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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - एकाष्टका छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
    1

    वा॑नस्प॒त्या ग्रावा॑णो॒ घोष॑मक्रत ह॒विष्कृ॒ण्वन्तः॑ परिवत्स॒रीण॑म्। एका॑ष्टके सुप्र॒जसः॑ सु॒वीरा॑ व॒यं स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒न॒स्प॒त्या: । ग्रावा॑ण: । घोष॑म् । अ॒क्र॒त॒ । ह॒वि: । कृ॒ण्वन्त॑: । प॒रि॒ऽव॒त्स॒रीण॑म् । एक॑ऽअष्टके । सु॒ऽप्र॒जस॑: । सु॒ऽवीरा॑: । व॒यम् । स्या॒म॒ । पत॑य: । र॒यी॒णाम् ॥१०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वानस्पत्या ग्रावाणो घोषमक्रत हविष्कृण्वन्तः परिवत्सरीणम्। एकाष्टके सुप्रजसः सुवीरा वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वानस्पत्या: । ग्रावाण: । घोषम् । अक्रत । हवि: । कृण्वन्त: । परिऽवत्सरीणम् । एकऽअष्टके । सुऽप्रजस: । सुऽवीरा: । वयम् । स्याम । पतय: । रयीणाम् ॥१०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुष्टि बढ़ाने के लिये प्रकृति का वर्णन।

    पदार्थ

    (वानस्पत्याः) वनस्पति अर्थात् सेवकों वा सेवनीय गुणों के रक्षक परमेश्वर से सम्बन्धवाले (ग्रावाणः) सूक्ष्मदर्शी, स्तोता पुरुषों ने, (परिवत्सरीणम्) परिवत्सर, सब प्रकार निवास देनेवाले परमेश्वर से सिद्ध किये हुए (हविः) ग्राह्य वस्तु को (कृण्वन्तः) उत्पन्न करते हुए, (घोषम्) ध्वनि (अक्रत) की है। “(एकाष्टके) हे अकेली व्याप्तिवाली वा अकेली भोजन स्थानशक्ति [प्रकृति] ! (वयम्) हम लोग (सुप्रजसः) उत्तम सन्तानवाले, (सुवीराः) उत्तम वीरोंवाले और (रयीणाम्) सब प्रकार के धनों के (पतयः) पति (स्याम्) होवें” ॥५॥

    भावार्थ

    ऋषि-मुनि प्रकृति द्वारा परमेश्वररचित पदार्थों के गुणों के ज्ञान और प्रयोग से सब प्रकार का सुख भोगते हैं। इसी प्रकार सब मनुष्य उद्योग करके आनन्द भोगें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(वानस्पत्याः)। अ० ३।६।६। वनानां पतेः सेवकानां सेव्यगुणानां वा पालकस्य परमेश्वरस्य संबन्धिनः पुरुषाः। (ग्रावाणः)। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति हन गतिहिंसनयोः, वा, ग्रह ग्रहणे, वा, गॄ विज्ञाने, शब्दे, निगरणे क्वनिप्। पृषोदरादित्वात् साधुः। गृणातिः स्तुतिकर्मा। निरु० ३।५। ग्रावाणो हन्तेर्वा गृणातेर्वा गृह्णातेर्वा-निरु० ९।८। तथा च। गारयते सूक्ष्मार्थं सुधीः। शास्त्रविज्ञापकाः स्तोतारः। पण्डिताः। (घोषम्)। ध्वनिम्। (अक्रत)। कृञो लुङि। अकृषत। कृतवन्तः। (हविः)। अ० १।४।३। ग्राह्यवस्तु। (कृण्वन्तः)। उत्पादयन्तः। आविष्कुर्वाणाः। (परिवत्सरीणम्)। वसेश्च। उ० ३।७१। इति परि+वस निवासे-सरन्। इति परिवत्सरः परिते। निवासकः। परमेश्वरः। संपरिपूर्वात् ख च। पा० ५।१।९२। इति निर्वृत्तार्थे ख। संवत्सरेण निर्वृत्तं साधितं रचितम्। (एकाष्टके)। इष्यशिभ्यां तकन्। उ० ३।१४८। इति अशू व्याप्तौ, यद्वा, अश भोजने-तकन्। टाप्। अष्टका पितृदेवत्ये। वा० पा० ७।३।४५। इति इत्वाभावः। अश्नुते व्याप्नोति सर्वं जगत् सा, यद्वा, अश्नन्ति सर्वे प्राणिनो यस्यां सा अष्टका। एका चासावष्टका एकाष्टका। हे एकमात्रव्यापनशीले। एकमात्रभोजनस्थाने प्रकृते। (सुप्रजसः)। नित्यमसिच् प्रजामेधयोः। पा० ५।४।१२२। इति असिच् समासान्तः। शोभनपुत्रपौत्रादियुक्ताः। (सुवीराः)। अ० ३।५।८। महाशूरयुक्ताः। (वयम्)। मनुष्याः। (स्याम)। भवेम। (पतयः)। स्वामिनः। (रयीणाम्)। धनानाम् ॥

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    विषय

    सुप्रजसः, सुवीराः, रयीणां पतयः

    पदार्थ

    १. (वानस्पत्या:) = शरीर-रक्षण के लिए वनस्पति पदार्थों का ही प्रयोग करनेवाले (ग्रावाणः) = स्तोता लोग (घोषम् अक्रत) = स्तुतिशब्दों का उच्चारण करते हैं। ये (परिवत्सरीणम्) = वर्षभर व्यवहत होनेवाली (हविः) = हवि को (कृण्वन्तः) = सम्पादित करते हैं-वर्षभर प्रतिदिन यज्ञ करते हैं। २. हे (एकाष्टके) = मुख्य अष्टक-दिन के प्रथम अष्टक में आनेवाली उषे! स्तुति व यज्ञों को करते हुए (वयम्) = हम (सुप्रजस:) उत्तम प्रजावाले, (सुवीरा:) = उत्तम वीर तथा (रयीणां पतयः) = धनों के स्वामी स्याम हों।

    भावार्थ

    वर्षभर प्रतिदिन स्तुति व यज्ञ करते हुए हम उत्तम प्रजाबाले, वीर व धनों के स्वामी हों।

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    भाषार्थ

    (परिवत्सरीणम्) संवत्सर भर पैदा किये जानेवाले (हविः कृण्वन्त) खाद्यान्न के उत्पादक, तथा (वानस्पत्याः) वनों के अधिपतियों अर्थात् महाकाय वृक्षों के उत्पादक (ग्रावाण:) मेघों ने (घोषम्) गर्जना (अक्रत) की है। (एकाष्टके) हे माघकृष्णाष्टमी! (सुप्रजसः) उत्तम संतानोंवाले तथा (सुवीराः) उत्तम वीर (वयम्) हम, (रयीणाम्) सम्पत्तियों के (पतय: स्याम) स्वामी हों।

    टिप्पणी

    [हविः=हु दानाक्षनयोः (जुहोत्यादिः), अदन अर्थ अभिप्रेत है, अर्थात अदनीय अन्न। ग्रवाण:= ग्रावा मेघनाम (निघं० १।१०)। मेघ की वर्षा द्वारा वनस्पतियां तथा अदनीय अन्न पैदा होते हैं। माघकृष्णाष्टमी से इसकी पत्नी और पति संवत्सर का प्रारम्भ होता है [मन्त्र २, ८]। एकाष्टका=माघकृष्णाष्टमी (मन्त्र १२, सायण)।]

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    विषय

    अष्टका रूप से नववधू के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    गृहपत्नी को गृह के कार्यों का उपदेश करते हैं—(वानस्पत्याः) वनस्पति या काठ के बने हुए (ग्रावाणः) कूटने के साधन ऊखल मूसल, (हविः) यज्ञ के योग्य सामग्री धान्य आदि को (कृण्वन्तः) तैयार करते हुए (परिवत्सरीणम्) वर्ष भर (घोषम्) उत्तम शब्द (अक्रत) करते रहें । हे (एकाष्टके) एकमात्र गृह की आठों प्रहर सुध लेने हारी गृहिणी ! तेरे कारण हम (सुवीराः) उत्तम बलसम्पन्न, वीर्यवान् पुत्रों से युक्त (सुप्रजसः) और उत्तम सन्तानों से युक्त (रयीणां) और पशु एवं धन समृद्धियों के (पतयः) स्वामी (स्थान) हों । अथवा (वानस्पत्याः) किरणों के स्वामी सूर्य के व्रत पालक तेजस्वी (ग्रावाणः) उपदेष्टा जन ज्ञानोपदेश करते हुए वर्ष भर (घोषम् अक्रत) वेदोपदेश करें ।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘एकाष्टकायै हविषा विधेम’ इति पैप्प० सं०। ‘सुप्रजासः’ इति क्वचित्पाठः। (प्र०) ‘उलूखलायावा’ (द्वि०) ‘वत्सरीणाम्’ (तृ०) ‘सुप्रजा वीरवन्तः’ इति हि० गृ० सू० । (प्र०) ‘औलूखलाः सम्प्रवदन्ति ग्रावाणः’ (च०) न्योग जीवेम वलिहतो ‘वयं ते’ इति मै० ब्रा०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kalayajna for Growth and Prosperity

    Meaning

    Gravanas, dedicated soma makers who grind and distil the herbal essences, meditative missionaries of the vision of existence who penetrate into the depths of nature have raised their voice of joyous success, having created the holy yajnic materials for the new year’s homage to the Divine from the beauties and riches of the world of existence. O Ekashtake, sole mistress of divinity, pray bless us with noble progeny and brave heroes. May we be masters of versatile wealth, honour and excellence in the new age.

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    Translation

    Wooden grinders have started making noise while preparing the oblation meant for the completion of the year. O Ekāstaka, may we, having good progeny and good soldiers, become masters of riches.

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    Translation

    This is that same night which dawns as first and moves by cycle in others. There are contained in it the great glories like a newly married bride bearing children conquers her husband.

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    Translation

    May the wooden mortar and pestle ring and rattle, preparing oblation for the annual yajna (sacrifice) O bride, the constant guardian, of the house, may we be lords of riches, with goodly children and heroic men around us.

    Footnote

    In a family provision for oblations in a yajna should always be ground with mortar and pestle. The verse directs the newly married girl to perform Haven daily. Pt. Jaidev Vidyalankar puts an other interpretation on the first half of the verse. 'May noble, learned preachers austere in the performance of their duty, like the Sun, the lord of rays, preach the Vedas throughout the year.'

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(वानस्पत्याः)। अ० ३।६।६। वनानां पतेः सेवकानां सेव्यगुणानां वा पालकस्य परमेश्वरस्य संबन्धिनः पुरुषाः। (ग्रावाणः)। अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति हन गतिहिंसनयोः, वा, ग्रह ग्रहणे, वा, गॄ विज्ञाने, शब्दे, निगरणे क्वनिप्। पृषोदरादित्वात् साधुः। गृणातिः स्तुतिकर्मा। निरु० ३।५। ग्रावाणो हन्तेर्वा गृणातेर्वा गृह्णातेर्वा-निरु० ९।८। तथा च। गारयते सूक्ष्मार्थं सुधीः। शास्त्रविज्ञापकाः स्तोतारः। पण्डिताः। (घोषम्)। ध्वनिम्। (अक्रत)। कृञो लुङि। अकृषत। कृतवन्तः। (हविः)। अ० १।४।३। ग्राह्यवस्तु। (कृण्वन्तः)। उत्पादयन्तः। आविष्कुर्वाणाः। (परिवत्सरीणम्)। वसेश्च। उ० ३।७१। इति परि+वस निवासे-सरन्। इति परिवत्सरः परिते। निवासकः। परमेश्वरः। संपरिपूर्वात् ख च। पा० ५।१।९२। इति निर्वृत्तार्थे ख। संवत्सरेण निर्वृत्तं साधितं रचितम्। (एकाष्टके)। इष्यशिभ्यां तकन्। उ० ३।१४८। इति अशू व्याप्तौ, यद्वा, अश भोजने-तकन्। टाप्। अष्टका पितृदेवत्ये। वा० पा० ७।३।४५। इति इत्वाभावः। अश्नुते व्याप्नोति सर्वं जगत् सा, यद्वा, अश्नन्ति सर्वे प्राणिनो यस्यां सा अष्टका। एका चासावष्टका एकाष्टका। हे एकमात्रव्यापनशीले। एकमात्रभोजनस्थाने प्रकृते। (सुप्रजसः)। नित्यमसिच् प्रजामेधयोः। पा० ५।४।१२२। इति असिच् समासान्तः। शोभनपुत्रपौत्रादियुक्ताः। (सुवीराः)। अ० ३।५।८। महाशूरयुक्ताः। (वयम्)। मनुष्याः। (स्याम)। भवेम। (पतयः)। स्वामिनः। (रयीणाम्)। धनानाम् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (পরিবৎসরীণম্) সম্পূর্ণ সংবৎসর ধরে উৎপাদন করা (হবিঃ কৃণ্বন্তঃ) খাদ্যান্নের উৎপাদক, এবং (বানস্পত্যাঃ) বন জঙ্গলের অধিপতিগণ অর্থাৎ মহাকায় বৃক্ষ-সমূহের উৎপাদক (গ্রাবাণঃ) মেঘেরা (ঘোষম্) গর্জন (অক্রত) করেছে। (একাষ্টকে) হে মাঘকৃষ্ণাষ্টমী ! (সুপ্রজসঃ) উত্তম সন্তানসম্পন্ন, এবং (সুবীরাঃ) উত্তম বীর (বয়ম্) আমরা, (রয়ীণাম্) সম্পত্তি আদির (পতয়ঃ স্যাম) স্বামী হই।

    टिप्पणी

    [হবিঃ= হু দানাদনয়োঃ (জুহোত্যাদিঃ), অদন অর্থ অভিপ্রেত হয়েছে, অর্থাৎ অদনীয়/ভক্ষণীয়/গ্রহণযোগ্য অন্ন। গ্রাবাণঃ= গ্রাবা মেঘনাম (নিঘং০ ১।১০)। মেঘের বর্ষা দ্বারা বনস্পতি এবং অদনীয় অন্ন উৎপন্ন হয়। মাঘকৃষ্ণাষ্টমী থেকে এর পত্নী ও পতি সংবৎসরের প্রারম্ভ হয় [মন্ত্র ২, ৮] । একাষ্টকা= মাঘ কৃষ্ণ অষ্টমী (মন্ত্র ১২, সায়ণ)।]

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    मन्त्र विषय

    পুষ্টিবর্ধনায় প্রকৃতিবর্ণনম্

    भाषार्थ

    (বানস্পত্যাঃ) বনস্পতি অর্থাৎ সেবক বা সেবনীয় গুণ-সমূহের রক্ষক পরমেশ্বরের সাথে সম্বন্ধিত (গ্রাবাণঃ) সূক্ষ্মদর্শী, স্তোতা পুরুষ, (পরিবৎসরীণম্) পরিবৎসর, সকল প্রকার নিবাস প্রদানকারী পরমেশ্বর দ্বারা সিদ্ধকৃত (হবিঃ) গ্রাহ্য বস্তু (কৃণ্বন্তঃ) উৎপন্ন করে, (ঘোষম্) ধ্বনি (অক্রত) করেছে। “(একাষ্টকে) হে একাকী ব্যাপ্তিসম্পন্ন বা একাকী ভোজন স্থানশক্তি [প্রকৃতি] ! (বয়ম্) আমরা যেন (সুপ্রজসঃ) উত্তম সন্তানসম্পন্ন, (সুবীরাঃ) উত্তম বীরসম্পন্ন এবং (রয়ীণাম্) সকল প্রকারের ধন-সম্পদের (পতয়ঃ) পতি (স্যাম্) হই” ॥৫॥

    भावार्थ

    ঋষি-মুনি প্রকৃতি দ্বারা পরমেশ্বর রচিত পদার্থসমূহের গুণের জ্ঞান এবং প্রয়োগের মাধ্যমে সমস্ত প্রকারের সুখ ভোগ করে। এইভাবে সমস্ত মনুষ্য উদ্যোগ করে আনন্দ ভোগ করুক ॥৫॥

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