अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 66/ मन्त्र 3
वेत्था॒ हि निरृ॑तीनां॒ वज्र॑हस्त परि॒वृज॑म्। अह॑रहः शु॒न्ध्युः प॑रि॒पदा॑मिव ॥
स्वर सहित पद पाठवेत्थ॑ । हि । नि:ऽऋ॑तीनाम् । वज्र॑ऽहस्त । प॒रि॒ऽवृज॑म् ॥ अह॑:ऽअह: । शु॒न्ध्यु: । प॒रि॒पदा॑म्ऽइव ॥६६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वेत्था हि निरृतीनां वज्रहस्त परिवृजम्। अहरहः शुन्ध्युः परिपदामिव ॥
स्वर रहित पद पाठवेत्थ । हि । नि:ऽऋतीनाम् । वज्रऽहस्त । परिऽवृजम् ॥ अह:ऽअह: । शुन्ध्यु: । परिपदाम्ऽइव ॥६६.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ऐश्वर्यवान् पुरुष के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(वज्रहस्त) हे वज्र हाथ में रखनेवाले ! (हि) निश्चय करके (परिपदाम्) विपत्तियों के (शुन्ध्युः इव) शोधनेवाले के समान (अहरहः) दिन-दिन (निर्ऋतीनाम्) महाविपत्तियों के (परिवृजम्) रोकने को (वेत्थ) तू जानता है ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य शूर पराक्रमियों के समान विघ्नों को हटाकर प्रजा की रक्षा करे, उसका सब लोग आदर करें ॥३॥
टिप्पणी
इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥ ३−(वेत्था) सांहितिको दीर्घः। वेत्सि। जानासि (हि) एव (निर्ऋतीनाम्) अ० २।१०।१। कृच्छ्रापत्तीनाम् निरु० २।७। (वज्रहस्त) हे वज्रपाणे (परिवृजम्) वृजी वर्जने-घञर्थे क। परिवर्जनम्। निवारणम् (अहरहः) प्रतिदिनम् (शुन्ध्युः) अ० २०।१७।१। शोधकः (परिपदाम्) विपदाम्। विपत्तीनाम् (इव) यथा ॥
विषय
निर्ऋति परिवर्जन
पदार्थ
१. हे (वज्रहस्त) = व्रज को हाथ में लिये हुए प्रभो! आप (हि) = निश्चय से (नि्र्ऋतीनाम्) = उपद्रवकारी राक्षसीभावों के (परिवृजम्) = परिवर्जन को-हमसे पृथक् करने को (वेत्थ) = जानते हैं। आपका स्मरण व स्तवन होते ही हमारे हृदयों को राक्षसीभाव छोड़कर चले जाते हैं। २. आप राक्षसीभावों के परिवर्जन को इसी प्रकार जानते हैं, इव-जिस प्रकार (शन्यः) = सब अन्धकार का शोधन कर देनेवाला सूर्य (आहरहः) = प्रतिदिन (परिपदाम्) = आहार के लिए चारों ओर गतिवाले पशु-पक्षियों के स्वस्थान परिवर्जन को जानता है। सूर्योदय होते ही सब पक्षी घोंसलों को छोड़कर इधर-उधर निकल जाते हैं। इसी प्रकार प्रभु-स्मरण होते ही राक्षसीभाव हृदयों को छोड़ जाते हैं।
भावार्थ
प्रभु-स्मरण राक्षसीभावों को दूर भगा देता है। इनको दूर रखने के लिए दिन रात प्रभु-स्मरण आवश्यक है। सूर्यास्त होने पर पक्षी जैसे घोंसलों में लौट आते हैं, इसी प्रकार प्रभु-विस्मरण होते ही राक्षसीभावों के लौट आने की आशङ्का होती है। निर्ऋति परिवर्जन करता हुआ यह व्यक्ति 'परुत्' बनता है-पालन व पूरण करनेवाला। इसप्रकार जीवन का सुन्दर निर्माण करनेवाला यह 'शेप' कहलाता है। यह 'परुच्छेप' अगले सूक्त के प्रथम तीन मन्त्रों का ऋषि है। चार से सात तक ऋषि 'गृत्समद' है [गृणाति माद्यति] = प्रभु-स्तवन करता है व आनन्द में रहता है -
भाषार्थ
(वज्रहस्त) वज्रसमानघातक-निजशक्तियों द्वारा पाप-वृत्रों का हनन करनेवाले हे परमेश्वर! आप (हि) ही (निर्ऋतीनाम्) शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक कष्टों का (परिवृजम्) पूर्णतया-वर्जन (वेत्त्थ) जानते हैं, (इव) जैसे कि (शुन्ध्युः) शुद्धि करनेवाले सूर्य, (अहरहः) प्रतिदिन, (परिपदाम्) सब ओर से आक्रमण करनेवाले रोग कीटाणुओं का (परिवृजम्) पूर्णतया-वर्जन अर्थात् परिहार करता है।
टिप्पणी
[शुन्ध्युः आदित्यः, शोधनात् (निरु০ ४.२.१४)। परिपदाम्=“उद्यन्नादित्यः क्रिमीन् हन्तु निम्रोचन् हन्तु रश्मिभिः” (अथर्व০ २.३२.१)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
O lord of the thunderbolt of justice and right action, you know and wield the counter-active measures against adversities just as the sun, purifier of nature’s impurities, has the capacity to counter them day by day.
Translation
O Almighty God, you hold thunder-bolt in your moving cloud (Hasta), you like him -who avoids the destructive forces, secure from the calamities every day.
Translation
O Almighty God, you hold thunder-bolt in your moving cloud (Hasta), you like him who avoids the destructive forces, secure from the calamities everyday.
Translation
O self-possessed devotee, armed with full energy of warding off evil propensities, thou truly knowest the means of keeping off wicked tendencies and art the daily effacer of all troubles and difficulties, (in thy path of spiritual progress).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥ ३−(वेत्था) सांहितिको दीर्घः। वेत्सि। जानासि (हि) एव (निर्ऋतीनाम्) अ० २।१०।१। कृच्छ्रापत्तीनाम् निरु० २।७। (वज्रहस्त) हे वज्रपाणे (परिवृजम्) वृजी वर्जने-घञर्थे क। परिवर्जनम्। निवारणम् (अहरहः) प्रतिदिनम् (शुन्ध्युः) अ० २०।१७।१। शोधकः (परिपदाम्) विपदाम्। विपत्तीनाम् (इव) यथा ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
ঐশ্বর্যবতঃ পুরুষস্য লক্ষণোপদেশঃ
भाषार्थ
(বজ্রহস্ত) হে বজ্রপাণি! (হি) নিশ্চয় পূর্বক (পরিপদাম্) বিপত্তি সমূহের (শুন্ধ্যুঃ ইব) শোধকের ন্যায় (অহরহঃ) প্রতিদিনের (নির্ঋতীনাম্) মহাবিপত্তি (পরিবৃজম্) নিবারণ করতে (বেত্থ) তুমি জানো ॥৩॥
भावार्थ
যে মনুষ্য বীর পরাক্রমীর ন্যায় বিঘ্ন সমূহ দূর করে প্রজাদের রক্ষা করে, সমস্ত লোক/প্রজা তাঁর আদর-সম্মান করে॥৩॥ইতি পঞ্চমোঽনুবাকঃ ॥
भाषार्थ
(বজ্রহস্ত) বজ্রসমানঘাতক-নিজশক্তি দ্বারা পাপ-বৃত্রের হননকারী হে পরমেশ্বর! আপনি (হি) ই (নির্ঋতীনাম্) শারীরিক-মানসিক-আধ্যাত্মিক কষ্ট-সমূহের (পরিবৃজম্) পূর্ণরূপে-বর্জন (বেত্ত্থ) জানেন, (ইব) যেমন (শুন্ধ্যুঃ) শুদ্ধকারী সূর্য, (অহরহঃ) প্রতিদিন, (পরিপদাম্) সবদিক থেকে আক্রমণকারী রোগ জীবাণুর (পরিবৃজম্) পূর্ণরূপে-বর্জন অর্থাৎ পরিহার করেন।
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