Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 14 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृगुः देवता - आज्यम्, अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त
    0

    क्रम॑ध्वम॒ग्निना॒ नाक॒मुख्या॒न्हस्ते॑षु॒ बिभ्र॑तः। दि॒वस्पृ॒ष्ठं स्व॑र्ग॒त्वा मि॒श्रा दे॒वेभि॑राध्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क्रम॑ध्वम् । अ॒ग्निना॑ । नाक॑म् । उख्या॑न् । हस्ते॑षु । बिभ्र॑त: । दि॒व: । पृ॒ष्ठम् । स्व᳡: । ग॒त्वा । मि॒श्रा: । दे॒वेभि॑: । आ॒ध्व॒म् ॥१४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क्रमध्वमग्निना नाकमुख्यान्हस्तेषु बिभ्रतः। दिवस्पृष्ठं स्वर्गत्वा मिश्रा देवेभिराध्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    क्रमध्वम् । अग्निना । नाकम् । उख्यान् । हस्तेषु । बिभ्रत: । दिव: । पृष्ठम् । स्व: । गत्वा । मिश्रा: । देवेभि: । आध्वम् ॥१४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे वीरो !] (उख्यान्) पके हुए आहारों को (हस्तेषु) हाथों में (बिभ्रतः) भरे हुए तुम (अग्निना) अग्नि अर्थात् परमेश्वर के सहारे से [अथवा अपने शरीर की उष्णता वा बल से] (नाकम्) पूर्ण सुख (क्रमध्वम्) पराक्रम से प्राप्त करो। और (देवेभिः) विद्वानों के साथ (मिश्राः) मिलते हुए तुम (दिवः) व्यवहार के (पृष्ठम्) सींचने वा बढ़ानेवाले अथवा पीठ के समान सहायक (स्वः) सुखस्वरूप परमात्मा को (गत्वा) प्राप्त होकर (आध्वम्) बैठो ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की अपार सृष्टि में पुरुषार्थपूर्वक परोपकार के लिये अन्न प्राप्त करें और विद्वानों से व्यवहार शिक्षा पाकर आनन्द भोगें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से य० १७।६५ में है ॥

    टिप्पणी

    २−(क्रमध्वम्) पराक्रमेण प्राप्नुत (अग्निना) परमेश्वरसहायेन। यद्वा स्वशरीरस्थेन उष्णत्वेन (नाकम्) अकेन दुःखेन रहितं पूर्णसुखम् (उख्यान्) शूलोखाद्यत्। पा० ४।˜२।१७। इति उखा-“संस्कृतं भक्षाः”-इत्यर्थे यत्। उखायां पाकपात्रे संस्कृतान् आहारान् (हस्तेषु) करेषु दानाय (बिभ्रतः) धरन्तः (दिवः) व्यवहारस्य (पृष्ठम्) तिथपृष्ठथूथ०। उ० २।१२। इति पृषु सेके-थक्। सेचकं वर्धकम्। यद्वा पृष्ठवत् सहायकम् (स्वः) सुखस्वरूपं परमात्मन् (गत्वा) प्राप्य (मिश्राः) मिश्रिताः। मिलिताः सन्तः (देवेभिः) देवैः। विद्वद्भिः (आध्वम्) आस उपवेशने-लोट्। उपविशत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यज्ञ व स्वर्ग

    पदार्थ

    १. (उख्यान्) = उखा [स्थाली, हाँडी] में पकाये जानेवाले अन्नों को (हस्तेषु बिभ्रत:) = हाथों में धारण करते हुए-अन्नदान करते हुए अथवा यज्ञों में इनका विनियोग करते हुए तुम (अग्निना) = उस अग्रणी प्रभु की सहायता से (नाकं क्रमध्वम्) = स्वर्ग की ओर गतिवाले होओ-यज्ञों के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करो। २. (दिवः पृष्ठम्) = युलोक के पृष्ठ पर (स्व: गत्वा) = स्वर्गलोक को प्राप्त करके (देवेभिः मिश्रा:) = देवो के सम्पर्क में आये हुए तुम (आध्वम्) = आसीन होओ।

    भावार्थ

    अन्नदान व अग्निहोत्र स्वर्ग-प्राप्ति के साधन हैं। ज्ञानियों के सम्पर्क में आसीन होना ही स्वर्ग है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (अग्निना) अग्निनामक परमेश्वर द्वारा (नाकम्) नाकलोक की ओर (क्रमध्वम्) पग बढ़ाओ, (उख्यान्) ऊर्ध्वक्रिया१ के पश्चात् प्राप्त फलों को (हस्तेषु) मानो निज हाथों में (बिभ्रतः) धारण करते हुए। (दिवस्पृष्ठम्) द्युलोक की पीठरूप (स्वः) स्वर्गलोक को (गत्वा) जाकर, [तत्पश्चात] (देवेभिः) देवों के साथ (मिश्रा:) मिश्रित होकर, (आध्वम्) बेठो।

    टिप्पणी

    [क्रमध्वम् = क्रमु पादविक्षेपे (भ्वादिः)। उख्यान्=उखा (ऊर्ध्वक्रिया, दशपाद्युणादिवृत्तिः ३।५७), अतः उख्यान् = ऊर्ध्वक्रिया द्वारा प्राप्त फल। आध्वम्=आस उपवेशने (सायण)। देवेभिः मिश्रा=देखो (यजु० ३१।१६)।] [१. उखा=ऊर्ध्वक्रिया (दशपाद्युणादिवृत्तिः, ३।५७)। उख्यान=ऊर्ध्वक्रिया के पश्चात् प्राप्त फल = देवेभिः आध्वम् ऊर्ध्वक्रिया= और्ध्वदेहिक क्रिया, मरणोत्तर क्रिया, अन्त्येष्टि क्रिया। हस्तेषु बिभ्रतः=निज हस्तरेखाओं में अंकित रूप में धारण करते हुए; अथवा निज हाथों में धारण करते हुए, समीपवर्ती अर्थात् अवश्यंभावी मानते हुए, यथा "At hand" (near), समीप। देवेभिः आध्वम् = साध्य देवों के साथ, मिलकर उपविष्ट होओ (यजु० ३१।१६)।आध्वम्= आस उपवेशने (सायण)।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ‘अज’ प्रजापति का स्वरूपवर्णन।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (अग्निना) ज्ञानस्वरूप आत्मा वा परम-आत्मा के प्रदर्शित प्रकाश से युक्त होकर (उख्यान्) आत्मिक ज्ञान आदि साधनों को (हस्तेषु बिभ्रतः) हस्तगत करते हुए (दिव- स्पृष्ठम्) प्रकाशस्वरूप, ज्ञान के परम उन्नत भाग, मोक्षपद अर्थात् (स्वः) उस परम ज्योति को (गत्वा) पहुंच कर (देवेभिः) मुक्त जीवों के सहित (मिश्राः) मिल कर (आध्वम्) आनन्दमग्न होकर रहो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। आाज्यमग्निर्वा देवता। १, २, ६ त्रिष्टुभः। २, ४ अनुष्टुभौ,३ प्रस्तार पंक्तिः। ७, ९ जगत्यौ। ८ पञ्चपदा अति शक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Light Spiritual

    Meaning

    By the light and grace of Agni, go forward and rise to the state of bliss, bearing in hands yajnic homage for the fire and, having reached on top of the regions of light and bliss by the divinities, attain to the state of liberation.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    With the grace of the adorable Lord, may you go to the sorrowless world (naka), bearing sacrifices (ubhya-Aksa) in your hands (ukhyan-hastesu bibhratah). Having reached the top of heaven, the world of light (svah), may you sit and mix up with the enlightened ones. (naka = na + a + ka i.e., not-not-happiness)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O ye learned men ! You having in bands the seethed viands for the purpose of Yajna oblations attain salvation by the enkindlement of Yajnagni. Reaching to the peak of spiritual light, attaining highest enlightenment and having been possessed of the wonderful qualities, you remain with ease and rest.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O learned persons, taking in hands your spiritual knowledge, endowed with the luster of God, attain to supreme happiness. Having reached the stage of final beatitude, and realizing that Excellent Light, mix with the emancipated souls, and live in merriment.

    Footnote

    See Yajur, 17-65.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(क्रमध्वम्) पराक्रमेण प्राप्नुत (अग्निना) परमेश्वरसहायेन। यद्वा स्वशरीरस्थेन उष्णत्वेन (नाकम्) अकेन दुःखेन रहितं पूर्णसुखम् (उख्यान्) शूलोखाद्यत्। पा० ४।˜२।१७। इति उखा-“संस्कृतं भक्षाः”-इत्यर्थे यत्। उखायां पाकपात्रे संस्कृतान् आहारान् (हस्तेषु) करेषु दानाय (बिभ्रतः) धरन्तः (दिवः) व्यवहारस्य (पृष्ठम्) तिथपृष्ठथूथ०। उ० २।१२। इति पृषु सेके-थक्। सेचकं वर्धकम्। यद्वा पृष्ठवत् सहायकम् (स्वः) सुखस्वरूपं परमात्मन् (गत्वा) प्राप्य (मिश्राः) मिश्रिताः। मिलिताः सन्तः (देवेभिः) देवैः। विद्वद्भिः (आध्वम्) आस उपवेशने-लोट्। उपविशत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top