Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वेनः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मविद्या सूक्त
    0

    यस्य॒ विश्वे॑ हि॒मव॑न्तो महि॒त्वा स॑मु॒द्रे यस्य॑ र॒सामिदा॒हुः। इ॒माश्च॑ प्र॒दिशो॒ यस्य॑ बा॒हू कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । विश्वे॑ । हि॒मऽव॑न्त: । म॒हि॒ऽत्वा । स॒मु॒द्रे । यस्य॑ । र॒साम् । इत् । आ॒हु: । इ॒मा: । च॒ । प्र॒ऽदिश॑: । यस्य॑ । बा॒हू इति॑ । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य विश्वे हिमवन्तो महित्वा समुद्रे यस्य रसामिदाहुः। इमाश्च प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । विश्वे । हिमऽवन्त: । महिऽत्वा । समुद्रे । यस्य । रसाम् । इत् । आहु: । इमा: । च । प्रऽदिश: । यस्य । बाहू इति । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्य) जिसकी (महित्वा=०-त्वेन) महिमा से (विश्वे) सब (हिमवन्तः) हिमवाले पहाड़ हैं, और (यस्य) जिसकी [महिमा से] (समुद्रे) समुद्र [अन्तरिक्ष, वा पार्थिव समुद्र] में (रसाम्) नदी को (इत्) भी (आहुः) बताते हैं। (च) और (इमाः) यह (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ (यस्य) जिसकी (बाहू) दो भुजाएँ हैं, उस (कस्मै) सुखदायक प्रजापति परमेश्वर की (देवाय) दिव्य गुण के लिये (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा किया करें ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे मनुष्य अपनी दो भुजाओं के बल से अर्थात् शारीरिक और आत्मिक सामर्थ्य से प्रजापालन आदि बड़े बड़े बोझ उठाते हैं, उसी प्रकार परमेश्वर ने दिशाओं अर्थात् अवकाश के भीतर सब लोकों को रचकर परस्पर आकर्षण द्वारा स्थापित किया है, उस जगदीश्वर की आज्ञा में चलकर हम यत्न से उत्तम गुण प्राप्त करें ॥५॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१२१।४ और यजु० २५।१२ में है ॥

    टिप्पणी

    ५−(यस्य) कस्य। ईश्वरस्य (विश्वे) सर्वे। (हिमवन्तः) भूम्नि मतुप्, मस्य वः। बहुहिमयुक्ता महागिरयः (महित्वा) म० २। महित्वे (समुद्रे) अ० १।३।८। अन्तरिक्षे। पार्थिवसागरे (रसाम्) नन्दिग्रहि०। पा० ३।१।१३४। इति रस शब्दे-पचाद्यच्। यद्वा। रस उदकम्-निघ० १।१२। रसोऽस्त्यस्यामिति रसा। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति रस-अच्। रसा नदी भवति रसतेः शब्दकर्मणः-निरु० ११।२५। नदीम्। जलधाराम् (इत्) एव (आहुः) ब्रुवन्ति (इमाः) दृश्यमानाः (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः (बाहू) अ० २।२७।३। भुजद्वयवद् वर्तमानाः। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    'पर्वतों, समुद्रों, पृथिवी व दिशाओं में प्रभु की महिमा का दर्शन

    पदार्थ

    १. उस आनन्दमय देव का हम हवि के द्वारा पूजन करें (यस्य महित्वा) = जिसकी महिमा से (विश्वे) = सब (हिमवन्त:) = हिमाच्छादित पर्वत खड़े हैं, (यस्य) = जिसकी महिमा से (इत्) = ही (समुद्रे) = समुद्र में भी (रसाम्) = रसों की उत्पत्ति-स्थान पृथिवी को (आहुः) = कहते हैं। चारों ओर समुद्र है, बीच में यह पृथिवी है। समुद्रों से आवृत यह पृथिवी भी प्रभु की महिमा का प्रकश कर रही है। २. (च) = और (इमा:) = ये (प्रदिश:) = फैली हुई दिशाएँ (यस्य) = जिस प्रभु की (बहू) = बाहु स्थानापन हैं, उस आनन्दमय देव का हम हवि के द्वारा पूजन करें।

    भावार्थ

    हिमाच्छादित पर्वतों में, समुद्र के मध्य में स्थित इस पृथिवी में, इन विस्तृत दिशाओं में सर्वत्र प्रभु क महिमा का प्रकाश हो रहा है। हम इस प्रभु का हवि के द्वारा पूजन करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यस्य महित्वा) जिसकी महिमा से (विश्वे) सब (हिमवन्त) हिमवाले [पर्वत उत्पन्न हुए हैं], (यस्य) जिसको महिमा से (रसाम् इत्) नदियों को (समुद्रे) समुद्र में प्रविष्ट (आहुः) कहते हैं। (च) और (इमा: प्रदिशः) ये विस्तृत दिशाएँ (यस्य) जिसकी (बाहू) दो बाहुएँ हैं, उस (कस्मै देवाय) किस देव के लिए, (हविषा) हवि द्वारा, (विधेम) हम परिचर्या अर्थात् सेवा भेंट करें।

    टिप्पणी

    ["रसा" नदी भवति रसते: शब्दकर्मणः (निरुक्त ११।३।१५)। रसा" जात्येकवचन। अतः रसा=नद्यः। अतः रसाम्=नदीः। अथवा रसाम्=रसवती पृथिवी। किसी समय समग्र पृथिवी समुद्र में, जल में प्रविष्ट थी। 'यथा "यामन्वैच्छद् हविषा विश्वकर्मान्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम्" (अथर्व० १२।१।६०), अर्थात् पृथिवी को विश्वकर्मा ने ढूँढ़ा, जोकि समुद्र के भीतर, जल में प्रविष्ट थी। रसातल शब्द में रसा है रसवती पृथिवी। बाहू=प्रदिशाएं चार हैं, इसलिए बाहू भी चार चाहिएं। दो बाहुओं के चार अवयव हैं। प्रत्येक कोहनी के, ऊपर और नीचे के, दो-दो अवयव [अथवा महित्वा=महत्वम्, आहुः वेदविदः।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ईश्वर की महिमा।

    भावार्थ

    (यस्य महित्वा) जिसकी विशाल महिमा = शक्ति से (विश्वं) समस्त (हिमवन्तः) हिमावृत पर्वत स्थिर खड़े हैं और विद्वान् लोग (यस्य) जिसकी महिमा से (समुद्रे) विशाल समुद्र में (रसाम्) नदी को जाता बतलाते हैं, अथवा जिसकी शक्ति से (समुद्रे) समुद्र या आकाश से घिरी (रसाम्) जलमय पृथिवी को स्थित हुआ बतलाते हैं। ओर (इमाः च प्रदिशः) ये लम्बी चौड़ी दिशाएं और उपदिशाएं (यस्य बाहू) जिसकी भुजाओं के समान सर्वत्र व्यापक हैं और सब को थामें खड़ी हैं, (कस्मै० इत्यादि) उस प्रभु की हम उपासना भक्ति से करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वेन ऋषिः। आत्मा देवता। १-२ त्रिष्टुभः।१ पुरोऽनुष्टुप्। ८ उपरिष्टाज्ज्योतिः । अष्टर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Who to Worship?

    Meaning

    Which lord divine shall we worship with homage of havi? By whose power and glory all mountains of the world capped with snow stand and rise in majesty, the stream of universal waters flows in space and the sea, whose voice, they say, resounds in space, whose arms extend as these quarters of space, that lord of peace and majesty shall we worship with homage and havi.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    With whose might all the snow covered mountains take shape; with whose might rivers flow'into the ocean; these quarters are whose arms; that divinity alone and none else we adore with our oblations.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    He by whose grandeur all the snow covered mountains stand by whose grandeur the earth, say the enlightened men stands in the space, whose arms are these celestial directional to that All-blissful Divinity we offer our humble Worship.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Through Whose might exist all the snowy mountains, and the streams the learned say flow into the ocean. The arms of Whom are these celestial quarters, may we worship with devotion, Him, the Illuminator and Giver of happiness.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(यस्य) कस्य। ईश्वरस्य (विश्वे) सर्वे। (हिमवन्तः) भूम्नि मतुप्, मस्य वः। बहुहिमयुक्ता महागिरयः (महित्वा) म० २। महित्वे (समुद्रे) अ० १।३।८। अन्तरिक्षे। पार्थिवसागरे (रसाम्) नन्दिग्रहि०। पा० ३।१।१३४। इति रस शब्दे-पचाद्यच्। यद्वा। रस उदकम्-निघ० १।१२। रसोऽस्त्यस्यामिति रसा। अर्शआदिभ्योऽच्। पा० ५।२।१२७। इति रस-अच्। रसा नदी भवति रसतेः शब्दकर्मणः-निरु० ११।२५। नदीम्। जलधाराम् (इत्) एव (आहुः) ब्रुवन्ति (इमाः) दृश्यमानाः (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः (बाहू) अ० २।२७।३। भुजद्वयवद् वर्तमानाः। अन्यद् गतम्-म० १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top