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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४१
    2

    अत्राह॒ गोर॑मन्वत॒ नाम॒ त्वष्टु॑रपी॒च्यम्। इ॒त्था च॒न्द्रम॑सो गृ॒हे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑ । अह॑ । गो: । अ॒म॒न्व॒त॒ । नाम॑ । त्वष्टु॑: । अ॒पी॒च्य॑म् ॥ इ॒त्था । च॒न्द्रम॑स: । गृ॒हे ॥४१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम्। इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र । अह । गो: । अमन्वत । नाम । त्वष्टु: । अपीच्यम् ॥ इत्था । चन्द्रमस: । गृहे ॥४१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 41; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    राजा के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अत्र) यहाँ [राज्यव्यवहार में] (अह) निश्चय करके (गोः) पृथिवी के, (इत्था) इसी प्रकार (चन्द्रमसः) चन्द्रमा के (गृहे) घर [लोक] में (त्वष्टुः) छेदन करनेवाले सूर्य के (अपीच्यम्) भीतर रक्खे हुए (नाम) झुकाव [आकर्षण] को (अमन्वत) उन्होंने जाना है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे ईश्वर के नियम से सूर्य अपने प्रकाश और आकर्षण द्वारा पृथिवी और चन्द्र आदि लोकों को उनके मार्ग में दृढ़ रखता है, वैसे ही राजा अपनी सुनीति से प्रजा को धर्म में लगावे ॥३॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र निरुक्त ४।२। में भी व्याख्यात है ॥ ३−(अत्र) राज्यव्यवहारे (अह) निश्चयेन (गोः) पृथिव्याः (अमन्वत) मनु अवबोधने-लङ्। अजानन् ते विद्वांसः (नाम) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।११। नमतेः-मनिन् धातोर्मलोपो दीर्घश्च, नाम उदकनाम-निघ० १।१२। नमनम्। आकर्षणम् (त्वष्टुः) छेदकस्य सूर्यस्य (अपीच्यम्) आ० १८।१।३६। अपि+अञ्चतेः-क्विन्, यत्। अन्तर्हितम्-निघ० ३।२। (इत्था) अनेन प्रकारेण (चन्द्रमसः) चन्द्ररूपे (गृहे) लोके ॥

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    विषय

    चन्द्रमा के घर में

    पदार्थ

    १. (अत्र अह) = यहाँ ही, गतमन्त्र के अनुसार अश्व के सिर में ही-सब विषयों का व्यापन करनेवाले मस्तिष्क में (गोः अमन्व्त) = ज्ञान की वाणियों का-वेदधेनु का मनन करते हैं। इसी मस्तिष्क में वेद का तत्व स्पष्ट होता है। यहाँ ही (त्वष्टः) = उस निर्माता के (अपीच्यम्) = सर्वत्र अन्तर्हित नाम तेज व यश को भी जान पाते हैं। ये गतमन्त्र के शर्यणावान् पुरुष ही सूर्य आदि सब पिण्डों को प्रभु की दीप्ति से दीत होता हुआ देखते हैं। २. (इत्था) = इसप्रकार वेदज्ञान को व प्रभु के यश को मनन करते हुए ये व्यक्ति (चन्द्रमसः गृहे) = आहादमय प्रभु के गृह में निवास करते हैं [चदि आहादे]।

    भावार्थ

    वासनाशून्य पुरुष के दीप्त मस्तिष्क में ही वेदज्ञान व प्रभु के यश का मनन होता है। यह पुरुष ऐसा करता हुआ आनन्दमय प्रभु में ही निवास करता है। प्रभु के यश का मनन करनेवाला यह व्यक्ति प्रभु-स्तवनपूर्वक क्रियामय जीवनवाला होता है, अतः यह 'कुरुसुति' कहलाता है। यह इन्द्र का स्तवन करता है -

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    भाषार्थ

    योगिजनों ने (अत्र अह) इस ही (चन्द्रमसः गृहे) चन्द्रमा के घर में, (गोः) गौओं का (नाम) नत होना (अमन्वत) माना है, और (त्वष्टुः) त्वष्टा का (अपीच्यम्) अन्तर्हित होना भी माना है, (इत्त्था) यह सत्य है, यथार्थ है।

    टिप्पणी

    [चन्द्रमसो गृहे—यजुर्वेद में मन को चन्द्रमा से रूपित किया है। यथा—“चन्द्रमा मनसो जातः” (३१.१२), अर्थात् चन्द्रमा मन से प्रसिद्ध है। इस मन का घर है हृदय। यथा—“हृदये चित्तसंवित्” (योग ३.३४), अर्थात् हृदय में चित्त का संवेदन अर्थात् ज्ञान होता है। गोः अमन्वत—योगिजन, इस हृदय-गृह में, गौओं अर्थात् इन्द्रियों का “नमन” अर्थात् प्रवेश करने का उपदेश देते हैं, और इसी घर में मानसिक ध्यान का भी निर्देश करते हैं। यथा—“हृदीन्द्रियाणि मनसा संनिवेश्य। ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत विद्वान् स्रोतांसि सर्वाणि भयावहानि” (श्वेता০ उप০ २.८)। अर्थात् हृदय में “मनः समेत इन्द्रियों” का प्रवेश करके, ब्रह्मध्यानरूपी नौका द्वारा, इन्द्रियरूपी स्रोतों को तर जाए। त्वष्टुः अपीच्यम्—इसी हृदय में जगत् के रूपों और आकृतियों का कारीगर परमेश्वर अन्तर्हित है, छिपा हुआ है। इस प्रकार मन और इन्द्रियों को हृदय में स्थित करके, हृदय में छिपे परमेश्वर को, ओम् के जाप द्वारा साक्षात्कार करने का उपदेश मन्त्र में किया गया है। गौः=इन्द्रियाँ (उणादि कोष २.६७), वैदिक पुस्तकालय, अजमेर। यथा—गच्छति यो यत्र यया वा सा गौः=पशुः, इन्द्रियम्, सुखम्, किरणः, वज्रम्, चन्द्रमा, भूमिः, वाणी, जलं वा”। इत्त्था—सत्यम् (निघं০ ३.१०)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    lndra Devata

    Meaning

    Just as here on the surface of the earth and in its environment, we know, there is the beautiful light of the sun penetrating and reaching everywhere, similarly, let all know, it is there on the surface of the moon. (Just as the sun holds and illuminates the earth and the moon, so should the ruler with his light of justice and power hold and brighten every home in the land.)

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    Translation

    Thus the learned ones recognise the essential form of the rays of sun in the mansion of moon (The sunrays known as sushumna shines in the moon).

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    Translation

    Thus the learned ones recognize the essential form of the rays of sun in the mansion of moon (The sunrays known as sushumna shines in the moon).

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    Translation

    Herein verily the scientist knows the similar hidden striking force of the rays of the Sun working in the orbit of the moon.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र निरुक्त ४।२। में भी व्याख्यात है ॥ ३−(अत्र) राज्यव्यवहारे (अह) निश्चयेन (गोः) पृथिव्याः (अमन्वत) मनु अवबोधने-लङ्। अजानन् ते विद्वांसः (नाम) नामन्सीमन्व्योमन्०। उ० ४।११। नमतेः-मनिन् धातोर्मलोपो दीर्घश्च, नाम उदकनाम-निघ० १।१२। नमनम्। आकर्षणम् (त्वष्टुः) छेदकस्य सूर्यस्य (अपीच्यम्) आ० १८।१।३६। अपि+अञ्चतेः-क्विन्, यत्। अन्तर्हितम्-निघ० ३।२। (इत्था) अनेन प्रकारेण (चन्द्रमसः) चन्द्ररूपे (गृहे) लोके ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    রাজকৃত্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (অত্র) এখানে [রাজ্য ব্যবহারে] (অহ) নিশ্চিতরূপে (গোঃ) পৃথিবীর, (ইত্থা) এরূপ (চন্দ্রমসঃ) চন্দ্রের (গৃহে) গৃহে [লোক-এ] (ত্বষ্টুঃ) ছেদনকারী সূর্যের (অপীচ্যম্) অন্তর্নিহিত (নাম) নমন [আকর্ষণকে] (অমন্বত) তিনি জ্ঞাত হয়েছেন ॥৩॥

    भावार्थ

    যেভাবে ঈশ্বরের নিয়মে সূর্য নিজের আলো ও আকর্ষণ দ্বারা পৃথিবী এভং চন্দ্র আদি লোকসমূহকে নিজ নিজ কক্ষপথে দৃঢ় রাখেন, তেমনই রাজা নিজের সুনীতি দ্বারা প্রজাকে ধর্মে নিয়োজিত করবে/করুক॥৩॥ এই মন্ত্র নিরুক্ত ৪।২ এ আছে।

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    भाषार्थ

    যোগীগণ (অত্র অহ) এই (চন্দ্রমসঃ গৃহে) চন্দ্রের গৃহে, (গোঃ) গৌ-এর (নাম) নত হওয়া (অমন্বত) স্বীকার করেছেন, এবং (ত্বষ্টুঃ) ত্বষ্টা-এর (অপীচ্যম্) অন্তর্হিত হওয়াও স্বীকার করেছেন, (ইত্ত্থা) ইহা সত্য, যথার্থ।

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