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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 9
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
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    यो वेदा॑न॒डुहो॒ दोहा॑न्स॒प्तानु॑पदस्वतः। प्र॒जां च॑ लो॒कं चा॑प्नोति॒ तथा॑ सप्तऋ॒षयो॑ विदुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । वेद॑ । अ॒न॒डुह॑: । दोहा॑न् । स॒प्त । अनु॑पऽदस्वत: । प्र॒ऽजाम् । च॒ । लो॒कम् । च॒ । आ॒प्नो॒ति॒ । तथा॑ । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: ॥११.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो वेदानडुहो दोहान्सप्तानुपदस्वतः। प्रजां च लोकं चाप्नोति तथा सप्तऋषयो विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । वेद । अनडुह: । दोहान् । सप्त । अनुपऽदस्वत: । प्रऽजाम् । च । लोकम् । च । आप्नोति । तथा । सप्तऽऋषय: ॥११.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो कोई (अनडुहः) जीवन पहुँचानेवाले परमेश्वर के (दोहान्) पूर्ति के प्रवाहों को (सप्त) नित्य संबन्धवाले और (अनुपदस्वतः) अक्षय (वेद) जानता है, वह (प्रजाम्) प्रजा (च) और (लोकम्) लोक (च) भी (आप्नोति) पाता है, (तथा) ऐसा (सप्तऋषयः) सात व्यापनशील वा दर्शनशील, [अर्थात् त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि, अथवा दो कान, दो नथने, दो आँख और मुख यह सात छिद्र] (विदुः) जानते हैं [प्रत्यक्ष करते हैं] ॥९॥

    भावार्थ

    विज्ञानी पुरुष जीवनदाता परमेश्वर के सर्वव्यापी और अनन्त कोश को अपनी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन और बुद्धि द्वारा साक्षात् करके अपना आत्मिक और शारीरिक बल बढ़ाते हैं ॥९॥

    टिप्पणी

    ९−(यः) यः पुरुषः (वेद) वेत्ति (अनडुहः) म० १। प्राणप्रापकस्य (दोहान्) म० ४। पूर्तिप्रवाहान् (सप्त) सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति षप समवाये-कनिन्। अथवा क्त प्रत्ययः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तिलोपः। समवेतान्। नित्यसम्बद्धान्। अथवा, सप्तपुत्रं सप्तमपुत्रं सर्पणपुत्रमिति वा सप्त सृप्ता सङ्ख्या सप्तादित्यरश्मयः। निरु० ४।२६। इति यास्कवचनात् सूर्यरश्मिवत् परस्परसंयुक्तान् (अनुपदस्वतः) दसु उपक्षये-असुन्, मतुप्। अक्षयान् (प्रजाम्) पुत्रपौत्रभृत्यादिकम् (च) समुच्चये। अवधारणे (लोकम्) संसारम्। संसारराज्यम् (आप्नोति) लभते (तथा) तेनैव प्रकारेण (सप्तऋषयः) सप्त समवेताः। इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति ऋष गतौ दर्शने च-इन्। ऋत्यकः। पा० ६।१।१२८। इति प्रकृतिभावः। सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे। य० ३४।५५। सप्त ऋषयः षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी। निरु० १२।३७। कः सप्त खानि विततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्। अ० १०।२।६। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः। अथवा। शीर्षण्यानि सप्तच्छिद्राणि (विदुः) जानन्ति। प्रत्यक्षीकुर्वन्ति ॥

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    विषय

    प्रभु के एक देश में

    पदार्थ

    १. इस संसार-शकट का वहन करनेवाले वे प्रभु 'अनड्रान्' हैं। उस अनडान् पर ही इस सारे ब्रह्माण्ड का बोझ रखा है, परन्तु यह सब उसके एक देश में ही है। पुरुषसूक्त में कहा है-('पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि')। यहाँ कहते हैं कि (एतत्) = यह (अनडुहः) = इस अनड्डान् प्रभु का (मध्यम्) = मध्य भाग है, (यत्र) = जहाँ कि (एष:) = यह (वहः) = सारे संसार का बोझ (आहितः) = स्थापित है। प्रभु ने अपने एक देश में सारे ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है। २. (एतावत्) = इतना ही (अस्य) = इस अनट्टान् का (प्राचीनम्) = प्राग्भाग है (यावान्) = जितना कि (प्रत्यङ्) = प्रत्यग्भाग (समाहितः) = सम्यक् निवर्तित हुआ है-बना है। इधर उस अनडान् का पूर्वभाग है, उधर प्राग्भाग है, मध्य में यह सारा ब्रह्माण्ड रक्खा हुआ है।

    भावार्थ

    प्रभु अनन्त व्याप्तिवाले हैं। यह सारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एक देश में है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (अनडुहः) अनड्वान्-परमेश्वर के (अनुपदस्वतः) न उपक्षीण होनेवाले (सप्त दोहान्) सात दोहों को (वेद) जानता है, वह (प्रजाम् च) उत्तम या प्रकृष्ट जन्म को, (लोकम् च) और लोक को (आप्नोति) प्राप्त होता है, (तथा) उस प्रकार (सप्त ऋषयः) सात ऋषि (विदुः) जानते हैं।

    टिप्पणी

    [सप्त दोहाः (मन्त्र ४ की टिप्पणी में कथित)। ये सप्त दोह यावत्काल सृष्टि की स्थिति है, तावत्-काल तक विद्यमान रहते हैं, अतः उपक्षीण नहीं होते। ऐसे ज्ञानी को प्रकृष्ट-जन्म प्राप्त होता है, तथा प्रकृष्ट लोक। सप्त ऋषयः=अध्यात्मपक्ष में सप्त ऋषि हैं शरीरस्थ। यथा- "सप्त ऋषयः प्रतिहिता: शरीरे" (यजु:० ३४।५५)। "सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे, षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी आत्मनि" (निरुक्त १२।४।३८ पद सप्त ऋषयः (२५)। आधिदैविक पक्ष में सप्तऋषि हैं, सप्तर्षिमण्डल। ये द्युलोक की उत्तर दिशा में स्थित है। इसे ऋक्ष-मंडल१ भी कहते हैं। पाश्चात्य ज्योतिः शास्त्र में इसे "great-Bear" कहते हैं, अर्थात् बड़ा रीछ। ऋक्ष पद का अपभ्रंश है 'रीछ'। इसके सम्बन्ध में 'विदुः' का प्रयोग, कविता रूप में इन्हें चेतन ऋषि किया गया है। विदुः में बहुवचन ऋक्ष के ताराओं के बाहुल्य के कारण है।] [१. यथा “अमी य ऋक्षा निहितास उच्चा नक्तं ददृश्रे कुह चिद्दिवेयुः। अदब्धानि वरुणस्य व्रतानि विचाकशच्चन्द्रमा नक्तमेति" (ऋ० १।२४।१०)। द्युलोक में इन्हें रीछ आकृति में दर्शाया जाता है। निरुक्त में ऋक्षाः का अर्थ नक्षत्र है। ऋक्षः= भल्लूक: (उणा० ३।६७; दयानन्द)। तथा "भल्लूकः" (दश पाद्युणादिवृत्ति ; ९।२१;] उज्ज्वल दत्त)। "अमी य ऋक्षा:" मन्त्र में 'ऋक्षा:' पद द्युलोक के समग्र ताराओं सम्बन्धी है, जोकि रात्रि में तो दृष्टिगोचर होते हैं, और दिन में नहीं। यह प्रश्न केवल भल्लूकाकृति-सम्बन्धी तारागणों के लिए नहीं है।]

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    विषय

    जगदाधार परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो विद्वान् पुरुष (अनडुहः) उस विश्वधारक ईश्वर के दिये (अनुपदस्वतः) कभी विनाश को प्राप्त न होने हारे (सप्त) सात (दोहान्) शरीर और उदरपूर्ति करने हारे अन्नों को (वेद) जानता है अथवा (सप्त) सर्पण स्वभाव वाले गतिमान् (दोहान्) अन्नप्रदाता जीवन के पूरक सूर्य, पर्जन्य, पृथिवी, अन्न वायु आदि को जानता है वह (प्रजाम् च) उत्तम प्रजा को और (लोकं च) उत्तम लोक को (प्राप्नोति) प्राप्त करता है (सप्त ऋषयः) सातों ऋषिगण भी (तथा) उसी प्रकार उस अनुडुह् रूप विश्वधारक आत्मा को (विदुः) जानते हैं। ये विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गोतम, अत्रि, वसिष्ठ और कश्यप ये सात ऋषि हैं। ये सातों ऋषि अध्यात्म में शिरोभाग में विद्यमान हैं. दो कान दोनों भरद्वाज हैं, दोनों आंखें विश्वामित्र और जमदग्नि हैं, दोनों नासिकाएं वसिष्ठ और कश्यप हैं, वाक् अत्रि है। (बृहदारण्यक उप० अ० २। २)। सात अन्न निम्नलिखित हैं— १ अन्न, हुत और प्रहुत,दुग्ध, मन, वाणी और प्राण। ‘अन्न’ साधारण है, ‘हुत’, ‘प्रहुत’ दोनों देवों के लिये और ‘दुग्ध’ पशु और मनुष्यों के लिये, ‘मन’, ‘वाणी’ और ‘प्राण’ ये तीनों आत्मा के लिये हैं। (बृहदा० उप० अ० १ । ब्रा० ५) अथवा उक्त सातों द्वारों के ग्राह्य विषय सात अन्न समझने चाहियें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Universal Burden-Bearer

    Meaning

    One who knows the seven showers of the grace of this eternal imperishable burden bearer, he realises and attains both the world of existence and the people that inhabit it. This the seven sages too know and express. (These seven sages age: the soul, clear intelligence, ahankara or I-sense, mind, prana, senses of perception, and senses of volition.)

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    Translation

    He, who knows the seven inexhausting milkings (yieldings) of the draft-ox (of the cosmic cart), obtains good progeny and the (happy) world, this the seven seers (sapta-rsayah) know. (Seven milkings = sapta-dohan = seven cultivated plants -rice etc. or seven worlds; seven oceans, any heptad)

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    Translation

    He whosoever knows the seven imperishable rays of the Sun, attains the children, and attains the good body, This fact is realized by the seven limbs of the body.

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    Translation

    He who knows the seven exhaustless blessings of God, wins himselfoffspring and sovereignty of the world. The great seven Rishis know this well.

    Footnote

    Seven Rishis: Vishvamitra and Jamdagni are two eyes. Seven blessings: Sun. air, water, fire, corn, earth, rain. Seven Rishis: Vishva Mitra and Jamdagni are two eyes. Vasishtha and Kashyap are two nostrils; Bhardwaj and Gautama are two ears Atri Rishi is speech. See Brihadaranyak Upanishad, 2-2. These are not the names of persons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ९−(यः) यः पुरुषः (वेद) वेत्ति (अनडुहः) म० १। प्राणप्रापकस्य (दोहान्) म० ४। पूर्तिप्रवाहान् (सप्त) सप्यशूभ्यां तुट् च। उ० १।१५७। इति षप समवाये-कनिन्। अथवा क्त प्रत्ययः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। इति विभक्तिलोपः। समवेतान्। नित्यसम्बद्धान्। अथवा, सप्तपुत्रं सप्तमपुत्रं सर्पणपुत्रमिति वा सप्त सृप्ता सङ्ख्या सप्तादित्यरश्मयः। निरु० ४।२६। इति यास्कवचनात् सूर्यरश्मिवत् परस्परसंयुक्तान् (अनुपदस्वतः) दसु उपक्षये-असुन्, मतुप्। अक्षयान् (प्रजाम्) पुत्रपौत्रभृत्यादिकम् (च) समुच्चये। अवधारणे (लोकम्) संसारम्। संसारराज्यम् (आप्नोति) लभते (तथा) तेनैव प्रकारेण (सप्तऋषयः) सप्त समवेताः। इगुपधात् कित्। उ० ४।१२०। इति ऋष गतौ दर्शने च-इन्। ऋत्यकः। पा० ६।१।१२८। इति प्रकृतिभावः। सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे। य० ३४।५५। सप्त ऋषयः षडिन्द्रियाणि विद्या सप्तमी। निरु० १२।३७। कः सप्त खानि विततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्। अ० १०।२।६। त्वक्चक्षुःश्रवणरसनाघ्राणमनोबुद्धयः। अथवा। शीर्षण्यानि सप्तच्छिद्राणि (विदुः) जानन्ति। प्रत्यक्षीकुर्वन्ति ॥

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