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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अथर्वा देवता - ऋतवः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त
    1

    ऋ॒तून्य॑ज ऋतु॒पती॑नार्त॒वानु॒त हा॑य॒नान्। समाः॑ संवत्स॒रान्मासा॑न्भू॒तस्य॒ पत॑ये यजे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तून् । य॒जे॒ । ऋ॒तु॒ऽपती॑न् । आ॒र्त॒वान् । उ॒त । हा॒य॒नान् । समा॑: । स॒म्ऽव॒त्स॒रान् । मासा॑न् । भू॒तस्‍य॑ । पत॑ये । य॒जे॒ ॥१०.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतून्यज ऋतुपतीनार्तवानुत हायनान्। समाः संवत्सरान्मासान्भूतस्य पतये यजे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतून् । यजे । ऋतुऽपतीन् । आर्तवान् । उत । हायनान् । समा: । सम्ऽवत्सरान् । मासान् । भूतस्‍य । पतये । यजे ॥१०.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पुष्टि बढ़ाने के लिये प्रकृति का वर्णन।

    पदार्थ

    (ऋतून्) ऋतुओं, (ऋतुपतीन्) ऋतुओं के स्वामियों [सूर्य, वायु आदिकों], (आर्तवान्) ऋतुओं में उत्पन्न होनेवाले (हायनान्) पाने योग्य चावल आदि पदार्थों से (संवत्सरान्) यथाविधि निवास देनेवाले (मासान्) कर्मों के नापनेवाले महीनों (उत) और (समाः) सब अनुकूल क्रियाओं को (भूतस्य) सत्ता में आये हुए जगत् के (पतये) पति के (यजे यजे) मैं बार-बार अर्पण करता हूँ ॥९॥

    भावार्थ

    तत्त्वज्ञानी पुरुष ग्रीष्म, वर्षा, शीतादि ऋतुओं और उनके कारण सूर्य, चन्द्र, वायु, पृथिवी आदि एवं संसार के अन्य पदार्थों तथा क्रियाओं का आदि कारण जगत् पिता परमेश्वर को मानते और उसका धन्यवाद करते हैं ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(ऋतून्)। अर्त्तेश्च तुः। उ० १।७२। इति ऋ गतौ-तु, स च कित् वसन्तादिकालाम्। (यजे)। यज देपपूजादानसङ्गतिकरणेषु। अहं समर्पयामि। (ऋतुपतीन्)। ऋतूनाम् अधिष्ठातॄन्, सूर्यचन्द्रवायुपृथिव्यादीन् देवान्। (आर्तवान्)। ऋतोरण्। पा० ५।१।१०५। इति ऋतु-अण्, तदस्य प्राप्तमित्यर्थे। ऋतूद्भवान्। ऋतुजातान्। (उत)। अपि च। (हायनान्)। हश्च व्रीहिकालयोः। पा० ३।१।१४८। इति ओहाक् त्यागे, ओहाङ् गतौ च-ण्युट्। आतो चुक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। दातव्यान् प्राप्तव्यान् व्रीह्यादीन् भोज्यपदार्थान्। (समाः)। अ० २।६।१। अनुकूलाः क्रियाः। (संवत्सरान्)। म० २। सम्यग् वासयितॄन्। द्वादशमासात्मकान् कालान्। (मासान्)। मस परिमाणे-घञ्। शुक्लकृष्णपक्षद्वयात्मकान् कालान्। (भूतस्य)। भू सत्तायाम्-क्त। सत्तां प्राप्तस्य चराचरात्मकस्य जगतः। (पतये)। तादर्थ्ये चतुर्थी। पालकस्य। स्वामिने ॥

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    विषय

    यज्ञों से ऋतुओं को अविपर्यय

    पदार्थ

    १. (ऋतून् यजे) = मैं ऋतुओं के उद्देश्य से यज्ञ करता हूँ। (ऋतुपतीन्) = ऋतुओं के पति अग्नि, वायु, सूर्य आदि देवों के उद्देश्य से यज्ञ करता हूँ। (आर्तवान्) = इन ऋतुओं में उत्पन्न होनेवाले पदार्थों के उद्देश्य से यज्ञ करता हूँ। २. (उत) = और (हायनान्) = संवत्सर-सम्बन्धी दिन-रात का लक्ष्य करके [जहति जिहते बा भावान्] (समा:) = सम प्रविभक्त चौबीस संख्यावाले अर्धमासों का लक्ष्य करके (संवत्सरान्) = वर्षों का लक्ष्य करके तथा (मासान्) = चैत्र आदि बारह मासों का लक्ष्य करके मैं यज्ञ करता हूँ। यज्ञ से सब ऋतुएँ व कालविभाग ठीक से अपना-अपना कार्य करते हैं। यज्ञ कालविकृतिजन्य आधिदैविक आपत्तियों को दूर करता है। ३. मैं (भूतस्य पतये) = सब प्राणियों के स्वामी उस प्रभु का (यजे) = यज्ञ द्वारा पूजन करता हूँ। यह यज्ञ मुझे परमात्मा के समीप प्राप्त करानेवाला होता है ('यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः')

    भावार्थ

    सब गृहों में यज्ञ होने पर ऋतुओं व काल के विपर्यय से होनेवाले कष्ट दूर होते है। इन यज्ञों से ही प्रभु का उपासन होता है।

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    भाषार्थ

    (ऋतून् यजे) मैं ऋतूयज्ञ करता हूँ, (ऋतुपतीन्) ऋतुओं के पतियों को, (आर्तवान्) ऋतुओं के समूहों या अवयवों को, (उत) तथा (हायनान्=सायनान) अयनोंवाले आयनवर्षों को, (समाः) चान्द्रवर्षों को, (संवत्सरान्) सौरवर्षों को, (मासान्) मासों को [लक्ष्य कर] यज्ञ करता हूँ। (भूतस्य पतये) और भौतिक जगत् के पति अर्थात् परमेश्वर का (यजे) मैं यजन करता हूँ।

    टिप्पणी

    [संवत्सर की पहली रात्री से प्रारम्भ कर प्रत्येक ऋतु तथा मास में यज्ञ करने का विधान हुआ है। ये यज्ञ भौतिक जगत् के पति परमेश्वर की प्रसन्नता के लिये हैं। दो अयनों के मेल से हायन होता है। दो अयन हैं उत्तरायण तथा दक्षिणायन। हायन है सायन, यथा सिन्धु है हिन्दु। सकार को हकार प्रायः हो जाता है। ऋतुपति हैं अग्नि, वायु, विद्युत्, मेघ, आदित्य आदि।]

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    विषय

    अष्टका रूप से नववधू के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    मैं, गृहपति (ऋतुन् यजे) सब ऋतुओं में उन ऋतुओं के अनुकूल यज्ञ करूं और (ऋतुपतीन्) ऋतुओं के परिपालक अग्नि, वायु आदि देव ‘शब्दवाच्य’ पदार्थों को भी (यजे) उचित रीति से संगत करके अपने अनुकूल करूं । (आर्तवान्) ऋतुओं के पक्ष मास आदि विशेष २ भागों को भी (यजे) यज्ञ द्वारा सुखकारी बनाऊं । (उत) और (हायनान्) सब वर्षों या सब दिनों में (यजे) यज्ञ करूं । और (समाः) चान्द्र वर्षों और (संवत्सरान्) सौर संवत्सरों, वर्षों और (मासान्) सब मासों में भी यज्ञ करूं और सब कालों में मैं (भूतस्य पतये) समस्त प्राणियों के पालक परमात्मा की (यजे) उपासना करूं । इस मन्त्र में ब्रह्मयज्ञ और देवयज्ञ का उपदेश करके ऋतुयज्ञ, मासयज्ञ, पाक्षिकयज्ञ, वार्षिकयज्ञ और दैनिकयज्ञ करने का भी उपदेश किया है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kalayajna for Growth and Prosperity

    Meaning

    I serve and replenish the seasons with yajna, I serve the powers that control the seasons such as sun and moon, earth and air, I serve the cycle of the seasons and the course of the years. I serve the years in full, years in cycle, months, and I serve the controlling factors of things in existence.

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    Translation

    I offer oblations to seasons, to lords of seasons, to couples of seasons, to winters, to summers, to years and to months. I offer oblations to the Lord of all existence.

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    Translation

    The year which comes to us is the lord Ekastaka. May it give to us the progeny blessed with long life and possessed of increase of wealth.

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    Translation

    May I perform yajna in all seasons. May I render fire and water, thelords of season favorable to me. May I make the parts of seasons comfort-able to me through yajna. May I daily perform yajna. May I perform the lunar yearly,solar yearly and monthly yajans. May I worship God, the lord of all the existing things.

    Footnote

    One should perform daily, monthly, seasonal, lunar, and solar yearly yajnas.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(ऋतून्)। अर्त्तेश्च तुः। उ० १।७२। इति ऋ गतौ-तु, स च कित् वसन्तादिकालाम्। (यजे)। यज देपपूजादानसङ्गतिकरणेषु। अहं समर्पयामि। (ऋतुपतीन्)। ऋतूनाम् अधिष्ठातॄन्, सूर्यचन्द्रवायुपृथिव्यादीन् देवान्। (आर्तवान्)। ऋतोरण्। पा० ५।१।१०५। इति ऋतु-अण्, तदस्य प्राप्तमित्यर्थे। ऋतूद्भवान्। ऋतुजातान्। (उत)। अपि च। (हायनान्)। हश्च व्रीहिकालयोः। पा० ३।१।१४८। इति ओहाक् त्यागे, ओहाङ् गतौ च-ण्युट्। आतो चुक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। दातव्यान् प्राप्तव्यान् व्रीह्यादीन् भोज्यपदार्थान्। (समाः)। अ० २।६।१। अनुकूलाः क्रियाः। (संवत्सरान्)। म० २। सम्यग् वासयितॄन्। द्वादशमासात्मकान् कालान्। (मासान्)। मस परिमाणे-घञ्। शुक्लकृष्णपक्षद्वयात्मकान् कालान्। (भूतस्य)। भू सत्तायाम्-क्त। सत्तां प्राप्तस्य चराचरात्मकस्य जगतः। (पतये)। तादर्थ्ये चतुर्थी। पालकस्य। स्वामिने ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (ঋতূন্ যজে) আমি ঋতুযজ্ঞ করি, (ঋতুপতীন্) ঋতু-সমূহের পতিদের, (আর্তবান্) ঋতুগুলির সমূহ বা অবয়বগুলোকে, (উত) এবং (হায়নান্ =সায়নান্) আগত আয়নবর্ষসমূহকে, (সমাঃ) চান্দ্রবর্ষ-সমূহকে, (সংবৎসরান) সৌরবর্ষ-সমূহকে, (মাসান্) মাস-সমূহকে [লক্ষ্য/উদ্দেশ্য করে] যজ্ঞ করি। (ভূতস্য পতয়ে) এবং ভৌতিক জগতের পতি অর্থাৎ পরমেশ্বরের (যজে) আমি যজ্ঞ করি।

    टिप्पणी

    [সংবৎসরের প্রথম রাত্রি থেকে আরম্ভ করে প্রত্যেক ঋতু এবং মাসে যজ্ঞ করার বিধান হয়েছে। এই যজ্ঞ ভৌতিক জগতের পতি পরমেশ্বরের প্রসন্নতার জন্য নেওয়া হয়েছে। দুটি অয়ন-এর মিলনে হায়ন হয়। দুটি অয়ন হলো উত্তরায়ণ এবং দক্ষিণায়ন। হায়ন হল সায়ন, যথা সিন্ধু হল হিন্দু। সকার-কে হকার প্রায়ঃ হয়ে যায়। ঋতুপতি হলো অগ্নি, বায়ু, বিদ্যুৎ, মেঘ, আদিত্য আদি।]

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    मन्त्र विषय

    পুষ্টিবর্ধনায় প্রকৃতিবর্ণনম্

    भाषार्थ

    (ঋতূন্) ঋতু-সমূহ, (ঋতুপতীন্) ঋতুর স্বামীগণ [সূর্য, বায়ু, পৃথিব্যাদি], (আর্তবান্) ঋতুসমূহে উৎপন্ন (হায়নান্) প্রাপ্তি যোগ্য চাল আদি পদার্থ দিয়ে (সংবৎসরান্) যথাবিধি নিবাস প্রদানকারী (মাসান্) কর্মের পরিমাপক মাস (উত) এবং (সমাঃ) সমস্ত অনুকূল ক্রিয়াকে (ভূতস্য) সত্তা প্রাপ্ত জগতের (পতয়ে) পতির প্রতি (যজে যজে) আমি বার-বার অর্পণ করি॥৯॥

    भावार्थ

    তত্ত্বজ্ঞানী পুরুষ গ্রীষ্ম, বর্ষা, শীতাদি ঋতুসমূহ এবং সেগুলোর কারণ সূর্য, চন্দ্র, বায়ু, পৃথিব্যাদি ও সংসারের অন্য পদার্থসমূহ এবং ক্রিয়া-সমূহের আদি কারণ জগৎ পিতা পরমেশ্বরকে মান্য করে এবং উনার প্রতি ধন্যবাদ জ্ঞাপন করে ॥৯।।

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