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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४१
    2

    इ॒च्छनश्व॑स्य॒ यच्छिरः॒ पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितम्। तद्वि॑दच्छर्य॒णाव॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒च्छन् । अश्व॑स्य । यत् । शिर॑: । पर्व॑तेषु । अप॑ऽश्रितम् ॥ तत् । वि॒द॒त् । श॒र्य॒णाऽव॑ति ॥४१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इच्छनश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम्। तद्विदच्छर्यणावति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इच्छन् । अश्वस्य । यत् । शिर: । पर्वतेषु । अपऽश्रितम् ॥ तत् । विदत् । शर्यणाऽवति ॥४१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अश्वस्य) काम में व्यापनेवाले बलवान् पुरुष का (यत्) जो (शिरः) शिर [मस्तक वा विचारसामर्थ्य] (पर्वतेषु) मेघों [के समान उपकारी मनुष्यों] में (अपश्रितम्) आश्रित है, (तत्) उस [विचारसामर्थ्य] को (इच्छन्) चाहते हुए पुरुष ने (शर्यणावति) तीर चलाने के स्थान संग्राम में (विदत्) पाया है ॥२॥

    भावार्थ

    जो पुरुष विद्वानों के समान अपना विचारसामर्थ्य बढ़ाना चाहे, वह परिश्रम के साथ ऐसा प्रयत्न करे, जैसे शूर सेनापति सङ्ग्राम में प्रयत्न करता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(इच्छन्) कामयमानः (अश्वस्य) कर्मसु व्यापकस्य बलवतः पुरुषस्य (यत्) (शिरः) मस्तकसामर्थ्यम्। विचारशक्तिम् (पर्वतेषु) मेघेषु। मेघतुल्यसर्वोपकारिषु मनुष्येषु (अपश्रितम्) आसेवितम् (तत्) मस्तकसामर्थ्यम् (विदत्) अविदत्। प्राप्तवान् (शर्यणावति) मध्वादिभ्यश्च। पा० ४।२।८६। शर्यणा-मतुप्, शरयाणशब्दस्य शर्याण, शर्यणा इति रूपद्वयं पृषोदरादित्वात् शराणां तीराणां यानेन गमनेन युक्ते सङ्ग्रामे ॥

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    विषय

    शर्यणावान् में अश्व के शिर की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (पर्वतेषु) = शरीर में मेरुदण्डरूप मेरुपर्वतों पर (अपश्रितम्) = उल्टा करके रखा हुआ [अर्वाग् बिलश्चमस ऊर्ध्वबुनः] (अश्वस्य यत् शिर:) = [अश्नुते] सब विषयों का व्यापन करनेवाला जो सिर है। (तत्) = उसको (इच्छन्) = चाहता हुआ साधक (शर्यणावति विदत्) = वासनाओं का हिंसन करनेवाले व्यक्ति में (विदत्) = प्राप्त करता है। २. यहाँ 'पर्वत' मेरुदण्ड ही है। वासना-विनाश के द्वारा सब विषयों का ज्ञान करनेवाला मस्तिष्क ही 'अश्व' का मस्तिष्क है। वासनाओं का हिंसन करनेवाला व्यक्ति 'शर्यणावान्' है।

    भावार्थ

    यदि हम चाहते हैं कि शरीर में मेरुदण्ड पर उलटा-सा पड़ा हुआ यह हमारा सिर सब विषयों के ज्ञान का व्यापन करनेवाला बने तो हमें चाहिए कि हम वासनाओं का हिंसन करनेवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (अश्वस्य) अश्व का (यत्) जो (शिरः) सिर, (पर्वतेषु) पर्वतों में (अपश्रितम्) आश्रित है, (तत्) उसे (इच्छन्) चाहते हुए उपासक ने (शर्यणावति) शर्यणावत् [स्रोत] में (विदत्) प्राप्त किया।

    टिप्पणी

    [अश्वस्य—अश्व से अभिप्राय यहाँ “मन” का है। मन शक्तिशाली है, इसलिए मन को “अश्व” कहा है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में मन को अश्व से उपमित किया है। यथा—“प्राणान् प्रपीड्येह स संयुक्तचेष्टः, क्षीणे प्राणे नासिकयोच्छवसीत। दुष्टाश्वयुक्तमिव वाहमेनं विद्वान्मनो धारयेताप्रमत्तः” (श्वेताश्व০ २.९)॥ कई विद्वानों ने श्वेताश्वतर शब्द के “श्वेताश्व” का अर्थ किया है—“सात्विक मन”। शिरः—अश्व अर्थात् मन का सिर है—बुद्धि। शरीर में प्रेरणा मन से मिलती है, और मन में प्रेरणा बुद्धि से मिलती है। इसलिए बुद्धि को मन का सिर कहा है। उपनिषदों में मन को प्रग्रह अर्थात् लगाम, और बुद्धि को सारथि भी कहा है। सारथि के हाथ में जुते-घोड़ों की लगाम होती है। बुद्धि के हाथ मन की लगाम होती है। यथा—बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहवे च” (कठो০ ३.३)। इस अश्व अर्थात् मन का सिर है, बुद्धि। पर्वतेषु—सात्विक बुद्धि पर्वतों में अभ्यास द्वारा प्राप्त होती है। यथा—“उपह्वरे गरीणां सङ्गमे च नदीनाम्। धिया विप्रो अजायत” (यजुः০ २६.१५)। इस मन्त्र में गिरी और धी का परस्पर सम्बन्ध दर्शाया है। इसलिए “अश्व के सिर” अर्थात् बुद्धि का वर्णन “पर्वतेष्वपश्रितम्” इन शब्दों द्वारा किया है। “अपश्रितम्” में “अप” का अर्थ है—“हटकर”, और “श्रितम्” का अर्थ है—“आश्रय पाया हुआ”। यह शब्द शिर अर्थात् बुद्धि का विशेषण है। उपासना-प्रकरण में “सात्त्विक-योगजन्य बुद्धि की अपेक्षा है, रजस्तमोमयी बुद्धि की नहीं। सात्विक-योगजन्य बुद्धि संसार के झंझटों से हटकर पर्वत आदि एकान्तदेशों में उपासना द्वारा प्राप्त होती है। अप+श्रितम्—का यही अभिप्राय है। शर्यणावत्—हृदय शर्यणावत् है। वैदिक साहित्य में “शर्यणावत्” को “सरः” कहा है, अर्थात् बहता हुआ स्रोत। यथा—“शर्यणावच्च वै नाम कुरुक्षेत्रस्य जघनार्द्धे सरः स्यन्दते”। इस कर्मक्षेत्र शरीर में हृदय है—“रक्त का स्रोत”, जिनमें रक्तरूपी जल सदा प्रवाहित हो रहा है। यह “हृदय-सरः” शर्यणावत् है, विशीर्ण हो जानेवाला स्रोत है। हृदय में जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाता है, तब यह शर्यणावत्-स्रोत विशीर्ण हो जाता है, और साथ ही संशय, तर्क-वितर्क, कर्म और कर्माशय भी विशीर्ण हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में कहा है कि— भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे॥ (मुण्डक २.२.८)]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    lndra Devata

    Meaning

    Just as the sun reaches and breaks the densest concentrations of vapours in the clouds fast moving in the regions of the sky, so should the ruler know the best part of his fastest forces stationed on the mountains and of the enemy forces lurking around and in the forests if he desires victory.

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    Translation

    The sun liking Shirah, the top point of Ashva, the electricity which abides hidden in clouds finds in middle region.

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    Translation

    The sun liking Shirah, the top point of Ashva, the electricity which abides hidden in clouds linds in middle region.

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    Translation

    Desirous of striking the head i.e.,the chief part of the swift power,hidden in the mass of molecular adjustments of the elements, this atomic energy approaches it in the very act of fissioning it by the above-noted bombardments.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(इच्छन्) कामयमानः (अश्वस्य) कर्मसु व्यापकस्य बलवतः पुरुषस्य (यत्) (शिरः) मस्तकसामर्थ्यम्। विचारशक्तिम् (पर्वतेषु) मेघेषु। मेघतुल्यसर्वोपकारिषु मनुष्येषु (अपश्रितम्) आसेवितम् (तत्) मस्तकसामर्थ्यम् (विदत्) अविदत्। प्राप्तवान् (शर्यणावति) मध्वादिभ्यश्च। पा० ४।२।८६। शर्यणा-मतुप्, शरयाणशब्दस्य शर्याण, शर्यणा इति रूपद्वयं पृषोदरादित्वात् शराणां तीराणां यानेन गमनेन युक्ते सङ्ग्रामे ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকৃত্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অশ্বস্য) কর্মে ব্যাপ্ত বলবান পুরুষের (যৎ) যে (শিরঃ) শির [মস্তক বা বিচারসামর্থ্য] (পর্বতেষু) মেঘসমূহের [ন্যায় উপকারী মনুষ্যের] মধ্যে (অপশ্রিতম্) আশ্রিত, (তৎ) সেই [বিচারসামর্থ্য] (ইচ্ছন্) আকাঙ্ক্ষী পুরুষ (শর্যণাবতি) তির নিক্ষেপের স্থান সংগ্রামে (বিদৎ) পেয়েছেন ॥২॥

    भावार्थ

    যে পুরুষ বিদ্বানদের ন্যায় নিজ বিচার সামর্থ্য বৃদ্ধি করতে চান, তিনি পরিশ্রমপূর্বক এমন প্রচেষ্টা করেন, যেমন বীর সেনাপতি সংগ্রামে প্রচেষ্টা করেন॥২॥

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    भाषार्थ

    (অশ্বস্য) অশ্বের (যৎ) যে (শিরঃ) শির, (পর্বতেষু) পর্বত-সমূহে (অপশ্রিতম্) আশ্রিত, (তৎ) তা (ইচ্ছন্) কামনা করে উপাসক (শর্যণাবতি) শর্যণাবৎ [স্রোত] এ (বিদৎ) প্রাপ্ত করেছে।

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