়, মহাদানী (সূরিম্) তথা সর্বপ্রেরক পরমেশ্বরের প্রতি—(মতীনাম্) মতিমান্ স্তোতাদের (সুবৃক্তিভিঃ) সর্বদা দোষবর্জিত (অচ্ছোক্তিভিঃ) উত্তম সূক্তিসমূহ দ্বারা (ভরামি) আমি স্তুতি অর্পণ করি। এবং (বাবৃধধ্যৈ) সকলের বৃদ্ধির নিমিত্ত/জন্য, আমি উপাসক, (অস্মৈ ইৎ উ) এই পরমেশ্বরের প্রতি (উপমম্) উপমার যোগ্য, (স্বর্ষাম্) তথা সুখদায়ক, (ত্যম্) সেই প্রসিদ্ধ (আঙ্গূষম্) ঘোষযুক্ত সামগান, (আস্যেন) মুখোচ্চারণ দ্বারা (ভরামি) আমি স্তুতি অর্পণ করি।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top