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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - यमिनी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पशुपोषण सूक्त
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    ए॒षा प॒शून्त्सं क्षि॑णाति क्र॒व्याद्भू॒त्वा व्यद्व॑री। उ॒तैनां॑ ब्र॒ह्मणे॑ दद्या॒त्तथा॑ स्यो॒ना शि॒वा स्या॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षा । प॒शून् । सम् । क्षि॒णा॒ति॒ । क्र॒व्य॒ऽअत् । भू॒त्वा । वि॒ऽअद्व॑री । उ॒त । ए॒ना॒म् । ब्र॒ह्मणे॑ । द॒द्या॒त् । तथा॑ । स्यो॒ना । शि॒वा । स्या॒त् ॥२८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एषा पशून्त्सं क्षिणाति क्रव्याद्भूत्वा व्यद्वरी। उतैनां ब्रह्मणे दद्यात्तथा स्योना शिवा स्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषा । पशून् । सम् । क्षिणाति । क्रव्यऽअत् । भूत्वा । विऽअद्वरी । उत । एनाम् । ब्रह्मणे । दद्यात् । तथा । स्योना । शिवा । स्यात् ॥२८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    उत्तम नियम से सुख होता है।

    पदार्थ

    (एषा) यह [व्यवस्था विरुद्ध बुद्धि] (क्रव्याद्) मांस खानेवाली और (व्यद्वरी) अनेक विधि से भक्षणशीला (भूत्वा) होकर (पशून्) दो पाए और चौपाये जीवों को (संक्षिणाति) सर्वथा नष्ट करती है। (उत) इस लिये (एनाम्) इस [अनिष्ट बुद्धि को] (ब्रह्मणे) ब्रह्म [ईश्वर, वेद, वा ब्राह्मण को] (दद्यात्) वह सौंपे, (तथा) तो वह (स्योना) सुखदायिनी और (शिवा) कल्याणी (स्यात्) हो जावे ॥२॥

    भावार्थ

    कुबुद्धि पापी मनुष्य परमात्मा वा वेद वा उत्तम विद्वान् की शरण लेकर उत्तम कर्म करने से सुधर जाता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(एषा) अपर्तुर्बुद्धिः (पशून्) द्विपदश्चतुष्पदः प्राणिनः (संक्षिणाति) सर्वथा नाशयति (क्रव्याद्) अ० २।२५।५। मांसभक्षिका (व्यद्वरी) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति वि+अद भक्षणे-वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। विविधं भक्षणशीला (उत) एवंविधे। (एनाम्) अपर्तुं बुद्धिम् (ब्रह्मणे) ईश्वरस्य वेदस्य ब्राह्मणस्य वा शरणाय। (दद्यात्) समर्पयेत् (तथा) तेन प्रकारेण (स्योना) अ० १।३३।१। सुखकरी। (शिवा) कल्याणी। (स्यात्) भवेत् ॥

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    विषय

    क्रव्यात् व्यद्वरी Vs [ बनाम] स्योना शिवा [ बुद्धि]

    पदार्थ

    १. (एषा) = यह गतमन्त्र में वर्णित अपर्तु [नियमित गति से रहित] बुद्धि (पशून) = पशुओं को (संक्षिणाति) = नष्ट करती है। यह (व्यद्वरी) = [वि+अद्]शास्त्र-विरुद्ध भोजनों को खानेवाली (भूत्वा) = होकर (क्रव्यात्) = मांसाहारवाली हो जाती है। २. यदि मनुष्य (उत्त) = निश्चय से (एनाम्) = इस बुद्धि को अपर्तु न होने देकर, (ब्रह्मणे दद्यात्) = ज्ञान के लिए दे दे-ज्ञान-प्राप्ति में ही लगादे तो (तथा) = वैसा करने पर (स्योना) = सुखदा व (शिवा)-कल्याण-ही-कल्याण करनेवाली स्यात् हो।

    भावार्थ

    बुद्धि को ज्ञान-प्राप्ति में लगाएँ तो यह सुख व कल्याण करनेवाली होती है, अन्यथा अनियमित गतिवाली होकर शास्त्र-विरुद्ध भोजनों को खाने लगती है, मांसाहार करती हुई पशुओं का संहार करती है।

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    भाषार्थ

    (एषा) यह [यमनियमोंवाली वेदवाणी] (क्रव्याद्) मांस खाने वाली, तथा (व्यद्वरी) विविध रूप में खानेवाली (भूत्वा) होकर (पशून्) पञ्चविध पशुओं [मन्त्र १] का (संक्षिणाति) सम्यक् क्षय कर देती है। (उत) इसलिए (एनाम्) इस वेदवाणी को (ब्रह्मणे) वेदवाणी के अधिकारी को (दद्यात्) दे, (तथा) इस प्रकार (स्योना) यमिनी वेदवाणी सुखकरी, (शिवा) तथा कल्याणकारी (स्यात्) हो जाए।

    टिप्पणी

    [वेद वाणी का तो सर्वत्र प्रचार होना चाहिए, "यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः" (यजुः० २६।२) तथापि यमनियमों का प्रतिपादक वेदभाग ब्राह्मी प्रकृति के व्यक्ति को ही देना चाहिए। क्रव्याद= क्रव्य+ अद् भक्षणे।]

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    विषय

    ‘यमिनी’ राजसभा और गृहिणी के कर्तव्यों का उपदेश।

    भावार्थ

    (एषा) वह अव्यवस्थापिका सभा, विपरीत जाने हारी शासन समिति (व्यद्वरी) एक दूसरे को खा जाने वाली होने के कारण (क्रव्याद्) एक दूसरे के शरीर के मांस की लोलुपा (भूत्वा) होकर (पशून्) पशुओं का, मूर्ख अनभिज्ञ साधारण प्रजाजनों का (समू क्षिणोति) खूब परस्पर नाश कराती है । तब क्या उपाय करे (उत) तो फिर (एनां) इस दुर्व्यवस्था की बागडोर (ब्रह्मणे दद्यात्) ब्रह्म = वेद के जानने हारे परम विद्वान् पुरुष, जज्ज, व्यवस्थापक के हाथ में देवे (तथा) तभी वह (स्योना) सुखकारिणी और (शिवा) मंगलजनक (स्यात्) हो जाती है। अथवा—वह तामसी और राजसी प्रकृति एक दूसरे की विनाशिका होने से मनुष्य के शरीर की विनाशक हो जाती है और जीवों को नष्ट करती है इसलिये जीवों को चाहिये कि उस प्रकृति को ब्रह्म-अर्थात् सत्व के अधीन कर दे, जिससे वह भी सुख और कल्याणकारी हो जाय । अथवा – यदि वह नारी केवल (व्यद्वरी) भोगप्रिया होकर (क्व्याद्) कच्चे जीवों की नाशिका होकर और बीजभूत जीवों का विनाश करे तो भी उसको (ब्रह्मणे) विद्वान् वैद्य के पास ले जाय जिससे पुनः गृहस्थ-सुख को देने वाली हो जाय।

    टिप्पणी

    ‘वि अद्वरी’ इति पदपाठः। ‘व्यध्वरी’ इति सायणः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पशुपोषणकामो ब्रह्मा ऋषिः। यमिनी देवता। १ अतिशाक्वरगर्भा चतुष्पदा अति-जगती, ४ यवमध्या विराट्-ककुप, ५ त्रिष्टुप्, ६ विराडगर्भा प्रस्तारपंक्तिः। २,३ अनुष्टुभौ। षडृर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Observance of Divine Law

    Meaning

    This process, of negative character, grows cruel and omnivorous, and it destroys humans and animals alike. Hence people should refer this counter-evolution back to the Veda and the divine law of evolution, because this way only would the process be positive, auspicious and blissful once again.

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    Translation

    Such a cow, turning into a flesh-eater (kravyād) and devourer (vi-advarī), ruins the cattle completely. Better, one should give her to some wise and learned person; thereby she will become delightful as well as beneficial.

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    Translation

    This night of dissolution turning to be devourer of all the living creatures and consuming them dissolves the whole creation. So let it go to Supreme Being so that it may be the cause of bliss and happiness.

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    Translation

    That chaos, destroying each and every one, and being flesh-devourer, ruins common ignorant persons. At such a critical time, the chaos in the society should be handed overto a highly learned person, who knows the Vedas, for the restoration of peace and happiness.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(एषा) अपर्तुर्बुद्धिः (पशून्) द्विपदश्चतुष्पदः प्राणिनः (संक्षिणाति) सर्वथा नाशयति (क्रव्याद्) अ० २।२५।५। मांसभक्षिका (व्यद्वरी) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७५। इति वि+अद भक्षणे-वनिप्। वनो र च। पा० ४।१।७। इति ङीब्रेफौ। विविधं भक्षणशीला (उत) एवंविधे। (एनाम्) अपर्तुं बुद्धिम् (ब्रह्मणे) ईश्वरस्य वेदस्य ब्राह्मणस्य वा शरणाय। (दद्यात्) समर्पयेत् (तथा) तेन प्रकारेण (स्योना) अ० १।३३।१। सुखकरी। (शिवा) कल्याणी। (स्यात्) भवेत् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (এষা) এই [যমনিয়মসমৃদ্ধ বেদবাণী] (ক্রব্যাদ্) মাংস ভক্ষণকারী এবং (ব্যদ্বরী) বিবিধরূপে ভক্ষণকারী (ভূত্বা) হয়ে (পশুন্) পঞ্চবিধ পশুদের [মন্ত্র ১] (সংক্ষিণাতি) সম্যক্ ক্ষয় করে। (উত) এইজন্য (এনাম্) এই বেদবাণীকে (ব্রহ্মণে) বেদবাণীর অধিকারীকে (দদ্যাৎ) দাও/প্রদান করো, (তথা) এইভাবে (স্যোনা) যামিনী বেদবাণী সুখকারী, (শিবা) এবং কল্যাণকারী (স্যাৎ) হয়ে যাক/হোক।

    टिप्पणी

    [বেদবাণীর সর্বত্র প্রচার করা উচিত, "যথেমাং বাচং কল্যাণীমাবদানি জনেভ্যঃ" (যজু০ ২৬।২), তথাপি যমনিয়মের প্রতিপাদক বেদভাগ ব্রাহ্মণ প্রকৃতির ব্যক্তিকেই দেওয়া উচিত। ক্রব্যাদ্= ক্রব্য+অদ্ ভক্ষণে।]

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    मन्त्र विषय

    সুনিয়মেন সুখং ভবতি

    भाषार्थ

    (এষা) এই [ব্যবস্থা বিরুদ্ধ বুদ্ধি] (ক্রব্যাদ্) মাংসভক্ষিকা এবং (ব্যদ্বরী) বিবিধ বিধিতে ভক্ষণশীলা (ভূত্বা) হয়ে (পশূন্) দ্বিপদ ও চতুষ্পদ জীবদের (সংক্ষিণাতি) সর্বদা নষ্ট করে। (উত) এইজন্য (এনাম্) এই [অনিষ্ট বুদ্ধিকে] (ব্রহ্মণে) ব্রহ্ম [ঈশ্বর, বেদ, বা ব্রাহ্মণকে] (দদ্যাৎ) যদি সমর্পিত করে, (তথা) তবে সে (স্যোনা) সুখদায়িনী ও (শিবা) কল্যাণী (স্যাৎ) হয়ে যাবে ॥২॥

    भावार्थ

    কুবুদ্ধি পাপী মনুষ্য পরমাত্মা বা বেদ বা উত্তম বিদ্বান্ এর শরণ নিয়ে/আশ্রয় গ্রহণ করে উত্তম কর্ম করলে সংশোধিত হয়ে যায়॥২॥

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