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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वेनः देवता - आत्मा छन्दः - पुरोऽनुष्टुप् सूक्तम् - आत्मविद्या सूक्त
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    आपो॒ अग्रे॒ विश्व॑माव॒न्गर्भं॒ दधा॑ना अ॒मृता॑ ऋत॒ज्ञाः। यासु॑ दे॒वीष्वधि॑ दे॒व आसी॒त्कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । अग्रे॑ । विश्व॑म् । आ॒व॒न् । गर्भ॑म् । दधा॑ना: । अ॒मृता॑: । ऋ॒त॒ऽज्ञा: । यासु॑ । दे॒वीषु॑ । अधि॑ । दे॒व: । आसी॑त् । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो अग्रे विश्वमावन्गर्भं दधाना अमृता ऋतज्ञाः। यासु देवीष्वधि देव आसीत्कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । अग्रे । विश्वम् । आवन् । गर्भम् । दधाना: । अमृता: । ऋतऽज्ञा: । यासु । देवीषु । अधि । देव: । आसीत् । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (गर्भम्) बीज को (दधानाः) धारण करते हुए, (अमृताः) मरणरहित [जीवन शक्तिवाले] (ऋतज्ञाः) सत्य नियम को जाननेवाले (आपः) उन व्यापक जलों [वा तन्मात्राओं] ने (अग्रे) पहिले (विश्वम्) जगत् की (आवन्) रक्षा की थी, (यासु देवीषु अधि) जिन दिव्य गुणवालों के ऊपर (देवः) परमेश्वर (आसीत्) था उस (कस्मै) सुखदायक प्रजापति परमेश्वर की (देवाय) दिव्य गुण के लिये (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा किया करें ॥६॥

    भावार्थ

    सृष्टि की आदि में ईश्वर नियम से जल [वा तन्मात्रा] के भीतर जगत् का बीज और जीवन सामर्थ्य था, जिससे यह सृष्टि हुई है। उसी परमात्मा के नियम पर चलकर हम अपने जीवन को पुरुषार्थ करके सुधारें ॥६॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१२—१।७, ८ और यजु० २७।२५, २६ में हैं। मनु महाराज ने भी ऐसा कहा है-मनु १।८ ॥ सोऽभिध्याय शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः। अप एव ससर्जादौ तासु बीजमवासृजत् ॥ उस परमात्मा ने सब ओर ध्यान करके अपने शरीर [अव्याकृत रूप वा सामर्थ्य] से नाना विध प्रजाएँ उत्पन्न करने की इच्छा करते हुए जलही पहिले उत्पन्न किया और उसमें बीज छोड़ दिया ॥

    टिप्पणी

    ६−(आपः) अ० १।४।३। जलानि। व्यापिकास्तन्मात्राः-इति दयानन्दो यजुर्वेदभाष्ये २७।२५। (अग्रे) सृष्ट्यादौ (विश्वम्) सर्वं जगत् (आवन्) अव रक्षणगत्यादिषु-लङ्। अरक्षन् (गर्भम्) अ० ३।१०।१२। बीजम्। मूलम्। प्रधानम् (दधानाः) दधातेः शानच्। धारयन्त्यः। धरन्त्यः सत्यः (अमृताः) नास्ति मृतं मरणं याभिस्ताः। मरणरहिताः। प्राप्तजीवनशक्तयः (ऋतज्ञाः) आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति ऋत+ज्ञा बोधे-क। टाप्। ऋतं सत्यं नियमं जानानाः (यासु) अप्सु (देवीषु) दिव्यगुणसंपन्नासु (अधि) अधिकम्। उपरि (देवः) परमेश्वरः (आसीत्) अभवत्। अन्यद् व्याख्यातम्-म० १ ॥

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    विषय

    अपो वै द्यौः

    पदार्थ

    १. (आपो वै द्यौ) = [ शत०६.४.१.९] (आपो वै दिव्यं नभः) [शत०६.८.५.३] इन वाक्यों के अनुसार धुलोक [आकाश] ही आप:' है। यह आकाश भी प्रभु से प्रादुर्भूत होता है-तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: सम्भूतः । इस आकाश में ही सारा संसार गर्भरूप से रहता है। (आपः) = यह आकाश व दिव्य नभ [Nebula] ही (अग्रे) = आरम्भ में (विश्वम्) = सम्पूर्ण विश्व को (आवन्) = अपने में [अरक्षत्] रखता था, (गर्भं दधाना:) = इन्होंने ही इसे गर्भरूप से धारण किया हुआ था। (अमृता:) = यह धुलोक अविनाशी है। स्वामी दयानन्द के शब्दों में 'उत्पन-सा होता है, वस्तुत: यह तो सदा से है। (ऋतज्ञा:) = ये द्युलोक ही वृष्टि-जल को [ऋत-rain-water] जाननेवाले हैं, यहीं से वृष्टि होती है। २. (यासु) = जिस (देवीषु) = प्रकाशमय ह्युलोक में (अधि देवा आसीत्) = अधिष्ठातरूपेण प्रभु थे। प्रभु से अधिष्ठित ही यह आकाश सम्पूर्ण विश्व को जन्म देता है। उस (कस्मै) = आनन्दमय (देवाय) = सर्वप्रद प्रभु के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन के द्वारा (विधेम) = पूजा करें।

    भावार्थ

    सम्पूर्ण संसार इस आकाश के गर्भ में है। प्रभु से अधिष्ठित आकाश विश्व को जन्म देता है। इस प्रभु के लिए हम हवि द्वारा पूजन करनेवाले हों।

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    भाषार्थ

    (अग्रे) प्रारम्भ में (आप:) जल (विश्वम्) विश्व में (आवन्) प्राप्त हुए, (गर्भम् दधानाः) जोकि परमेश्वर के कामनारूपी गर्भ को धारण किये हुए थे, (अमृताः) जोकि मृत्यु से रक्षा करनेवाले थे, और (ऋतज्ञाः) मानो नियमव्यवस्था को जानते थे। (यासु देवीषु) जिन दिव्य आप: [जल] में (अधि) अधिष्ठातृरूप (देव:) परमेश्वर (आसीत्) था, उस (कस्मै देवाय) किस देव के लिए, (हविषा) हवि द्वारा, (विधेम) हम परिचर्या अर्थात् सेवा भेंट करें।

    टिप्पणी

    [आपः शब्द स्त्रीलिङ्गी है, अतः इनमें गर्भधारण का कथन हुआ है। आपः का अर्थ है व्याप्त जल, विश्व में व्याप्त जल।]

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    विषय

    ईश्वर की महिमा।

    भावार्थ

    (अमृताः आपः) न नाश होने वाले अर्थात् अनश्वर ‘आपः’ अर्थात् प्रकृति जो (ऋतज्ञाः) इस ऋत = समस्त विश्व चराचर के उत्पत्ति-स्थान हैं वे (गर्भं दधानाः) समस्त जीवन के बीजों को अपने भीतर धारण करते हुए (अग्रे) सृष्टि के पूर्व में अर्थात् प्रलयकाल में भी (विश्वम्) इस समस्त चराचर संसार को (आवन्) अपने भीतर सुरक्षित रखते, हैं। और (यासु देवीषु) जिन ‘आप’ अर्थात् प्रकृतिः रूप दिव्य शक्ति पर (देवः) वह परम प्रभु, देव है (अधि भासीत्) अधिष्ठाता रूप से विराजमान रहा (कस्मै०) इत्यादि पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वेन ऋषिः। आत्मा देवता। १-२ त्रिष्टुभः।१ पुरोऽनुष्टुप्। ८ उपरिष्टाज्ज्योतिः । अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Who to Worship?

    Meaning

    Which lord divine shall we worship with havi? By whose power and presence, before the re-emergence of the state of objective existence, the potential dynamics of Prakrti bearing the blue-print of the universe in its womb, and the immortal souls, all under the state of eternal law, abide, over which, i.e., over all these divinities the One Supreme Lord who presided, that One Supreme Lord of peace, power and immortal bliss, we worship and serve with homage and havi.

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    Translation

    In the very beginning, the elemental waters, immortal and following the’eternal law, fostered all this universe, holding the embryo in their womb; within those divine waters He was the over-lording divinity. That divinity alone and none else we adore with our oblations.

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    Translation

    In the beginning the immortal atoms of matter adhering to the Divine law preserved the whole universe containing its germs inn them and He who was the only ordaining God of all these luminous atoms; to that All-blissful Divinity we offer our humble worship.

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    Translation

    The immortal forces of Matter, the physical cause of the animate and inanimate world, imbibing all the germs of life, before the beginning of the universe, preserve the entire world in their womb. God rules over all these divine material forces. May we worship with devotion, Him, the Illuminator and Giver of happiness.

    Footnote

    During the period of dissolution, and before the creation of the world, Matter remains in a nascent atomic state, preserving all the germs of life. Out of this chaos God evolves cosmos in the shape of the universe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(आपः) अ० १।४।३। जलानि। व्यापिकास्तन्मात्राः-इति दयानन्दो यजुर्वेदभाष्ये २७।२५। (अग्रे) सृष्ट्यादौ (विश्वम्) सर्वं जगत् (आवन्) अव रक्षणगत्यादिषु-लङ्। अरक्षन् (गर्भम्) अ० ३।१०।१२। बीजम्। मूलम्। प्रधानम् (दधानाः) दधातेः शानच्। धारयन्त्यः। धरन्त्यः सत्यः (अमृताः) नास्ति मृतं मरणं याभिस्ताः। मरणरहिताः। प्राप्तजीवनशक्तयः (ऋतज्ञाः) आतोऽनुपसर्गे कः। पा० ३।२।३। इति ऋत+ज्ञा बोधे-क। टाप्। ऋतं सत्यं नियमं जानानाः (यासु) अप्सु (देवीषु) दिव्यगुणसंपन्नासु (अधि) अधिकम्। उपरि (देवः) परमेश्वरः (आसीत्) अभवत्। अन्यद् व्याख्यातम्-म० १ ॥

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