Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 11 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
    0

    येन॑ दे॒वाः स्व॑रारुरु॒हुर्हि॒त्वा शरी॑रम॒मृत॑स्य॒ नाभि॑म्। तेन॑ गेष्म सुकृ॒तस्य॑ लो॒कं घ॒र्मस्य॑ व्र॒तेन॒ तप॑सा यश॒स्यवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दे॒वा: । स्व᳡: । आ॒ऽरु॒रु॒हु: । हि॒त्वा । शरी॑रम् । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑म् । तेन॑ । गे॒ष्म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् । घ॒र्मस्य॑ । व्र॒तेन॑ । तप॑सा । य॒श॒स्यव॑: ॥११.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन देवाः स्वरारुरुहुर्हित्वा शरीरममृतस्य नाभिम्। तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं घर्मस्य व्रतेन तपसा यशस्यवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । देवा: । स्व: । आऽरुरुहु: । हित्वा । शरीरम् । अमृतस्य । नाभिम् । तेन । गेष्म । सुऽकृतस्य । लोकम् । घर्मस्य । व्रतेन । तपसा । यशस्यव: ॥११.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (येन) जिस [परमात्मा] के द्वारा (देवाः) व्यवहारकुशल पुरुष (शरीरम्) नाशमान शरीर [देह अभिमान] (हित्वा) छोड़ कर (अमृतस्य) अमरपन के (नाभिम्) केन्द्र (स्वः) स्वर्ग को (आरुरुहुः) चढ़े थे। (तेन) उसी [ईश्वर] के सहारे से (यशस्यवः) यश चाहनेवाले हम लोग (घर्मस्य) दीप्यमान सूर्य के [समान] (व्रतेन) कर्म और (तपसा) सामर्थ्य से (सुकृतस्य) पुण्य के (लोकम्) लोक [परमात्मा] को (गेष्म) खोजें ॥६॥

    भावार्थ

    जैसे पूर्वज महात्मा परमात्मा की भक्ति से मोक्षसुख पाकर अमर अर्थात् कीर्तिमान् हुए हैं, उसी प्रकार हम परमेश्वर की आज्ञा पाल कर संसार में उपकार करके यशस्वी होवें, जैसे सूर्य अपने तेज से वृष्टि दान और आकर्षण आदि करके लोक का उपकार करता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(येन) अनडुहा। परमेश्वरेण (देवाः) व्यवहारिणः पुरुषाः (स्वः) अ० २।५।२। स्वर्गम्। देवालयम् (अरुरुहुः) आरूढवन्तः (हित्वा) ओहाक् त्यागे−क्त्वा। त्यक्त्वा। (शरीरम्) अ० २।१२।८। शीर्यमाणं देहम्। देहाभिमानमित्यर्थः (अमृतस्य) अमरणस्य। मोक्षसुखस्य (नाभिम्) अ० १।१३।३। मध्यस्थानम्। केन्द्रम् (तेन) अनडुहा (गेष्म) गेषृ अन्विच्छायाम्-लोटि छान्दसं रूपम्। गेषामहै। अन्विच्छाम। अन्वेषणेन प्राप्नवाम (सुकृतस्य) पुण्यस्य (लोकम्) गृहम् (घर्मस्य) म० ३। प्रकाशमानस्य। आदित्यस्य (व्रतेन) वरणीयेन कर्मणा (तपसा) ऐश्वर्येण (यशस्यवः) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति यशस्-क्यच्। क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। इति उ प्रत्ययः। यशः कीर्तिमात्मन इच्छन्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    धर्मस्य व्रतेन तपसा

    पदार्थ

    १. (येन) = जिस (धर्मस्य व्रतेन) = देदीप्यमान सूर्य के व्रत से [स्वस्तिपन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविव]-सूर्य के समान नियमित जीवन से तथा (तपसा) = तप के द्वारा (यशस्यवः) = यश की कामनावाले-यशस्वी जीवनवाले (देवाः) = देवपुरुष (स्व: आरुरुहः) = स्वर्ग का आरोहण करते हैं-प्रकाशमयलोक को प्राप्त करते हैं, २. हम भी (तेन) = उस व्रत व तप के द्वारा (शरीरं हित्वा) = इस शरीर को छोड़कर (अमृतस्य नाभिम्) = अमृत के केन्द्र उस प्रभु को (गेष्म) = जाएँ, (सुकृतस्य लोकम्) = पुण्य के लोक को प्राप्त करें।

    भावार्थ

    सूर्य के समान नियमित जीवन व तप के द्वारा यशस्वी जीवनवाले बनते हुए हम शरीर-त्याग के पश्चात् अमृत के केन्द्र प्रभु को प्राप्त करें-पुण्यलोक-भागी हों।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (येन) जिस अनड्वान्, अर्थात् संसार-शकट का वहन करनेवाले की कृपा से (देवाः) देवकोटि के लोग (अमृतस्य नाभिः) मोक्ष के बन्धक अर्थात् मोक्ष के द्वारभूत (शरीरम् हित्वा) शरीर का त्याग कर (स्वः) सुखविशेष के स्थान पर (आरुरुहुः) आरूढ़ हुए, (तेन) उस अनड्वान् की कृपा से (घर्मस्य व्रतेन) दीप्यमान अनड्वान्-सम्बन्धी व्रत द्वारा, (तपसा) तथा तप द्वारा (यशस्यवः) यशस्वी हुए हम, (सुकृतस्य लोकम्) सुकर्मो के लोक को (गेष्म) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [शरीर अमृत की नाभि है। शरीर के रहते ही व्रतों, तपश्चर्या आदि द्वारा सुकर्मियों के लोक को प्राप्त किया जा सकता है। नाभिम्=णह बन्धने (दिवादिः)। व्रतेन=अनड्वान्-सम्बन्धी व्रत (मन्त्र ११)।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जगदाधार परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (येन) जिस परम प्रभु की उपासना से (देवाः) विद्वान् गण (अमृतस्य) अमृतस्वरूप आत्मा के (नाभिम्) बांधने वाले (शरीरम्) इस शरीर को (हित्वा) परित्याग करके (स्वः) सुखमय मोक्ष-लोक को (आ रुरुहुः) प्राप्त होते हैं। हम भी (तपसा) तप से (यशस्यवः) यश = यशस्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति की इच्छा करने हारे होकर (धर्मस्य) तेजोमय आदित्य के (व्रतेन) व्रत को धारण करके (तेन) उस प्रभु के द्वारा ही (सुकृतस्य लोकं) पुण्य के लोक, मोक्ष को (गेष्म) प्राप्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Universal Burden-Bearer

    Meaning

    By whose grace noble sages arose to the regions of bliss, having given up their material body, and attained to the centre of the nectar of immortality, by the same lord’s grace, let us too, seekers of honour and bliss, rise to the same regions of piety and bliss through meditative practice and discipline of the lord self- refulgent and all illuminant.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Whereby the enlightened ones; having discarded the body, ascend to the world of light, the navel of the immortality, thereby may we, desirous of glory, go to the world obtainable by virtuous deeds, by fervour and by the vow of the shining one (the sun).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May we, the seeker of fame uplift ourselves to the region of heaven through the adherence and observation that is transpiring and unviolable law of the Sun whereby the learned persons leaving the gross forms mounted to the transplendent centre of the evaporated water.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Through God's contemplation, the sages, having left the body, attain to salvation, the centre of immortality. May we, seekers after God, through penance and sun-like determination reach the world of virtue.

    Footnote

    World of virtue: Salvation, final beatitude.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(येन) अनडुहा। परमेश्वरेण (देवाः) व्यवहारिणः पुरुषाः (स्वः) अ० २।५।२। स्वर्गम्। देवालयम् (अरुरुहुः) आरूढवन्तः (हित्वा) ओहाक् त्यागे−क्त्वा। त्यक्त्वा। (शरीरम्) अ० २।१२।८। शीर्यमाणं देहम्। देहाभिमानमित्यर्थः (अमृतस्य) अमरणस्य। मोक्षसुखस्य (नाभिम्) अ० १।१३।३। मध्यस्थानम्। केन्द्रम् (तेन) अनडुहा (गेष्म) गेषृ अन्विच्छायाम्-लोटि छान्दसं रूपम्। गेषामहै। अन्विच्छाम। अन्वेषणेन प्राप्नवाम (सुकृतस्य) पुण्यस्य (लोकम्) गृहम् (घर्मस्य) म० ३। प्रकाशमानस्य। आदित्यस्य (व्रतेन) वरणीयेन कर्मणा (तपसा) ऐश्वर्येण (यशस्यवः) सुप आत्मनः क्यच्। पा० ३।१।८। इति यशस्-क्यच्। क्याच्छन्दसि। पा० ३।२।१७०। इति उ प्रत्ययः। यशः कीर्तिमात्मन इच्छन्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top